Kali-Katha : Via Bypass
Author:
Alka SaraogiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 556
₹
695
Available
‘श्रीकांत वर्मा पुरस्कार’ और 'साहित्य अकादेमी पुरस्कार' से सम्मानित यह उपन्यास अलका सरावगी की पहली औपन्यासिक रचना थी। इस उपन्यास ने न सिर्फ़ उन्हें हिन्दी साहित्य-जगत का सितारा लेखक बना दिया, बल्कि अब तक चली आ रही उपन्यास-परम्परा को भी एक नया मोड़ दिया। इसने कथा-लेखन की एक ठहरी और इकहरी शैली से ऊबे हिन्दी पाठक को एक ऐसी भाषा और कहन दी जिससे उसने अचानक अपने को समृद्ध अनुभव किया।</p>
<p>एक मारवाड़ी परिवार की कई पीढ़ियों की दास्तान कहनेवाला यह उपन्यास शायद भाषा में उस दृष्टि को पिरोनेवाला पहला उपन्यास था जिसने नब्बे के दशक में देश में उदारीकरण के बाद जन्म लिया था। आज़ाद भारत में निर्मित सामाजिकता के प्रचलित पैमानों पर जीते मनुष्य की भीतरी अजनबीयत की पहचान से शुरू होती यह कथा अंग्रेज़ों द्वारा भारत में रेलवे लाने के शुरुआती दिनों से लेकर सन् 2000 तक के इतिहास का अवलोकन करती है। इसमें कोलकाता शहर का इतिहास भी पढ़ा जा सकता है, और मोटा-मोटी ढंग से भारत में सामाजिक-नैतिक मूल्यों के निर्माण और ध्वंस का भी।</p>
<p>कहानी किशोर बाबू की है जो अपनी बाइपास सर्जरी के बाद दुनिया को बिलकुल ही अलग सिरे से देखने लगते हैं, वे किशोर बाबू जो जीवन-भर दक्षिणी कोलकाता के अभिजात समाज का हिस्सा रहे अचानक ‘सड़कमाप’ बन जाते हैं, कोलकाता की अभद्र सड़कों पर भटकते दिखने लगते हैं और अपनी इसी यात्रा में अपने परिवार के पुरखों से लेकर अपनी तीन वर्षीय नातिन तक के समय को खँगाल देते हैं।
ISBN: 9788126730629
Pages: 232
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘वैजयंती’ श्रीकृष्ण के जीवन, कर्म, आदर्शों, विचारों और अलौकिक प्रेम की रसभीगी अनुपम गाथा है। ग्रामीण परिवेश में पले कृष्ण का विकास विविध दिशाओं में होता है और वह शीघ्र ही एक अपूर्व रंग-बिरंगे बहुआयामी व्यक्तित्व से सम्पन्न हो जाता है। ‘वैजयंती’ में ब्रज की सोंधी सुवास और छाछ है, वेणुवादन, आनन्द और महारास है। किन्तु रह-रहकर श्रीकृष्ण के अन्तर में एक अजानी-सी पुकार उठती है, आह्वान करती है, चल पड़ने को। कुछ विशिष्ट करने को। और श्रीकृष्ण जननायक बन चल पड़ते हैं क्रान्ति का शंखनाद करके कंस के अधिनायक तंत्र का मूलोच्छेदन करने। राधा नहीं रोकती। वह बाधा नहीं, राधा है।
प्रथम खंड में स्वप्नलोकीय कोमलता और माधुरी है, गीत, प्रीति और लालित्य के मध्य शस्त्रों की झनझनाहट है। वहीं द्वितीय खंड में क्रूर यथार्थ है और टंकारों तथा हुंकारों के मध्य प्रेम की मृदुल फुहारें और प्रीति-विह्वल मन की गुहारें हैं।
चारों ओर फैली अराजकता, अनैतिकता और स्वेच्छाचारिता के विरुद्ध कर्मयोगी का संघर्ष चलता है और उनकी वैजयंती पताका सदा फहराती रहती है। वैजयंती में पाठक पाएँगे राधा, गोप-गोपी, रुक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती तथा सुभद्रा को एक अनूठे ही रंग में। पाठक यह भी पाएँगे अर्जुन, विदुर, भीष्म, कर्ण, संजय और उद्धव को अनूठे स्वरूप में। भीष्म और विदुर को कैसे ज्ञात हुआ था कि कर्ण कुन्ती का पुत्र है? अपने पौत्रवत् श्रीकृष्ण को देखते ही भीष्म का मुखमंडल खिल क्यों पड़ता है? अर्जुन में ऐसा क्या है जो श्रीकृष्ण उस पर मुग्ध हैं? उद्धव में क्या विशेषता है जो उन्हें ही कृष्ण अपनी थाती सौंपते हैं? संजय और धनंजय ही गीता सुनने के अधिकारी क्यों हुए?
और फिर....राधा का क्या हुआ?
