Nai Gulistan : Vols. 1-2
Author:
Kaifi AzmiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 720
₹
900
Available
ग़ालिब का एक शेर ज़़रा सी हेर-फेर के साथ पेश है-
होगा कोई ऐसा भी जो कैफ़ी को न जाने
शायर तो वो अच्छा है पे... ... ...
और इस ‘पे’ (लेकिन) के बाद बहुत कुछ आ सकता है, वह भी जो ‘ग़ालिब’ ने कहा और उसके अलावा बहुत कुछ और भी। कैफ़ी आज़मी के मुआमले में इस ‘पे’ के बाद उनके एक और व्यक्तित्व का तज़्करा भी आ सकता है जिसके दर्शन आपको इस संकलन के पृष्ठों में होंगे।
इसमें कोई शक नहीं कि कालमनिगार एक वाहियाततरीन काम है। वक़्ती घटनाओं पर वक़्ती तब्सरा करना कालमनिगार का काम होता है। और यही कारण है कि कालमनिगार का क़लम जब ठहरता है तो बहुत जल्द उसका पाठक उसे भुला भी देता है।
लेकिन इसी के बीच इक्का-दुक्का मिसालें ऐसी मिलती हैं जिनमें एक कालमनिगार का जौहर वक़्त की सरहदों को पार करता नज़र आता है। ‘नई गुलिस्ताँ’ में कैफ़ी की रचनाएँ भी इसी श्रेणी में रखी जाने की चीज़ें हैं।
कॉलम के रूप में कभी छपी इन रचनाओं में कैफ़ी की अपनी एक अलग ही शैली अपने पूरे तबो-ताब के साथ दिखाई देती है। कैफ़ी का हमज़ाद एक हिकायतनवीस इनमें से अधिकांश रचनाओं का ‘सूत्रधार’ है और किसी नीति-कथा, किसी ऐतिहासिक घटना या किसी लतीफ़े के माध्यम से अपने समय की राजनीति पर एक चुभता हुआ तब्सरा करता है। फिर जिस तरह जातक कथाओं में बुद्ध अन्त में एक नीति-वाक्य बोलते दिखाई देते हैं, उसी तरह इन रचनाओं में कैफ़ी अन्त में एक ‘राजनीतिक-वाक्य’ बोलते नज़र आते हैं। अधिकांश रचनाओं का अन्त कुछ अशआर पर या कुछ सुप्रचलित अशआर की पैरोडी पर होता है जो अपना ख़ुद का एक लुत्फ़ पैदा करते हैं। इसके अलावा इस पूरे संकलन को नज़्म (पद्य) में लिखी नस्र (गद्य) का नाम दें, जो तथाकथित नस्री नज़्म (गद्य-काव्य) से कहीं बहुत ऊँचे दर्जे की चीज़ है, तो कुछ ग़लत नहीं होगा। इस पूरे संकलन में शायद ही कोई ऐसा वाक्य आपको मिले जिसमें कैफ़ी ने अपनी शे’री फ़ितरत छोड़ी हो और क़ाफ़ियापैमाई न की हो। दूसरे अलफ़ाज़ में, कैफ़ी की नस्र भी बड़े ठस्से के साथ यह कहती हुई नज़र आती है कि मैं किसी नस्रनिगार की नहीं, शायर की रचना हूँ। नतीजा यह कि पाठक के लिए इस अच्छे-ख़ासे भारी संकलन में बोर होने का कहीं कोई मुक़ाम नहीं है।
ISBN: 9788126701773
Pages: 610
Avg Reading Time: 20 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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'बिकल मन/ठहरो/हम उपेक्षा नहीं करते/किसी की आवाज़ की/और फिर वह/गली/सागर पार/निर्जन, कहीं से भी आए!’
केदार जी सबकी आवाज़ सुनते हैं। प्रकृति का कण-कण। घर का कोना-कोना, मन का रेशा-रेशा; जहाँ भी स्पन्दन है, केदार जी की कविता अपनी पूरी संवेदना के साथ वहाँ पहुँच जाती है। हर स्वर की प्रतिध्वनि को व्यक्त करने को उनके शब्दों का रोम-रोम खुला है। खुलते दिन, उतरती साँझें, गहराती रातें—सभी बिम्ब यहाँ उपस्थित हैं और साथ में है रचने को कवि के आतुर हाथ...
