Jism Jism Ke Log
Author:
Shazi ZamanPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 160
₹
200
Available
“जब जिस्म सोचता, बोलता है तो जिस्म सुनता है।”</p>
<p>“आप तो बोलते भी हैं, सुनते भी हैं, लिखते भी हैं...”</p>
<p>“लिखता भी हूँ?” मैंने कहा।</p>
<p>एक कम्पन, एक हरकत-सी हुई तुम्हारे जिस्म में—जैसे मेरी बात का जवाब दिया हो।</p>
<p>“रूमानी शायर जिस्म पर भी जिस्म से लिखता है,’’ मैंने कहा।</p>
<p>“आप जिस्मानी शायर हैं!”‘जिस्म जिस्म के लोग’ बदलते हुए जिस्मों की आत्मकथा है। ‘जिस्म जिस्म के लोग’ में—और हर जिस्म में—बदलते वक़्त और बदलते ताल्लुक़ात का रिकॉर्ड दर्ज है।</p>
<p>“इतने वक़्त के बाद...,” तुमने मुझसे या शायद जिस्म ने जिस्म से कहा।</p>
<p>“कितने वक़्त के बाद?”</p>
<p>“जिस्म की लकीरों से वक़्त लिखा हुआ है।”</p>
<p>“दोनों जिस्मों पर वक़्त के दस्तख़त हैं,” मैंने कहा।</p>
<p>जिस्म पर वक़्त के दस्तख़त को मैंने उँगलियों से छुआ तो तुमने याद दिलाया—</p>
<p>“सूरज के उगने, न सूरज के ढलने से...</p>
<p>“वक़्त बदलता है जिस्मों के बदलने से।’”</p>
<p>दुनिया का हर इंसान अपना—या अपना-सा—जिस्म लिए घूम रहा है। उन्हीं जिस्मों को समझने, उन पर—या उनसे—लिखने और ‘जिस्म-वर्षों के गुज़रने की दास्तान है ‘जिस्म जिस्म के लोग’।</p>
<p>“बहुत जिस्म-वर्ष गुज़र गए...जिस्म जिस्म घूमते रहे!” मैंने कहा।</p>
<p>“तो दुनिया घूमकर इस जिस्म के पास क्यूँ आए?”</p>
<p>“जिस्मों जिस्मों होता आया”,</p>
<p>वक़्त के दस्तख़त पर मेरे हाथ रुक गए,</p>
<p>“अब ये जिस्म समझ में आया।”
ISBN: 9788126723034
Pages: 76
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: दोस्तों ! ‘एक आग का दरिया’ के बाद मेरी ये दूसरी कृति, एक कहानी संग्रह, ‘सावन की एक साँझ’ आपके सामने प्रस्तुत है। दस कहानियाँ हैं इसमे जिनमे ज़्यादातर नई हैं मतलब पिछले तीन-चार सालों मे लिखी गईं...ये उस दौर की कहानियाँ हैं जब जीवन के ज़ीरो माईल पर खड़े होकर मैंने सावन की मूसलाधार बारिश में भींगना स्वीकार किया था। कभी खुद से सीखा, कभी दूसरों ने सिखाया और मैं पहले की तरह लिखता गया। भगवान ने ऐसी ज़िंदगी दी है कि कहानियों की कभी कोई कमी नहीं हुई...कभी-कभी लगता है ज़िंदगी कम पड़ जाएगी, मेरी लिखने के लिए और आपकी पढ़ने के लिए। सावन की वो साँझ ऐसी साँझ थी जो जीवन के एक दौर और एक कहानी संग्रह की पहचान बन गयी...उस साँझ ने मुझे सुबह का मतलब समझाया और समय ने स्वर्ग की उस सीढ़ी का पता मुझे बताया जिसने मुझे अपनी पहचान बदलने मे सहायता की।
Gahan Hai Yah Andhkara
- Author Name:
Amit Shrivastava
- Book Type:

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Description:
अपने समाज के कोने-अन्तरे देखना-जाँचना लेखक के दायित्वों में शुमार है। लेखक अँधेरों के न जाने कितने शेड्स, न जाने कितनी परतों में उतरता है कि उन्हें बाहर की दुनिया में प्रकाशित कर सके। इस पर भी शर्त ऐसी कि यह सब सायास नहीं होना चाहिए। अन्त:प्रेरणाएँ ही ऐसा करवाती हैं और जब अनायास ऐसा हो जाता है तो कोई रचना सम्भव होती है। बहुत प्रयासों से लिखे जा रहे समकालीन कथा-साहित्य में अनायास के जप-संग बहुत कम हैं और जब वे सामने आती हैं तो एक अबूझ-सी प्रसन्नता होती है। ऐसा ही एक प्रसंग कवि अमित श्रीवास्तव के लघु उपन्यास 'गहन है यह अन्धकारा’ के रूप में मेरे सामने है।