‘वैजयंती’ में कुछ नवीन न हो तो भी कुछ अपने आप अलग और विशिष्ट अवश्य है।
Agin Pathar
- Author Name:
Vyas Mishra
- Book Type:

- Description: आज़ादी के साथ ही हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता का जो जख़्म देश के दिल में घर कर गया वो समय के साथ मिटने के बजाय रह-रहकर टीसता रहता है। इसे सींचते हैं दोनों सम्प्रदायों के तथाकथित रहनुमा। अफ़वाहों, भ्रान्तियों को हवा देकर साम्प्रदायिकता की आग भड़काई जाती है और उस पर सेंकी जाती है स्वार्थ की रोटी। चन्द गुंडे-माफ़िया अपनी मर्ज़ी से हालात को मनचाही दिशा में भेड़ की तरह मोड़ देते हैं और व्यवस्था अपने चुनावी समीकरण पर विचार करती हुई राजनीति का खेल खेलती है। प्रशासन को पता भी नहीं होता और बड़ी से बड़ी दुर्घटना हो जाती है। क़ानून के कारिन्दे सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं की कठपुतली बने रहते हैं। अपने को जनपक्षधर बतानेवाला लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी बाज़ार की माँग के अनुसार अपनी भूमिका निर्धारित करता है। प्रिंट ऑर्डर बढ़ाने के चक्कर में सम्पादकीय नीति रातोंरात बदल जाती है और अख़बार किसी ख़ास सम्प्रदाय के भोंपू में तब्दील हो जाता है। साम्प्रदायिकता के इसी मंज़रनामे को बड़ी ही संवेदनशील भाषा में चित्रित करता है यह उपन्यास ‘अगिन पाथर’। मगर इस चिन्ताजनक हालात में भी रामभज, अरशद आलम, चट्टोपाध्याय, हरिभाई चावड़ा, इला और शान्तनु जैसे आम लोग जो मानवीयता की लौ को बुझने नहीं देते। ‘अगिन पाथर’ व्यास मिश्र का पहला उपन्यास है, मगर इसका शिल्प-कौशल और भाषा-प्रवाह इतना सधा हुआ और परिमार्जित है कि पाठक इसे एक बैठक में ही पढ़ना चाहेंगे।
Ashawari
- Author Name:
Arun Bagchee
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- Description: Awating description for this book
Sookha Patta
- Author Name:
Amarkant
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Description:
वर्ष 1959 में प्रकाशित ‘सूखा पत्ता’ को अमरकान्त की ही नहीं, बल्कि उस दौर में लिखे गए समूचे उपन्यास-साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि माना जाता है।
आज़ादी से पहले के पूर्वी उत्तर प्रदेश का क़स्बाई परिवेश और इसके किशोर कथा-नायक कृष्ण का चित्रण यहाँ असाधारण रूप में हुआ है। कृष्ण के मित्र मनमोहन के रूप में किशोरावस्था की मानसिक विकृतियों, कृष्ण के ‘क्रान्तिकारी’ रूझान के बहाने अपरिपक्व युवा मानस की कमज़ोरियों और कृष्ण-उर्मिला-प्रेमकथा के सहारे समाज की मानव-विरोधी रूढ़ परम्पराओं पर तीखा प्रहार इस उपन्यास में किया गया है।
किशोर वय से युवावस्था में प्रवेश करते छात्र-जीवन की अनुभव-विविधता के बीच अनायास जुड़ गए कृष्ण-उर्मिला प्रसंग को लेखक ने जिस सूक्ष्मता और विस्तार से उकेरा है, उसकी ताज़गी, सहजता और सादगी हिन्दी कथा-साहित्य की बेजोड़ उपलब्धि है। इस प्रणय-गाथा की पवित्र और गहन आत्मीय सुगन्ध मन में कहीं गहरे पैठ जाती है; और साथ ही यह तकलीफ़ भी कि सामाजिक रूढ़ियों की दीवार आख़िर कब तक दो युवा-हृदयों के बीच उठाई जाती रहेगी?
Kuru-Kuru Swaha
- Author Name:
Manohar Shyam Joshi
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Description:
नाम बेढब, शैली बेडौल, कथानक बेपेंदे का। कुल मिलाकर बेजोड़ बकवास। अब यह पाठक पर है कि ‘बकवास’ को ‘एब्सर्ड’ का पर्याय माने या न माने।
पहले शॉट से लेकर फ़ाइनल फ़्रीज तक यह एक कॉमेडी है, लेकिन इसी के एक पात्र के शब्दों में : “एइसा कॉमेडी कि दर्शिक लोग जानेगा, केतना हास्यास्पद है त्रास अउर केतना त्रासद है हास्य।”
उपन्यास का नायक है मनोहर श्याम जोशी, जो इस उपन्यास के लेखक मनोहर श्याम जोशी के अनुसार सर्वथा कल्पित पात्र है। यह नायक तिमंज़िला है। पहली मंज़िल में बसा है—मनोहर-श्रद्धालु-भावुक किशोर। दूसरी मंज़़िल में ‘जोशी जी’ नामक इंटेलेक्चुअल और तीसरी में दुनियादार श्रद्धालु ‘मैं’ जो इस कथा को सुना रहा है।
नायिका है पहुँचेली—एक अनाम और अबूझ पहेली, जो इस तिमंज़िला नायक को धराशायी करने के लिए ही अवतरित हुई है।
नायक-नायिका के चारों ओर है बम्बई का बुद्धिजीवी और अपराधजीवी जगत।
‘कुरु-कुरु स्वाहा’...में कई-कई कथानक होते हुए भी कोई कथानक नहीं है, भाषा और शिल्प के कई-कई तेवर होते हुए भी कोई तेवर नहीं है, आधुनिकता और परम्परा की तमाम अनुगूँजें होते हुए भी कहीं कोई वादी-संवादी स्वर नहीं है। यह एक ऐसा उपन्यास है, जो स्वयं को नकारता ही चला जाता है।
यह मज़ाक़ है, या तमाम मज़ाक़ों का मज़ाक़, इसका निर्णय हर पाठक अपनी श्रद्धा और अपनी मनःस्थिति के अनुसार करेगा।
बहुत ही सरल ढंग से जटिल और बहुत ही जटिल ढंग से सरल यह कथाकृति सुधी पाठकों के लिए विनोद, विस्मय और विवाद की पर्याप्त सामग्री जुटाएगी।
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