
Saanjh Ka Neela Kivaar
Publisher:
Rajkamal Prakashan Samuh
Language:
Hindi
Pages:
136
Country of Origin:
India
Age Range:
18-100
Average Reading Time
272 mins
Book Description
भारतीय कविता विशेषकर हिन्दी कविता में अभी का समय स्त्री-नवजागरण का समय है। भक्तिकाल के बाद इतनी बड़ी संख्या में इतनी तेजोमय स्त्री कवियों का आविर्भाव हुआ है। भावना शेखर इसी स्त्री-काव्य का एक नवीनतम शिखर हैं। अन्तर केवल यह है कि भावना शेखर की कविताएँ रूढ़ या प्रचलित अर्थ में स्त्रीवादी कविताएँ नहीं हैं। ये बस उतनी ही और वैसी ही जाग्रत कविताएँ हैं जितनी कि किसी भी कविमात्र द्वारा सृजित हो सकती हैं—स्त्री वा पुरुष। क्योंकि ये मनुष्य जाति बल्कि सम्पूर्ण जीव-जगत और ब्रह्मांड की कविताएँ हैं। ‘बिछुड़न’ शीर्षक कविता इस जगत व्याप्ति का अद्भुत उदाहरण है। ‘हृदय की भूमि में’, ‘गुरुत्वाकर्षण’ की शक्ति को पहचानती भावना शेखर की कविताओं के लिए कुछ भी अस्पृश्य नहीं है। बचपन की स्मृतियों से लेकर ऐन्द्रिक अनुभवों और गहन लालसा से भरी ये कविताएँ सहसा हमें बेचैन कर देती हैं। ‘मेरी नसों में कुछ जी उठा है/मालूम होता है/दीवार के उस पार गुज़री हो तुम अभी-अभी’—आज केवल भावना शेखर ही ऐसी पंक्ति रच सकती हैं। और इतना नया और सूक्ष्म विवरण भी—‘पत्तों से छनती धूप बदरंग है कलई उतरे बर्तनों सी’, साथ-साथ भावना ने ऐसी कविताएँ भी लिखी हैं जो मूलत: स्त्री-अनुभव की कविताएँ हैं जैसे ‘सत्रहवीं दहलीज़’ या ‘ऋतुस्नान के बाद’। लेकिन यहाँ कोई तिक्तता या द्वेष नहीं है, केवल एक पृथक् जीवनचर्या है और यही इस कविता की प्रतिरोध-भूमि है। ‘बित्ता-भर ज़मीन’ की तलाश पूरे संग्रह की प्रेरणा-शक्ति है, फिर भी यहाँ कुछ भी सपाट या अनगढ़ नहीं है। ‘यह अभिधा नहीं व्यंजना है’ कवि का कहना है जो सच तथा प्रामाणिक है तथा ‘स्त्रीलिंग’ का इन्द्रधनुषी आक्षितिज प्रसार। इस संग्रह की एक अनूठी और मार्मिक कविता है ‘स्त्रीलिंग।’ इन कविताओं को पढ़ना एक नए अनुभव-संसार, एक नए शिखर की चमक और प्राणवायु को आत्मसात् करना है। मैं केवल एक कविता उद्धृत कर रहा हूँ—</p> <p>“चूल्हे की राख में बुझते अंगारे</p> <p>हथेली पर सूखती क़तरा-भर नमी</p> <p>इकलौते पैर पर लँगड़ाती मैना</p> <p>और पुलिया के पारवाली बंजर ज़मीं</p> <p>कभी तो सुलगेगी बुझती चिंगारी</p> <p>चुल्लू-भर तरावट मुट्ठी में होगी</p> <p>उस ओर होगी परिन्दों की आहट</p> <p>मेरी मुँडेर भी गौरैया फुदकेगी”</p> <p>—अरुण कमल