'खोल दूँ यह आज का दिन/जिसे/मेरी देहरी के पास कोई रख गया है/एक हल्दी रँगे/दूरदेशी पत्र-सा...इस सम्पुटित दिन के सुनहले पत्र को/जो द्वार पर गुमसुम पड़ा है/खोल दूँ।’
प्रकृति केदार जी की कविताओं का विषय नहीं, उनकी सहचरी है। वे प्रकृति को देखते भी हैं, उससे उजास भी लेते हैं और उसकी पुनर्रचना भी करते हैं। इसी तरह लोक और उसमें रचा-बसा घर, और घर में बुने हुए रिश्ते—इन सबकी इयत्ता उनके शब्दों के साथ-साथ चलती है, उनसे अपना नया रूप पाती है, एक नई परिभाषा जो हमें नए सिरे से जीने का भरोसा और उम्मीद देती है। घर के रूप में एक ख़ाली कमरा भी उन्हें अपनी पूरी भयावहता में अन्तत: एक सकारात्मक बिन्दु दिखाई देता है जहाँ से वे और हम अपनी नई यात्रा शुरू कर सकते हैं...
'आज भी खड़ा है वह/...मेरी प्रतीक्षा में/बड़े-बड़े डैनों वाला कमरे का दानव...उसे सब ज्ञात है/...इसीलिए कभी कुछ पूछता नहीं है/जब बाहर से आता हूँ/चुपके से क्षत-विक्षत डैने उठाकर/मुझे जगह दे देता है/मानो कहता हो : अब बहुत थक गए हो तुम/योद्धा, विश्राम करो!’
Dyodhi Par Aalap
- Author Name:
Yatindra Mishra
- Book Type:

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पिछली सदी के आख़िरी वर्षों तक आते-आते यथार्थ कुछ इस क़दर निरावृत्त हुआ कि उसे खोजने और रचना में व्यक्त करनेवाली पुरानी प्रविधियाँ अपने तमाम औज़ारों के साथ निरर्थक लगने लगीं। ‘समाजवाद’ से थोड़ा पहले ही नेहरूवीय भ्रमों का अवसान हुआ और रात के ‘अँधेरे में’ दिखनेवाला फासिस्ट जुलूस प्रभातफेरी और शोभायात्रा में बदल गया। न छिपाने में किसी की रुचि रह गई, न बताने को कुछ ख़ास बाक़ी बचा। हिन्दी की युवतम कविता के मुहावरे में इस विडम्बनात्मक स्थिति को यतीन्द्र मिश्र कुछ यूँ व्यक्त करते हैं : कठपुतलियाँ भी जानती हैं/जो दिखा रहीं वह नक़ली है/जो छिपा रहीं वह असली है...’ (कठपुतलियाँ)।
यथार्थ में हुए परिवर्तन के इस विस्फोट ने पुरानी दुनिया में रचे-पगे अनेक रचनाकारों को स्तब्ध कर दिया। उनकी आँखें फटी रह गईं, पर नए दृश्य अपने आशयों के साथ उनमें समा न सके। इस स्थिति का सामना होने पर कुछ ने तो अपने भी आवरण उतार फेंके और बहती गंगा में कूद पड़े, लेकिन अधिकांश ने पुराने वैचारिक ढाँचे को सख़्ती से पकड़ लिया। सम्भवतः असुरक्षा की भावना के चलते ‘विचारधारा के अवसान’ के युग में बननेवाला वैचारिक स्टीरियोटाइप पहले से अधिक एकीकृत और व्यापक हुआ। परम्परागत आलोचना ने भी इसे सराहा क्योंकि उसकी समस्या भी वही थी, यानी नए यथार्थ के सामने असहजता और अपने अप्रासंगिक हो जाने का भय। दोनों ने एक-दूसरे की कमी को पहचाना और भाषा में उसकी भरपाई की—‘दिखाई नहीं देती बात करती ज़ुबान में/एक ताज़ा आदिम महक/न ऐसा सच/जो निबौलियों की तरह कड़वा हो’ (हम प्रतिदिन)।
