Imroz
Author:
Kunal HridayPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
इमरोज़ साहित्यिक जगत के एक अत्यन्त चर्चित और लगभग मिथकीय गरिमा हासिल कर चुके प्रेम-सम्बन्ध को नए और प्रासंगिक ढंग से प्रस्तुत करता नाटक है। अमृता प्रीतम और इमरोज़ के सम्बन्धों की कहानी न तो अनजानी है, न ही अस्पष्ट। इस कहानी के सिरे साहिर लुधियानवी और प्रीतम सिंह से भी जुड़ते हैं। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इस कहानी के नायक इमरोज़ हैं और नायिका अमृता। मुश्किल यह है कि साहित्य-जगत में अमृता का मुक़ाम इतना ऊँचा और उनका असर इतना व्यापक है कि उसकी विशाल छाया में समर्पित-हृदय इमरोज़ का व्यक्तित्व प्राय: ओझल-अदेखा रह गया है। युवा नाटककार कुनाल हृदय ने इसी अदेखे पक्ष को अपने इस नाटक में अत्यन्त प्रभावी ढंग से पेश किया है जिसमें इमरोज़ एक उदात्त प्रेमी के रूप में सामने आते हैं।</p>
<p>इमरोज़ में रिश्तों की एक बारीक गुत्थी खुलती है जो इनसानी स्वभाव के बेहद नाज़ुक लेकिन ज़रूरी पक्ष पर रोशनी डालती है इसमें उम्मीद और असलियत का टकराव तो है, पर प्रेम के लिए हाथ बढ़ा चुका इमरोज़ अहंकार को बीच में एकदम नहीं आने देता। इस नाटक में हम एक ‘नए’ प्रेमी का दर्शन करते हैं जिसे प्रेमी, प्रेमिका और रक़ीब के पारम्परिक त्रिकोण से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता।
ISBN: 9788196763169
Pages: 136
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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भारत के स्वतंत्रता-आन्दोलन के ऐसे न जाने कितने अध्याय होंगे, जो इतिहास के पन्नों पर अपनी जगह नहीं बना पाए। देश के दूर-दराज़ हिस्सों में जनसाधारण ने अपने दम पर विदेशी शासकों से कैसे लोहा लिया, क्या-क्या झेला, उस सबको क़लमबन्द करने की उस समय न किसी को इच्छा थी, न अवसर। लेकिन पीढ़ियों तक जीवित रहनेवाली किंवदन्तियों में इतिहास के ऐसे अदेखे सूत्र मिल जाते हैं।
1857 के स्वतंत्रता-संग्राम से पहले 1842 के बुन्देल-विद्रोह का प्रकरण भी ऐसा ही है। लिखित इतिहास में इस विषय पर विस्तार से कहीं कुछ भी उपलब्ध नहीं है, लेकिन कुछ सूचनाएँ अवश्य मिलती हैं। उन्हीं को आधार मानकर जुटाई हुई बाक़ी जानकारी को लेकर इस नाटक की रचना की गई है।
कह सकते हैं कि यह रंगमंच के एक सिद्ध जानकार की क़लम से निकली रचना है, जो इस ऐतिहासिक प्रकरण को इतनी सम्पूर्णता से एक नाटक में बदलती है कि इसे पढ़ना भी इसे देखने जैसा ही अनुभव होता है।
बुन्देलखण्ड की खाँटी ज़ुबान, अंग्रेज़ अफ़सरों की हिन्दी और लोकगीतों के साथ बुनी गई यह नाट्य-कृति एक समग्र नाट्य-अनुभव रचती है।
Rajdarshan
- Author Name:
Manoj Mitra
- Book Type:

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“कितने ही राजा तो पिशाच होते हैं। अब एक पिशाच ही राजा हो गया तो क्या बिगड़ जाएगा? सुनिए कुमार, सुनिए रानी माँ! देश के चारों ओर विद्रोह की आग धधक रही है। वृषल की ताक़त दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही है। ऐसी हालत में यदि यह बात फैल गई कि हमारे राजा जाली राजा हैं तो वह आग भक् से दावानल बन जाएगी। नन्दवंशियों का सिंहासन विद्रोहियों के पेट में चला जाएगा। आप लोग सोचकर देखिए, क्या उससे अच्छा यह न होगा कि इस पिशाच को ही हम लोग और शक्तिशाली बनाएँ? पिशाच के कन्धों पर धनुष रखकर विद्रोहियों का नाश करें? सिंहासन का बड़ा शत्रु कौन है कुमार—पिशाच या वृषल?’’
