Madhu-Sa La
Author:
RameshraajPublisher:
Rachnaye FulfilledLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 46.75
₹
55
Available
हिंदी साहित्य जगत में विलक्षण प्रयोगों, नए-नए मुहावरों, अछूते प्रतीकों, पैनी और व्यंग्यात्मक भाषाशैली के साथ-साथ जनसापेक्ष रचनाशीलता के बल पर श्री रमेशराज ने एक महत्वपूर्ण मुक़ाम हासिल किया है।
आपके मौलिक चिंतन में एक तरफ जहां असीम गहराई है, वहीं सम्प्रेषणशीलता सर्वत्र मौजूद होने के कारण पाठक-मन ऊबता नहीं। हर तथ्य आसानी के साथ ग्रहण करते हुए वह आत्मतोष से भर जाता है।
तेवरी विधा के सूत्रधार श्री रमेशराज एक तेवरीकार के रूप में ही विख्यात हों, ऐसा कदापि नहीं है। आपने बेहतरीन मुक्तछंद कविताएं लिखी हैं। बालगीत कार के रूप में भी आपकी पहचान है। आपके गीत-नवगीत मन को गहराइयों तक छूते हैं। व्यंग्य व्यंजना का अद्भुत रंग लिए होते हैं। आपका चिंतन 'कविता क्या है?' जैसे मूलभूत प्रश्न को सुलझाता है। रस पर आपकी सूक्ष्म पकड़ है। समकालीन यथार्थवादी काव्य की रस-समस्या का समाधान खोजते हुए आपने एक नए रस "विरोधरस" की मौलिक खोज की है। काव्य की आत्मा पर चिंतन करते हुए "साधारणीकरण" के स्थान पर एक नया सिद्धांत "आत्मीयकरण" दिया है।
नए-नए छन्दों को प्रतिष्ठापित करने वाले श्री रमेशराज की ताजा काव्यकृति मधु-सा ला (चतुष्पदी-शतक) है, जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विकृतियों और विसंगतियों पर तीखे प्रहार किए गए हैं।यथा-
नसबंदी पर देते भाषण, जिनके दस लल्ली-लाला
हाला पीकर बोल रहे हैं, ‘बहुत बुरी होती हाला’।
अंधकार के पोषक देखो, करने आये भोर नयी
नयी आर्थिक नीति बनी है, आज प्रगति की मधुशाला।।
कवि ने अधर्मी साधुओं मौलवियों के दुराचरण पर बिना भेदभाव किये तटस्थ भाव से तीखे व्यंग्य कसे हैं-
मुल्ला-साधु-संत ने चख ली, राजनीति की अब हाला
गुण्डे-चोर-उचक्के इनके, आज बने हैं हमप्याला।
जनसेवक को शीश नवाते, झट गिर जाते पाँवों पर
ये उन्मादी-सुख के आदी, प्यारी इनको मधुशाला।।
दूषित होते पारिवारिक परिवेश का सजीव चित्रण देखिए-
बेटे के हाथों में बोतल, पिता लिये कर में प्याला
इन दोनों के साथ खड़ी है, कंचनवर्णी मधुबाला।
गृहणी तले पकौड़े इनको, गुमसुम खड़ी रसोई में
नयी सभ्यता बना रही है, पूरे घर को मधुशाला।।
पारिवारिक मूल्यों में आयी गिरावट पर कवि की पैनी पकड़ इसप्रकार है-
बेटे की आँखों में आँसू, पिता दुःखों ने भर डाला
मजा पड़ोसी लूट रहे हैं, देख-देख मद की हाला।
इन सबसे बेफिक्र सुबह से, क्रम चालू तो शाम हुयी
पूरे घर में महँक रही है, सास-बहू की मधुशाला।।
आज हमारा समाज सभ्यता के नाम पर कितना संस्कारविहीन हो गया है-
मरा पड़ौसी, उसके घर को दुःख-दर्दों ने भर डाला
हरी चूड़ियाँ टूट गयीं सब, हुई एक विधवा बाला।
अर्थी को मरघट तक लाते, मौन रहे पीने वाले
दाहकर्म पर झट कोने में, महँकी उनकी मधुशाला।।
एक चतुष्पदी में सियासत का षडयंत्र देखिए-
उसने की है यही व्यवस्था, दुराचरण की पी हाला
प्याला जिसके हाथों में हो, बन जा ऐसा मतवाला।
मत कर चिन्ता तू बच्चों की, मत बहरे सिस्टम पर सोच
तेरी खातिर जूआघर हैं, कदम-कदम पर मधुशाला।।
समाज को चेतना प्रदान करने वाले कवि का आचरण आज कैसा जनविरोधी हो गया है-
कलमकार भी धनपशुओं का, बना आजकल हमप्याला
दोनों एक मेज पर बैठे, पीते हैं ऐसी हाला।
निकल रहा उन्माद कलम से, घृणा भरी है लेखों में
महँक छोड़ती अब हिंसा की, अलगावों की मधुशाला।।
दुष्टों, दुराचारियों के सम्मुख नतमस्तक होते क़लम के सिपाहियों पर तंज कसते हुए कवि कहता हैं-
सबसे अच्छी मक्खनबाजी, हुनर चापलूसी का ला
तुझको ऊँचा पद दिलवाये, चाटुकारिता की हाला।
स्वाभिमान की बात उठे तो, दिखला दे तू बत्तीसी
कोठी बँगला कार दिलाये, बेशर्मी की मधुशाला।।
सारा परिवेश विषैला हो चुका है। हर सियासी दल से जनता को धोखा मिल रहा है। पूरा का पूरा सिस्टम एक अनसुलझा सवाल बन गया है। फिर भी कवि हार न मानते हुए रहनुमाओं से यह सवाल करता है तो करता है-
कब तक सपना दिखलाओगे, गांधी के मंतर वाला
और पियें हम बोलो कब तक, सहनशीलता की हाला।
अग्नि-परीक्षा क्यों लेते हो, बंधु हमारे संयम की
कब तक कोरे आश्वासन की, भेंट करोगे मधुशाला।।
कुल मिलाकर रमेशराज जी के इस मधु-सा ला (चतुष्पदी-शतक) का साहित्य-जगत में उनकी अन्य कृतियों की तरह स्वागत होगा, ऐसा विश्वास है।
~अनिल 'अनल'
ISBN: RF-RR-MSL
Pages: 28
Avg Reading Time: 1 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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