इस ‘मतलबपरस्ती’ के बरक्स कुछ स्वर हिन्दी कविता में ऐसे भी उभरे जिन्होंने नए यथार्थ की चमकीली सतह की चकाचौंध से आक्रान्त हुए बिना उसकी गहराइयों में जाने का जोखिम उठाया और वहाँ से भाँति-भाँति के रंग-बिरंगे तत्त्व एकत्र किए। स्वभावतः, बहुस्तरीय यथार्थ से सम्पर्क और तदनुरूप भाषा-शैली की ईमानदार खोज के कारण उनके स्वर भी अलग-अलग थे, लेकिन उनकी एकसूत्रता भी ठीक उसी वजह से थी—‘इसी भीड़ में रहते हुए भीड़ से अलग/हर एक रोता है अपने-अपने ढंग से/जिस पर दूसरे अपने अनूठे तरीक़ों से हँसते हैं’ (मसखरे)। यतीन्द्र मिश्र की कविता इन्हीं नए स्वरों का प्रतिनिधित्व करती है। धैर्य के साथ चीज़ों को देखना, उनके रहस्यों को विखंडित करना यतीन्द्र मिश्र को विशेष प्रिय है।
यह संग्रह इस अर्थ में अनूठा है कि इसकी प्रायः सभी कविताएँ किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति को विश्लेषित करती, ठोस वस्तुस्थिति की कविताएँ हैं। भावनाओं की अमूर्त्त दुनिया भी है, लेकिन परदे के पीछे। इहलौकिकता के साथ यतीन्द्र मिश्र की कविता की दूसरी विशेषता है इसकी स्मृति-सम्पन्नता। वैसे तो ‘नमक’ जैसी एकाध कविता में अतीत के संघर्ष की स्मृति भी मिलती है, लेकिन आमतौर पर यतीन्द्र के यहाँ मिटती हुई अथवा हाशिये पर जाती हुई मूल्यवान चीज़ों की स्मृति बार-बार आती है। लोक और संगीत प्रायः इसके माध्यम बनते हैं।
‘बारामासा’, ‘लोकगीत’ और ‘क़िस्से-कहानियों की स्मृतियाँ’ ऐसी कविताएँ हैं, जिनमें यथार्थ और स्वप्न के सन्दर्भ में लोकजीवन की स्मृति को सहेजा गया है। ‘आदमी बने रहने की कोशिश’ तथा ‘अष्टपदी’ जैसी कविताओं में यह चिन्ता संगीत के माध्यम से हमारे सामने आती है, जबकि हाशिये पर पहुँच चुके लोग अपनी शक्ति के साथ ‘तकियाकलाम’, ‘मिरासिनें’ तथा ‘कछुआ और खरगोश’ में उपस्थित होते हैं। वैसे तो यतीन्द्र का काव्य-संसार शुरू से आख़िर तक ऐन्द्रिक संवेदनों का संसार है, लेकिन रंगों का जादू उन्हें ख़ासतौर पर सम्मोहित करता है। रंग और संगीत की परस्पर अन्तःक्रिया से निर्मित प्रेम का यह बिम्ब देखें—‘मैं नदी जितना साँवला/तुम सूर्योदय जितनी उज्ज्वल/हमारा प्रेम/कभी बसन्त/ कभी जोगिया में/एक अतिविलम्बित बढ़त’ (हमारा प्रेम)। तेज़ी से भागते समय को रंगों के आकर्षण में रोक रखना कवि को सम्भव जान पड़ता है। लिखना, पढ़ना और रँगना यहाँ परस्पर समानार्थक क्रियाएँ बनकर उभरती हैं। सम्भवतः इसीलिए अपने देशकाल का सबसे सार्थक आख्यान वे ‘सुनो रंगरेज’ जैसी कविता में कर पाते हैं। इस दृष्टि से ‘समय को रँगते हुए पढ़ना’, ‘सहजता के लिए जगह’ और ‘कजरी’ जैसी कविताएँ उल्लेखनीय बन पड़ी हैं।
कवि की यही प्रवृत्तियाँ तानसेन, तुकाराम, उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ और ग़ालिब तक उसे ले जाती हैं और उनके होने का मतलब, उनका सारतत्त्व तलाशती हैं। इसी तलाश में यतीन्द्र अक्सर उन जगहों पर भी पहुँचते हैं, जहाँ जीवन की साधारण परिस्थितियाँ अपनी विशिष्टता में मौजूद हैं। यहाँ उनके साथ कवि का सौहार्दपूर्ण रिश्ता हमें ज़्यादा बड़े आशयों की ओर ले जाता है और इस प्रक्रिया में ‘रफ़ू’, ‘लंगड़ा आम’, ‘सुबह’ व ‘ढोल’ जैसी महत्त्वपूर्ण कविताओं से हमारा सामना होता है। इन कविताओं को पढ़कर कोई भी पाठक मामूली चीज़ों से कविता बना देने की कवि की प्रतिभा को महसूस किए बिना नहीं रहेगा।
