Sanskriti Se Nikalati Rahen
Author:
Ramnaresh KushwahaPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
General-non-fiction0 Reviews
Price: ₹ 240
₹
300
Available
हमारा देश अनेक धर्मों एवं जातियों में विभक्त है और सैकड़ों पंथ अपने-अपने दृष्टिकोण से समाज को सुदृढ़ बनाने में प्रयासरत हैं। पर आज भी हमारा समाज अनेक कुरीतियों से ग्रस्त है और आएदिन मनुष्य लालचवश तंत्र-मंत्र एवं तांत्रिकों के चक्कर में फँसकर धन-हानि क्या, प्राण-हानि तक कर डालता है। बाह्य सुख-सुविधाएँ अधिक-से-अधिक प्राप्त करने की जैसे होड़ लगी हुई है। इन सबके बीच व्यक्ति अपने आपको, अपनी अंतश्चेतना को बिलकुल भुला बैठा है। वह एक यांत्रिक प्राणी बनकर केवल भौतिक साधनों की अंधी दौड़ में दौड़ लगा रहा है।
संस्कृति से निकलती राहेंहमारे प्राचीन वाङ्मय और धर्म-दर्शन से नि:सृत ज्ञान की अजस्र धारा में हमारा प्रवेश कराती है। यह हमारे मनीषियों, संत-महात्माओं और महापुरुषों के वचनों में उच्चारित हमारी गौरवपूर्ण संस्कृति से हमारा परिचय कराती हुई आत्मिक चेतना, जीवन-मूल्य और सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों का मार्ग प्रशस्त करती है।
भारतीय धर्म-दर्शन-संस्कृति की गौरवशाली परंपरा के आधार पर जीवन का सन्मार्ग प्रशस्त करनेवाली रोचक व ज्ञानवर्धक पुस्तक।
ISBN: 9789380183220
Pages: 120
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: गली तो चारों बन्द भई हैं, हरि से कैसे मिलूँ री जाय? ऊँची नीची राह रपटीली पाँव नहीं ठहराय, सोच–सोच पग धरूँ जतन से बार–बार डिग जाय... — मीराबाई ‘‘बीस साल पहले बसमतिया थी, बीस साल बाद भँवरीबाई है। कितना साम्य है बसमतिया और भँवरीबाई में। फिर भी कितना फ़र्क़ है...दोनों ग़रीब, दोनों दलित, दोनों एक ही अपराध (बलात्कार) की शिकार। दोनों ने गाँव के फ़ैसले को मानने से इनकार किया। एक ज़िन्दा जला दी गई, एक ने दोबारा जीवन शुरू किया। कितने स्नेह, शोक, अपमान, सम्मान, दु:ख, सुख के बाद एक औरत इंसान बनकर खड़ी हो पाती है, और बसमतिया से भँवरीबाई तक का स़फ़र तय होता है।’’ मणिमाला : ‘एक सफ़र—बसमतिया से भँवरीबाईं’ तक में यह जो सफ़र बसमतिया से भँवरीबाई तक ने बीस बरसों में तय किया, उससे भी बड़ा और दुरूह सफ़र वह है, जो हमारी महिला–पत्रकारों, लेखिकाओं ने तय किया है; मीराबाई से लेकर मणिमाला तक। यह संकलन इंडियन वीमेंस प्रेस कोर की एक विनम्र कोशिश है, उस सफ़र को अपने–अपने ढंग से आज भी तय कर रही लेखिकाओं की कलम से प्रस्तुत करने की। इस सफ़र में हास्य भी है, करुणा भी; आक्रोश भी है, और क्षमा भी| ‘‘कृष्ण कली तब हर साहित्यिक घर की किराएदारिन थी। उसके देर से घर लौटने का इन्तज़ार हर मकान मालिक करता था और मैं करती थी अख़बार वाले का इन्तज़ार। उन दिनों मेरा कोई घर नहीं था, जहाँ मैं ‘कृष्ण कली’ को रखती, सो उसे मैंने रखा था अपनी पलकों पर।’’ — पद्मा सचदेव ‘शब्दों का हरसिंगार’ में जिस समाज में जनगणना–दर–जनगणना औरतों और बच्चियों की तादाद लगातार घट रही हो; जहाँ निरोधी–क़ानूनों के बावजूद दहेज–उत्पीड़न जारी हो, और गर्भजल–परीक्षण (अम्नीयोसेंटेसिस) तकनीक की मदद से कन्या–भ्रूणों की गर्भपात द्वारा हत्या की जा रही हो, वहाँ एक स्त्री के लिए न सिर्फ़ अपने वजूद को कायम रखना, बल्कि देश के कोने–कोने में घट रहे सकारात्मक और नकारात्मक बदलावों को लेखन और पत्रकारिता की मुख्यधारा में दर्ज कराते चलना; क़ुदरत के महानतम अचम्भों में से एक माना जाना चाहिए। ग्रन्थ में संकलित इन लेखों की कमानी स्वतंत्रता के बाद के भारत के पूरे पचास–साला इतिहास को अपनी