—इसी पुस्तक से
Cheri Ka Bageecha
- Author Name:
Anton Chekhav
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एंतोन चेख़व ने इस एक नाटक में जिस विराट ऐतिहासिक सचाई को पकड़ा है, वह शायद बहुत बड़े उपन्यास का विषय था। इसी सचाई के रेशों से बुना चेरी का बगीचा समूचे देश का प्रतीक बन उठा है।
चेरी के बगीचे की मालकिन ‘श्रीमती रैनिकव्स्काया अपने आप में ही डूबी है। आशा, निराशा, सुख-दु:ख की यह निजी दुनिया बाहरी दबावों में और भी सिकुड़ती चली जाती है, लेकिन इस क़ैद से छूटकर बाहर आया एक छोटे-से दुकानदार का बेटा लोपाखिन समय को पहचानता है। औद्योगिक संस्कृति के उदय का यह नया-नया सम्पन्न व्यवसायी व्यक्ति, क्रूर और सख़्त हाथों से नया समाज बना रहा है।
इस सन्दर्भ में अनुवादक राजेन्द्र यादव का कथन है : ‘चेख़व की रचनाओं की आत्मीयता, करुणा और ख़ास क़िस्म की निराश उदासी (लगभग आत्मदया जैसी) मुझे बहुत छूती है। मैं उसके प्रभाव से लगभग मोहाच्छन्न था। उसी श्रद्धा से मैंने इन नाटकों को हाथ लगाया था। रूसी भाषा नहीं जानता था, मगर अधिक से अधिक ईमानदारी से उसके नाटकों की मौलिक शक्ति तक पहुँचाना चाहता था। इसलिए तीन अंग्रेज़ी अनुवादों को सामने रखकर एक-एक वाक्य पढ़ता और मूल को पकड़ने की कोशिश करता। आधार बनाया मॉस्को के अनुवाद को। बाद में सुना, अनुवादों को पाठकों ने पसन्द किया, अनेक रंग-संस्थानों और रेडियो इत्यादि ने इन्हें अपनाया, पाठ्यक्रम में भी लिया गया।
Anjo Didi
- Author Name:
Upendra Nath Ashk
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अंजो दीदी मनोविकारों के घात-प्रतिघात और उनकी प्रतिक्रिया की कहानी है। कोई दैवी घटना वहाँ नहीं है, आकस्मिक रूप से बदलने वाली परिस्थितियाँ वहाँ नहीं हैं, जो जीवन को अँधेरे या उजेले मोड़ पर डाल देती हैं। उसकी कथा की प्रेरक शक्ति है—मनोविज्ञान, जो उस विशिष्ट परिवार की वास्तविक स्थिति से प्रभावित होकर निरन्तर विकसित होता जाता है और नाटकीय सूत्र को बढ़ाता जाता है। केवल व्यक्तियों और मान्यताओं के संघर्ष से वर्गीय यथार्थ की आत्मा जैसे मुखर हो उठी है और उनके रहन-सहन, अतिशय पाबन्दी, नियंत्रण और मशीनी-सोच की सारी विषमता साकार हो उठती है। तॉल्स्तॉय के उपन्यास ‘अन्ना कैरेनिना’ की प्रथम पंक्ति सहसा यहाँ याद हो आती है—“Happy families are all alike, every unhappy family is unhappy in its own way.”
सब तरह से सम्पन्न अंजो का परिवार इस तरह भी दुखी हो सकता है, यह सत्य अनायास ही उभरकर सामने आ जाता है।
इसी यथार्थ को अंजो की सनक और परिवार की ट्रैजिडी में गूँथकर अश्क जी ने निश्चय ही एक कलात्मक सिद्धि प्राप्त की है।
बीस वर्ष के लम्बे समय को इस निपुणता से बाँध लेना हिन्दी नाटकों के लिए सर्वथा नवीन अनुभव है। इतने बड़े काल-क्रम को बिना स्थान बदले मुखर कर देना अश्क जी की अद्वितीय उपलिब्ध है, जिसका श्रेय केवल उन्हीं को है। नाटक-रचना के इस नवीन प्रयोग के लिए हिन्दी का पाठक और दर्शक उनका ऋणी रहेगा।
—भूमिका से
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