Tughalaq
Author:
Girish KarnadPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
मोहम्मद तुग़लक चारित्रिक विरोधाभास में जीनेवाला एक ऐसा बादशाह था जिसे इतिहासकारों ने उसकी सनकों के लिए ख़ब्ती करार दिया। जिसने अपनी सनक के कारण राजधानी बदली और ताँबे के सिक्के का मूल्य चाँदी के सिक्के के बराबर कर दिया। लेकिन अपने चारों ओर कट्टर मज़हबी दीवारों से घिरा तुग़लक कुछ और भी था। उसने मज़हब से परे इंसान की तलाश की थी। हिंदू और मुसलमान दोनों उसकी नज़र में एक थे। तत्कालीन मानसिकता ने तुग़लक की इस मान्यता को अस्वीकार कर दिया और यही ‘अस्वीकार’ तुग़लक के सिर पर सनकों का भूत बनकर सवार हो गया। नाटक का कथानक मात्र तुग़लक के गुण-दोषों तक ही सीमित नहीं है। इसमें उस समय की परिस्थितियों और तज्जनित भावनाओं को भी अभिव्यक्त किया गया है, जिनके कारण उस समय के आदमी का चिंतन बौना हो गया था और मज़हब तथा सियासत के टकराव में हरेक केवल अपना उल्लू सीधा करना चाहता है। 3 अप्रैल, 1983, हिंदुस्तान, नयी दिल्ली
ISBN: 9788183613767
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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भारत के कई प्रदेशों और हिन्दी अंचल में पिछले कुछ बरसों में बाल रंगमंच का तेज़ी से विस्तार हुआ है। इस विस्तार का पर्याप्त वैचारिक और तथ्यपरक सर्वेक्षण अभी तक नहीं हो पाया है। दिल्ली की नाट्यसंस्था ‘उमंग’ की रजत जयंती पर ऐसा आकलन करने का एक प्रयत्न है यह पुस्तक। हिन्दी में पहली बार बाल रंगमंच को लेकर वैचारिक विमर्श, रंगपद्धतियों और गतिविधियों, बाल रंग संस्थाओं और ‘उमंग’ के पच्चीस वर्ष पर सामग्री एकत्र की गई है। इसमें हिन्दी अंचल के अलावा पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात और मणिपुर के भी बाल रंगमंच पर उपयोगी जानकारी संकलित की गई है।
विष्णु प्रभाकर, नेमिचन्द्र जैन, ब.व. कारंत, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, नरेन्द्र शर्मा, बंसी कौल, भानुशंकर मेहता, गिरीश रस्तोगी, ललित मोहन थपलियाल, देवेन्द्रराज अंकुर, प्रेमा कारंत, हरेकृष्ण देवसरे, अलखनन्दन, महेश आनन्द, सुषमा सेठ, मलयश्री हाशमी आदि को बाल रंगमंच के सिलसिले में एक पुस्तक में पाने का यह शायद पहला अवसर है...दुर्लभ तो है ही।
Paglaye Log
- Author Name:
Prabhat Kumar Upreti
- Book Type:

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Description:
‘पगलाए लोग’ में समसामयिक मंचित नाटक संगृहीत हैं। लेखक प्रभात कुमार उप्रेती के मन में उन लोगों के लिए अपर सम्मान है ‘जो लोग हमेशा इतिहास के उजाले पक्ष में होते हैं...भलाई के लिए मर-मिटते हैं...।’ इन नाटकों में ऐसे ही व्यक्ति केन्द्र में हैं जिनके कारण यह जीवन जीने के योग्य बना रहता है। जो सामाजिक मूल्यों की स्थापना के लिए सर्वस्व दाँव पर लगा देते हैं।
इस संग्रह की एक पृष्ठभूमि यह भी है कि 1980-2000 के मध्य उत्तराखंड में नाटक आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा था। व्यापक सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखकर लिखे गए ये नाटक वास्तविक घटनाओं पर आधारित हैं। इनके मंचनों को दर्शकों की भरपूर सराहना प्राप्त हुई है। यह तथ्य भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि इन नाटकों ने सकारात्मक मानसिक परिवर्तन के लिए एक पीठिका का निर्माण किया। प्रभात कुमार उप्रेती
ने उन जननायकों का स्मरण किया है जिनके बिना इस क्षेत्र का इतिहास नहीं लिखा जा सकता।
जो पाठक इन नाटकों में अपने समय की शिनाख़्त करना चाहेंगे उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा। मानव और मानवेतर प्रकृति से जुड़े अनेक सन्दर्भ यहाँ अनुभव किए जा सकते हैं। इस तरह कई नाटक होते हुए भी ‘पगलाए लोग’ एक लम्बे’ नाटक की तरह भी स्वीकार किया जा सकता है, अपने अर्थपूर्ण विभाजन में तो स्वीकार्य है ही।
लेखक ने प्रवाहपूर्ण भाषा के द्वारा घटनाओं, विचारों और मंचीय गतिविधियों को साकार किया है।
Kabira Khada Bazaar Mein
- Author Name:
Bhisham Sahni
- Book Type:

- Description: बेपरवाह, दृढ़ और उग्र—संक्षेप में मस्तमौला—कबीर का व्यक्तित्व सदियों से भारत मन और मनीषा को प्रभावित करता रहा है। यही कारण है कि पाँच सौ वर्षों से कबीर के पद भारतीयों की ज़बान पर हैं और उनके विषय में कितनी ही कहानियाँ लोकविश्रुत हैं। अपने युग की तानाशाही, धर्मान्धता, बाह्याचार और मिथ्या धारणाओं के विरुद्ध अनथक संघर्ष करनेवाला यह व्यक्ति हमारे बीच आज भी एक स्थायी और प्रेरक मूल्य की तरह स्थापित है। ‘कबिरा खड़ा बज़ार में’ कबीर के ऐसे ही मूल्यवान व्यक्तित्व को प्रस्तुत करनेवाली बहुमंचित और चर्चित नाट्यकृति है। सुविख्यात प्रगतिशील कथाकार भीष्म साहनी की ‘हानूश’ के बाद यह दूसरी नाट्य-रचना थी, जिसे हिन्दी रंगमंच पर व्यापक प्रशंसा प्राप्त हुई है। कबीर की फक्कड़ाना मस्ती, निर्मम अक्खड़ता और युगप्रवर्तक सोच इस कृति में पूरी जीवन्तता के साथ मौजूद है। साथ ही इसमें यह भी उजागर हुआ है कि कबीर की साहित्यिकता सामाजिक जड़ता को तोड़ने का ही एक माध्यम थी, जिसके सहारे उन्होंने अनेकानेक मोर्चों पर संघर्ष किया। कृति से गुजरते हुए पाठक कबीर के इस संघर्ष को उसकी तमाम तत्कालीन सामाजिकता के बावजूद समकालीन भारतीय समाज की विभिन्न विकृतियों से सहज ही जोड़ पाता है। संक्षेप में कहें तो भीष्म साहनी की यह नाट्यकृति मध्ययुगीन वातावरण में संघर्ष कर रहे कबीर को—उनके पारिवारिक और सामाजिक सन्दर्भों सहित—आज भी प्रासंगिक बनाती है।
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