Rigved : Mandal-10 Purvardh
Author:
Govind Chandra PandeyPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Religion-spirituality0 Reviews
Price: ₹ 520
₹
650
Available
वेद सनातनविद्या के काव्यात्मक प्रतिपादन हैं। ऋग्वेद संहिता के अनुवाद एवं व्याख्या का प्रयास अनेक भाषाओं में समय-समय पर होता रहा है, किन्तु अभी तक उपलब्ध सभी अनुवादों में काव्यपक्ष की उपेक्षा अथवा पद्यानुवाद की प्रस्तुति के असम्भव प्रयास ही किए गए हैं जो ऋचाओं के साथ पूरा न्याय नहीं करते हैं। वेदों में भावों की सनातनता एक व्यापक ध्वनि के रूप में सूक्तों, संवादों और आख्यानों में विद्यमान है। प्रस्तुत अनुवाद में पादानुसारी किन्तु भावपरक अनुवाद पर विशेष आग्रह सोद्देश्य है ताकि ऋचाओं की काव्यात्मकता का यथासम्भव सम्प्रेषण एवं मूल की अर्थयोजना का क्रम अनुवाद में सुरक्षित रहे।</p>
<p>भाषान्तर में व्याख्या का सूक्ष्म प्रकार अनिवार्य होता है और वही अनुवाद का वर्तमान और अतीत के मध्य संवाद बनाकर बहुत कुछ को परम्परा में जीवित तथा प्रगतिशील रखता है। अतः ग्रन्थ में अनुवाद के लिए उपयुक्त भाषा, पुरातन ध्वनि बहुलता और समसामयिक सजीवता के संरक्षण की दृष्टि से तत्सम, तद्भव एवं देशी शब्दों के समन्वित प्रयोग किए गए हैं। साथ ही, गम्भीर और बहुमुखी अर्थों को स्पष्ट करने के लिए क्रियापदों के अनुवाद, दुरूह पदों के अर्थनिर्वचन में धातुपाठ, निरुक्त की पद्धति एवं आधुनिक तथा तुलनात्मक व्याकरण के अनुसरण से सहायता ली गई है।</p>
<p>वेद आर्षकाव्य के निर्देशन के साथ-साथ अध्यात्मगवेषियों के मार्गदर्शक भी हैं। अतः ऋचाओं में संश्लिष्ट आधियाज्ञिक, आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक अर्थों को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। व्याख्याकारों में जहाँ विवाद की स्थिति है, वहाँ प्राचीन एवं नवीन दोनों ही मतों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार काव्यात्मक पक्ष की प्रस्तुति, निगूढ़ अर्थ के आयामों का विश्लेषण और विवादित स्थलों का तुलनात्मक विवेचन इस ग्रन्थ के अनुवाद एवं व्याख्या की अभीप्सित विशेषताएँ हैं।</p>
<p>इस खंड में ‘ऋग्वेद’ के दसवें मंडल (पूर्वार्द्ध) का व्याख्या सहित हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है।
ISBN: 9789381344101
Pages: 638
Avg Reading Time: 21 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: ‘गोरख विजय' नाथपंथ के महान योगी गुरु गोरखनाथ से सम्बन्धित पुरातन बाग्रा काव्य ग्रन्थ ‘गोर्ख विजय’ का हिन्दी अनुवाद और समीक्षात्मक पर्यालोचन प्रस्तुत करनेवाली कृति है। गोरखनाथ ने अपने साधनामय जीवन और कल्याणमय दर्शन से तत्कालीन जन-समाज को अत्यन्त प्रभावित-प्रेरित किया था। उन्होंने द्वैताद्वैत-विलक्षण अद्वैतवाद का समर्थन किया लेकिन संसार को मिथ्या मानने से इनकार किया। उन्होंने मोक्ष का साधन योग को माना और योग को अष्टांग न मानकर षडंग माना। वस्तुतः यम-नियम को उन्होंने, साधक हो या सामान्य-जन, मनुष्य मात्र का कर्तव्य और दायित्व बताया जिनमें परिपक्वता के बाद ही आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की सिद्धि सम्भव है। ऐसी अनेकानेक बातों को जानने-समझने के लिए ‘गोरख विजय’ एक अत्यन्य उपयोगी ग्रन्थ है। प्रस्तुत पुस्तक का एक और उल्लेखनीय पक्ष यह है कि इसमें बंगाल के लोक समाज में प्रचलित गोरखनाथ सम्बन्धी कई लोकगाथाएँ और कुछ अन्य प्रासंगिक सामग्री भी दी गई हैं जिनसे गोरखपंथी साधना के नये आयाम खुलते हैं। वस्तुतः साधक हो या साहित्यिक, विद्वान हो या सामान्य पाठक, गोरखनाथ में दिलचस्पी रखनेवाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह पुस्तक अवश्य पठनीय है।
Shri Ramcharitmanas (Pramanik Path Tatha Teeka)
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
- Book Type:

- Description: ‘श्रीरामचरितमानस’ भारतीय संस्कारों का श्रेष्ठतम महाकाव्य है। भारतीय संस्कार का अर्थ है, समग्र मानव जाति के निखिल मंगल, कल्याण एवं हितैषिता के प्रति समर्पित होकर प्रेम, स्नेह, उदारता, ममता, सहिष्णुता, दया, अस्तित्व, अहिंसा, सत्य, परोपकार आदि मूल्यों की प्रतिष्ठा करना। इस प्रकार, मानस मानव अस्तित्व को सर्वोपरि मानकर उसके लिए सबसे सुलभ, सर्वाधिक सुगम तथा श्रेयस्कर मार्ग की तलाश की छटपटाहट से संयुक्त है। समाज के सर्वोच्च शुभ की प्रतिष्ठा ही मानसकार तुलसी का महत्तम शुभ है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानवीय अस्तित्व की सार्थकता के लिए जिस भव्यतम शुभ का दर्शन किया है, मानस की कविता के विविध पात्रों द्वारा उसे जिस प्रकार व्यंजित किया है तथा नैतिक मंगल के सर्वोच्च मूल्य श्रीराम और उनके ठीक विपरीत गर्हित अशुभ एवं अधर्म के प्रतीक रावण को आमने-सामने रखकर जिस मानवीय शुभ की स्थापना की है—उसकी चरम परिणति असत्य पर सत्य की विजय, अशुभ पर शुभ की स्थापना, क्रूरता पर प्रेम तथा दया का प्रसार, प्रपंच तथा छल पर मानवीय सहजता की छाया की स्थापना में होती है। इस सृष्टि पर जब तक मानव जाति रहेगी, अपनी सांस्कृतिक धरोहर सत्य, प्रेम, दया, उदारता आदि श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों से सम्पृक्त ‘श्रीरामचरितमानस’ जैसे काव्य की रक्षा करती रहेगी। इस प्रकार ‘श्रीरामचरितमानस’ निखिल मानव जाति की सनातन धरोहर है और इस टीका का मन्तव्य है—उसकी इस अमूल्य तथा परम शुभमयी धरोहर से उसे बराबर परिचित कराते रहना।
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