Parchhain ka Sach
Author:
Narmada Prasad UpadhyayaPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Unavailable
मन से परछाईं दूर नहीं हो पाती, लेकिन जब जीवन की देहलीज पर साँझ दस्तक देती है, तब जीवन का अर्थ समझ आने लगता है। अपनी जिंदगी की शाम में कैफ भोपाली जीवन और उससे जुड़ी परछाईं इन दोनों का अर्थ इन पंक्तियों में समझा गए हैं—
जिंदगी शायद इसी का नाम है,
दूरियाँ, मजबूरियाँ, तन्हाइयाँ।
क्या यही होती है शामे इंतजार,
आहटें, घबराहटें, परछाइयाँ।
जीवन की साँझ में ये परछाइयाँ हमें अपने अस्तित्व का स्मरण करा देती हैं। नंदकिशोर कहते हैं—
सूरज ढला तो कद से ऊँचे हो गए साये,
कभी पैरों से रौंदी थीं यही परछाइयाँ हमने।
सोचता हूँ, ये परछाइयाँ साँझ होते-होते क्यों लंबी होने लगती हैं? इसलिए कि ये ढल जाने की बाट जोहती हैं। इनके रिश्ते ऊषा से नहीं होते, भोर से नहीं होते, सुबह के आँचल में छुपी आशाओं से नहीं होते। इनके रिश्ते उस रात से होते हैं, जिसकी प्रकृति से परछाईं की प्रकृति मिलती है। दोनों स्याह होते हैं, दोनों भटकाते हैं और दोनों उजास की पराजय में अपनी जय के उत्सव रचते हैं। रात का उत्सव अँधेरा है और परछाईं का पर्व वह ढलती साँझ है, जिसके आगमन पर उजास की धड़कनें मंद होने लगती हैं।
परछाईं छलना है। उसकी परिणति अंधकार है। वह अपना उत्तराधिकार रात को सौंपती है। इसलिए भले परछाईं कुछ देर हमारे साथ-साथ चलकर हमें अपने साथ होने का आभास कराए, वह आश्वस्ति नहीं है, विश्वास नहीं है।
—इसी संग्रह से
ISBN: 9789388984027
Pages: 184
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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भारतीय कविता विशेषकर हिन्दी कविता में अभी का समय स्त्री-नवजागरण का समय है। भक्तिकाल के बाद इतनी बड़ी संख्या में इतनी तेजोमय स्त्री कवियों का आविर्भाव हुआ है। भावना शेखर इसी स्त्री-काव्य का एक नवीनतम शिखर हैं। अन्तर केवल यह है कि भावना शेखर की कविताएँ रूढ़ या प्रचलित अर्थ में स्त्रीवादी कविताएँ नहीं हैं। ये बस उतनी ही और वैसी ही जाग्रत कविताएँ हैं जितनी कि किसी भी कविमात्र द्वारा सृजित हो सकती हैं—स्त्री वा पुरुष। क्योंकि ये मनुष्य जाति बल्कि सम्पूर्ण जीव-जगत और ब्रह्मांड की कविताएँ हैं। ‘बिछुड़न’ शीर्षक कविता इस जगत व्याप्ति का अद्भुत उदाहरण है। ‘हृदय की भूमि में’, ‘गुरुत्वाकर्षण’ की शक्ति को पहचानती भावना शेखर की कविताओं के लिए कुछ भी अस्पृश्य नहीं है। बचपन की स्मृतियों से लेकर ऐन्द्रिक अनुभवों और गहन लालसा से भरी ये कविताएँ सहसा हमें बेचैन कर देती हैं। ‘मेरी नसों में कुछ जी उठा है/मालूम होता है/दीवार के उस पार गुज़री हो तुम अभी-अभी’—आज केवल भावना शेखर ही ऐसी पंक्ति रच सकती हैं। और इतना नया और सूक्ष्म विवरण भी—‘पत्तों से छनती धूप बदरंग है कलई उतरे बर्तनों सी’, साथ-साथ भावना ने ऐसी कविताएँ भी लिखी हैं जो मूलत: स्त्री-अनुभव की कविताएँ हैं जैसे ‘सत्रहवीं दहलीज़’ या ‘ऋतुस्नान के बाद’। लेकिन यहाँ कोई तिक्तता या द्वेष नहीं है, केवल एक पृथक् जीवनचर्या है और यही इस कविता की प्रतिरोध-भूमि है। ‘बित्ता-भर ज़मीन’ की तलाश पूरे संग्रह की प्रेरणा-शक्ति है, फिर भी यहाँ कुछ भी सपाट या अनगढ़ नहीं है। ‘यह अभिधा नहीं व्यंजना है’ कवि का कहना है जो सच तथा प्रामाणिक है तथा ‘स्त्रीलिंग’ का इन्द्रधनुषी आक्षितिज प्रसार। इस संग्रह की एक अनूठी और मार्मिक कविता है ‘स्त्रीलिंग।’ इन कविताओं को पढ़ना एक नए अनुभव-संसार, एक नए शिखर की चमक और प्राणवायु को आत्मसात् करना है। मैं केवल एक कविता उद्धृत कर रहा हूँ—
“चूल्हे की राख में बुझते अंगारे
हथेली पर सूखती क़तरा-भर नमी
इकलौते पैर पर लँगड़ाती मैना
और पुलिया के पारवाली बंजर ज़मीं