अमित की यह कथा-कृति अपनी पूरी गरिमा के साथ सरल और सहज है। पृष्ठ-दर-पृष्ठ यह रोचक होती जाती है। इसमें अनावश्यक चुटीलापन नहीं है, लेकिन व्यंग्य भाषा के रूप में है। उस रूप में है, जिस रूप में जनसामान्य की जीभ पर अमूमन वह रहता है। वीरेन डंगवाल की भाषा का सहारा लें और पूछें कि हमने आख़िर कैसा समाज रच डाला है...तो यही पृच्छा अमित के कथानक और भाषा, दोनों में, कई बार सिर उठाती है। अमित की कविता में पूछने की आदत बहुत है और यह आदत कथा में गई है, यह जानना आश्वस्त करता है। अपने पीछे सवाल छोड़ जाएँ, ऐसी महत्वाकांक्षा से भरी कथाएँ बहुत दिख रही हैं बनिस्बत ऐसी कथाओं के, जो अपने भीतर बहुत सारे सवाल साथ लाएँ। हर कोई सवाल पैदा करने के फेर में है, अब तक अनुत्तरित रहे सवालों के साथ आना और रहना कम को रहा है—ऐसे बनावटी परिदृश्य में अमित उन्हीं मौलिक सवालों के साथ है, जिनके जवाब अब तक नहीं मिले हैं।
पुलिस का साबका अक्सर ही समाज के अँधेरों से पड़ता है, इस उपन्यास का प्रस्तोता किताब लेखक पुलिस अफ़सर ही है, सो यह अँधेरा उसके ठीक सामने है। इस अँधेरे में पुलिस की पड़ताल और लेखक की खोज सहज ही साथ चलती है। उपन्यास छोटा है पर लगता नहीं कि कथा के विकास में कोई हड़बड़ी की गई है। यह अमित की कला है, जो दरअसल हुनर की तरह है। यह हुनर वैसा है, जैसा किसी तरह का सामाजिक उत्पाद कर रहे कारीगर में होता है। ऐसे हुनर के साथ रची गई, 'गहन है यह अन्धकारा’ नामक इस कथा का हिन्दी ससार में स्वागत है। यह प्रतिभा, यह हुनर सदा रौशन रहे, यही कामना है।
—शिरीष कुमार मौर्य
Sailabi Tatbandh
- Author Name:
Ajit Gupta
- Book Type:

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Description:
यह उपन्यास ढाई सदी बाद की जीवन-स्थितियों का काल्पनिक संसार रचता है; लेकिन नित्य परिवर्तित होती मौजूदा सामाजिक संरचना के परिप्रेक्ष्य में सन् 2151 का समय यथार्थ के बिलकुल पास-पास की ध्वनि देता है।
स्त्री-विमर्श के दौर में अपने ढंग से अलग और महत्त्वपूर्ण दख़ल देनेवाली अजित गुप्ता के इस अनूठे उपन्यास के केन्द्र में है सन् 2151 का समय और तब का यौन-जीवन। यहाँ परिवार नहीं है, पति-पत्नी नहीं हैं और न ही हैं घरों में बच्चे। हैं भी तो स्कूल में। धर्म पूर्णतः प्रतिबन्धित है। लेकिन प्रकृति है और वह पात्रों के जीवन में अपनी स्वाभाविक भूमिका निभाती है। मर्यादा और उच्छृंखलता का भेद इतना साफ़ नहीं है कि आतंकित करे। भोग और मनोरंजन ही जीवन के लक्ष्य हैं। लेकिन शरीर की तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती। अन्ततः ‘मातृत्व-सुख’ जवाब बनकर सामने खड़ा हो जाता है।
उपन्यास की कथा क़िस्सागोई शैली में आगे बढ़ती है। शायद यही वजह है कि पठनीयता कहीं भी बाधित नहीं होती। रोमांस, सेक्स, प्रकृति और मातृत्व के इर्द-गिर्द बुनी इसकी कथा भविष्य की एक फैंटेसी के द्वारा हमारे मौजूदा जीवन-यथार्थ के कई कोने-अँतरे खोलती है।
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