यह संग्रह हिन्दी की युवा कविता की सम्भावना, शक्ति और दिशा को प्रकट करनेवाला एक प्रतिनिधि संग्रह है।
—कृष्णमोहन
Samkaleen Marathi Anudit Kavita
- Author Name:
Sunil Baburao Kulkarni
- Book Type:

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मराठी कविता की 600 वर्ष की दीर्घ इतिहास परम्परा है। हर काव्य प्रवाह में उत्थान, ठहराव और अवसान के बाद पुनरुत्थान यह कालक्रम निरन्तर चलता रहता है। मध्यकाल में भक्ति परम्परा के माध्यम से निर्मित हुआ श्रेष्ठ संत काव्य मराठी कविता का महत्त्वपूर्ण उत्थान पर्व रहा है। 1920 से 1945 का काल एक अर्थ में थोपे गए रोमांटिसिज्म के कारण अवनति के काल के रूप में जाना जाता है। इस सांकेतिक शरणागतता तथा उसके कारण निर्मित तत्कालीन परिस्थिति को पहला आघात बा.सी. मर्ढेकर ने दिया।
स्वातंत्र्योत्तर काल के पहले दशक की कविताओं को नई कविता कहा जाता है। इस काल में बा.सी. मर्ढेकर और वि.दा. करन्दीकर की कविताओं में परिवेश के इर्द-गिर्द घूमती हुई कविताओं की परिपाटी पर चलने वाली कविताओं के सृजन का प्रयास दिखाई देता है। वैश्वीकरण के कारण होने वाले बदलावों का अप्रत्यक्ष प्रभाव 1990 के बाद की कविताओं पर रहा है। इस काल के कवियों पर आसपास के परिवेश, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा भाषिक पर्यावरण का प्रभाव होता है।
प्रस्तुत उपक्रम में इस काल में आकार लेने वाले नये सामाजिक, आर्थिक, राजकीय, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परिवेश के माध्यम से मराठी कविता में आए नव प्रवाहों पर संक्षिप्त रूप में प्रकाश डालते हुए हिन्दी भाषिक विद्यार्थियों को मराठी कविता का परिचय कराने का प्रयास इस विषय पत्रिका का प्रमुख उद्देश्य रहा है।
इस दृष्टि से कविता का सृजन करने वाले पिछले तीन दशकों में मराठी कवियों की संख्या विशेष लक्षणीय है। ये कवि महाराष्ट्र के कोने-कोने में व्याप्त हैं। ग्रामों से शहरों तक में निवास करने वाले ये कवि अपने परिवेश की सुगंध को कायम रख कविताएँ लिख रहे हैं।
संकलन की कविताओं और कवियों का चयन करते समय यह बात विशेष रूप से ध्यान में रखी गई है कि चयनित कवि मूलत: मराठवाड़ा प्रांत से ही सम्बन्धित हों। इन सभी कवियों के मराठवाड़ा की मिट्टी में पले-बढ़े होने के कारण इनकी कविताओं में मिट्टी की सोंधी सुगन्ध के साथ-साथ मराठवाड़ा की भूमि पर घटित सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक गतिविधियों का यथार्थ चित्र अंकित हुआ है। उसे जानने और समझने में छात्रों को निश्चित रूप से सहायता मिलेगी, ऐसा हमें पूरा विश्वास है।
Pakistani Urdu Shayari Vol. 1
- Author Name:
Narendra Nath
- Book Type:

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