कभी तो सुलगेगी बुझती चिंगारी
चुल्लू-भर तरावट मुट्ठी में होगी
उस ओर होगी परिन्दों की आहट
मेरी मुँडेर भी गौरैया फुदकेगी”
—अरुण कमल
Sampoorn Kavitayein : Om Prakash Valmiki
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Omprakash Valmiki
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ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएँ एक ओर दलित समाज के वेदना, अपमान और यातना से भरे जीवन-अनुभवों का मार्मिक दस्तावेज हैं तो दूसरी तरफ वर्ण और जाति के नाम पर थोपी गई अपात्रता और वंचन के विरुद्ध प्रतिवाद का तप्त स्वर। ये कविताएँ आक्रोशभरा आह्वान हैं कि भारतीय समाज में हजारों सालों से जारी वर्चस्ववादी-ब्राह्मणवादी व्यवस्था को तत्काल खत्म कर देना चाहिए, क्योंकि यह व्यवस्था बराबरी पर आधारित मानवीय समाज के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। वास्तव में ये कविताएँ बाबा साहब आम्बेडकर के उस विचार का सृजनात्मक प्रसार हैं, जिसमें उन्होंने कहा था—“हमारे जीवन-मूल्य और सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने के लिए दलित साहित्यकारों को जागरूक और प्रयत्नशील हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में साहित्यकारों का मैं आह्वान करता हूँ कि वे विभिन्न साहित्यिक विधाओं के द्वारा उदात्त जीवन-मूल्यों और सांस्कृतिक मूल्यों को रेखांकित करें। अपने लक्ष्य को मर्यादा में मत बाँधो, उसे और अधिक विशाल बनने दो। वाणी का विस्तार करो। अपनी लेखनी को केवल अपने प्रश्नों तक सीमित मत रखो। उसे तेजस्वी बनाओ जिससे गाँव में फैला अन्धकार दूर हो सके। यह मत भूलो कि इस भारत देश में उपेक्षित दलितों का बहुत बड़ा विश्व है। अपनी रचनाओं द्वारा उनकी वेदना को समझकर उनके जीवन को उज्ज्वल बनाने की कोशिश करो। यही मानवता की सचाई है।”
कहना न होगा कि अपने एक-एक शब्द से, उत्पीड़ित मनुष्यता की तरफदारी करती, वाल्मीकि की कविताएँ उनकी रचनात्मकता की उपलब्धि तो हैं ही, हिन्दी कविता की भी उपलब्धि हैं।
Shabd Goonj
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Viren Dangwal
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वीरेन डंगवाल के यहाँ ख़तरा और प्यार, वस्तुतः एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्यार नष्ट हुआ है, क्योंकि ख़तरों से रूबरू होने की ताब नहीं बची : अब दरअसल सारे ख़तरे ख़त्म हो चुके/प्यार की तरह। इसलिए यह कहना अधूरा, बल्कि नुक़सानदेह आकलन होगा कि वीरेन प्रेम के कवि हैं। सच है कि प्रेम की आकांक्षा, वह भी सबकी ज़िन्दगी में उसे चरितार्थ होता देखने की आकांक्षा, सबके हित में उसका एहतिराम उनकी कविता की केन्द्रीय पुकार बन गया है और यह पुकार मार्मिक और सशक्त है, क्योंकि यह प्रेम के न होने की सचाई से वाक़िफ़ है : यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार! कविता की अनुगूँज में विलक्षण व्याप्ति है, जो इसे हमारे कठिन समय की पुकार में बदल देती है।
मगर यहाँ अभिलषित प्यार अपने रूप और मिज़ाज में उस प्रेम से भिन्न है, जो महज़ किसी स्त्री से संबोधित होने और उससे संसर्ग करने की उदग्र कामनाओं में ही व्यक्त हो पाता है। इस प्यार का अन्तरंग, इसकी दुनिया बड़ी है। अनगिनत भोली, सुन्दर, मासूम इच्छाओं का विफल रह जाना, किसी सपने का पूरा न हो सकना, किसी ख़ुशी का न मिल पाना—विराट् जन-जीवन के इस पराभव के पीछे आख़िर कौन-सी शक्तियाँ हैं? वीरेन डंगवाल की कविता इसके कारणों को जानना चाहती है, उन कारणों से लड़ना चाहती है : किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है/जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है?
—पंकज चतुर्वेदी
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