तरह से मापती है। इसमें ‘बच्चों की दुनिया’ (मृदुला गर्ग, पारुल शर्मा), ‘आदिवासी तथा दलित औरतों की संघर्ष–गाथा’ (इरा झा, मणिमाला, मनीषा), ‘आतंकवाद तथा शराब के मुद्दों से जूझती महिलाओं का जीवट’ (अमिता जोशी और सुषमा वर्मा), ‘पंचायतों, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक आन्दोलनों में स्त्रियों की भागीदारी’ (अन्नू आनन्द, अलका आर्य, गीताश्री), ‘चुनावों में उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति’ (नीलम गुप्ता), ‘देह व्यापार’ (उषा महाजन), ‘स्त्रियों के जीवन में तनाव तथा हिंसा’ (जयन्ती, उषा पाहवा, मीना कौशिक), ‘लिंगगत ग़ैर–बराबरी के विभिन्न सामाजिक–आर्थिक मंच’ (रजनी नागपाल, रश्मिस्वरूप जौहरी) तथा ‘फ़िल्म, ललित कलाएँ तथा युवाओं की समस्याएँ’ (मंजरी, सन्तोष मेहता, सरोजिनी बर्तवाल)—सभी विषय समेटे हुए हैं। माँ को हमारे यहाँ भले ही आदि–गुरु कहा जाता हो, औपचारिक तौर पर इतिहास–लेखन पर पुरुषों का ही दबदबा रहा है। इसलिए शायद अनजाने में ही हमारे समाज और राज में औरतों की सशक्त भागीदारी की कहानियाँ अक्सर इतिहास की किताबों से बेदख़ल होती रही हैं। नतीजतन ख़ुद औरतों को अपनी जमात की सही तस्वीर, राज–काज और समाज के निर्वहन में उनकी भूमिका समझ पाने में वक़्त लगा है | ‘‘समाज के शिल्पकारों ने औरत के ज़हन में पुरुष की वीरता, ताक़त की ऐसी शौर्यगाथाएँ लिखीं कि उसके दिमाग़ में कभी यह सवाल कौंधा ही नहीं कि सिर्फ़ हमारे पूर्वज पिताजी ने ही नहीं, हमारी पूर्वजा माँओं ने भी इतिहास रचा है...’’ —अलका आर्य : ‘वीरता कोई ख़ुशबू नहीं’ में ...‘‘कथा लेखिकाओं से शायद उत्सुकतावश ही यह अवश्य पूछा जाता है कि उन्होंने लिखना कैसे शुरू किया। अच्छे–ख़ासे बैठे–बिठाए उन्हें क्या पड़ी थी कि वे लेखिका बन बैठीं?’’ — उषा महाजन : ‘पुरुष के समाज में महिला लेखिकाएँ’ में ‘‘हशमत सख़्त हो गए। याद रख प्यारे, लिखना वह धन्धा नहीं कि अगर तुमने पचास लाख कमाए हैं तो हमने पाँच करोड़...तुम इतना कड़ा दाना हो कि चाहो भी तो आत्महत्या न कर पाओगे। तुम डरकर भागनेवालों में से नहीं हो।...’’ — कृष्णा सोबती : ‘हम हशमत’ में।
Bundelkhand Ki Sanskrtik Nidhi
- Author Name:
Mahendra Kumar Navaiya
- Book Type:

- Description: वैसे तो देश में हजारों बोलियाँ बोली जाती हैं और इन सब बोलियों का अपना-अपना महत्त्व अपनी-अपनी जगह है | मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में भी बुंदेलखंडी बोली बोली जाती है, जिसका अपना एक अंदाज है | किसी भी बोली को अलंकृत करने, मोहक और ज्ञानवर्धक बनाने के लिए उस बोली में पहेलियों, कहावतों, मुहावरों, कहानियों और अहानों का विशेष महत्त्व होता है। बुंदेलखंडी बोली में लोक-स्मृति में आज भी ऐसी पहेलियाँ, कहावतें, कहानी, अहाने और मुहावरे सुरक्षित एवं संरक्षित हैं | यह सब पुरानी पीढ़ी के पास ही है, ऐसी लोक-स्मृतियों को एक जगह समेटने में आज तक कोई प्रयास नहीं हुआ है, संभवत 'बुंदेलखंड की सांस्कृतिक निधि' एकमात्र ऐसी पुस्तक है, जिसे लेखक ने लोक स्मृतियों से निकालकर साहित्य के रुप में संरक्षित किया है। इतना ही नहीं, बुंदेलखंड की सांस्कृतिक निधि पुस्तक बच्चों, युवाओं और सभी आयु वर्ण के लोगों को बुंदेलखंड के रीति-रिवाज, बुंदेली बोली के गूढ़ रहस्यों, पहेलियों, कहावतों, कहानियों, मुहावरों और अहान से परिचित कराने में मील का पत्थर है। निश्चित रूप से आज की चकाचौंध भरी दुनिया में ऐसे ज्ञानमयी साहित्य की आवश्यकता है, जिसे लेखक ने इस पुस्तक में बखूबी सजाया है|
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