Hum Bhi Wapas Jayenge
Author:
Abhinav ShuklPublisher:
Shivna PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 80
₹
100
Available
Book
ISBN: 9789381520192
Pages: 120
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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अपरिभाषित विकलता उसमें नहीं आ जाती। विवेक गुप्ता के पहले संग्रह की ये कविताएँ अपने समय
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मनुष्य हो सकने की आकांक्षाजन्य रचनात्मकता से अपना उत्स पाती हैं। यही कारण है कि कवि
अपने अवसाद के क्षणों में भी, सर्जनात्मकता को सम्भव कर पाता है।
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कविताओं में शोरगुल को संयम से बताने का धीरज है, चीज़ों को बहुत क़रीब से देखने का उपक्रम
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यह सब नारेबाजी अथवा सतही राजनीतिक शब्दावली से नहीं, कवि की जीवन में निष्ठा और
प्रतिबद्धता से सम्भव हुआ है, इस बात के सूत्र इस संग्रह की कविताओं में बार-बार मिलते हैं। ‘वह
एक घर था ऐसा’, ‘जुलूस’, ‘विस्थापन’, ‘इस तरह थे हम वहाँ’ जैसी कविताएँ हमारे परिवार और
समाज में लगातार बढ़ती जा रही यंत्रणा और अलगाव की ट्रेजडी की गहन पड़ताल ही नहीं करतीं,
बल्कि ‘ऐसा नहीं होना चाहिए’—इस उत्कट इच्छा का भी प्रकटीकरण करती हुई चलती हैं। एक युवा
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Description:
'स्वीकरण’ शब्द मेरा नहीं, पुराना है—12वीं सदी के काव्याचार्य राजशेखर का है। मैंने शब्द 'कविता का एक भाषा से दूसरी भाषा में काव्यानुवाद’—इस अर्थ में लिया है। राजशेखर ने 'स्वीकरण’ का प्रयोग इसे 'हरण’ से व्यावृत्त—अलग—करने के लिए किया है। राजशेखर कहते हैं कि नई कविता बनती ही पुरानी चली-आती कविताओं की परम्परा के भीतर है—यों पुरानी कविता को 'ले लेना’ कोई बुरी बात नहीं—बल्कि अनिवार्य है। पर उसे सचमुच 'अपना लेना’ उपाय-कौशल चाहता है। राजशेखर ऐसे उपायों का विस्तार से वर्णन करते हैं। इसके लिए पुरानी कविता का रूपान्तर आवश्यक था जो कई तरह से किया जा सकता था, जिन्हें राजशेखर खोल कर दिखाते हैं। 'स्वीकरण’ शब्द राजशेखर ने गढ़ा था। पर इसके पीछे जो धारणा है, विचार है, वह 'ध्वन्यालोक’ के विख्यात लेखक, भाषा में एक नए अर्थलोक—व्यंजना—के द्रष्टा, महत् दार्शनिक आनन्दवर्धन का है। आनन्दवर्धन अपने ग्रन्थ में ध्वनि (व्यंजना) की शास्त्रीय स्थापना करने के बाद पूछते हैं कि यह जो स्थापना हुई है, यह क्या शास्त्रमात्र-सार नहीं? इससे कवि को क्या लाभ? उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि मनुष्य के चित्त में जितने भाव हैं, पुरानी कविता में उनकी सक्षम अभिव्यक्ति हो चुकी है, आज का कवि नया क्या कर सकता है? पर कविता तो नई ही होती है। आनन्दवर्धन की दृष्टि में यह नयापन व्यंजना का ही नयापन होता है। पुरानी कविता की व्यंजना बदल दी जाए तो कविता नई हो जाती है।
मेरे अनुवाद इन पुराने रास्तों पर नहीं चलते। 'स्वीकरण’ मेरे लिए अनूदित कविता का रूपान्तरण नहीं, उलटे उस कविता के स्वरूप-स्वभाव को, भाव-मर्म को बजा रखते हुए उसे एक नई भाषा में उतारना है। एक बात और कहना चाहूँगा। संस्कृत कविता मुक्तक-प्रधान है। बड़ी कविताओं में, महाकाव्यों में भी, यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है। मैंने अपने 'अनुवचन’ में मुक्तक पर कुछ लम्बी चर्चा की है। पाठक उसे देखेंगे तो इन कविताओं में उसकी पैठ बढ़ सकती है।
—प्रस्तावना से
संस्कृत काव्य की विपुलता और वैभव का अक्सर ज़िक्र होता है। मुकुन्द लाठ उन बिरले कवि-चिन्तकों में से हैं जिन्होंने इस काव्य के अपार लालित्य को हिन्दी में सुघरता और संवेदनशीलता से लाने की कोशिश की है। राजशेखर के हवाले से वे इन्हें 'स्वीकरण’ कहते हैं। वे इस अर्थ में स्वीकरण हैं भी कि उन्हें पढ़ते लगता है कि आप मूल हिन्दी कविता ही पढ़ रहे हैं। हमें प्रसन्नता है कि हम रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत इस संचयन को एक बार फिर हिन्दी पाठकों के समक्ष रसास्वादन के लिए ला रहे हैं।
—अशोक वाजपेयी
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