Ek Naukrani Ki diary
Author:
Krishna Baldev VaidPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
प्रख्यात उपन्यासकार कृष्ण बलदेव वैद का यह उपन्यास हमारे नागर-समाज के उस उपेक्षित तबके पर केन्द्रित है जिसकी समस्याओं पर हम संवेदनशील तरीके से कभी बात नहीं करते मगर जिसके बिना हमारा काम भी नहीं चल पाता। शहरों के घरों में चौका-बरतन और सफाई इत्यादि करनेवाली नौकरानियों की रोजमर्रा की जिन्दगी और उनकी मानसिकता इसका केन्द्रीय विषय है। एक युवा होती नौकरानी की मानसिक उथल-पुथल को लेखक ने इस उपन्यास में बड़े ही मार्मिक ढंग से चित्रित किया है तथा डायरी के माध्यम से बड़ी कुशलता पुर्वक से इस उपेक्षित वर्ग के साथ-साथ हमारे कुलीन समाज की विडम्बना को भी पहचानने-परखने का अवसर दिया है।</p>
<p>प्रवाहपूर्ण भाषा में लिखित यह उपन्यास फ्रायड के उस उपन्यास की याद दिलाता है जो उन्होंने एक युवा होती लड़की की मानसिकता का चित्रण करने के उद्देश्य से डायरी के रूप में लिखा था। यह उपन्यास आरम्भ से ही पाठक की जिज्ञासा को जगाने में सफल है। उपन्यास की नायिका शानो हिन्दी साहित्य का वह चरित्र है जिसे पाठक हमेशा याद रखेंगे।
ISBN: 9788126714155
Pages: 230
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
शादी, ख़ासकर लड़कियों की एक कठिन, जटिल और अत्याधुनिक समस्या बनती जा रही है। वह जीवन का एक मुक़ाम है, परम और चरम लक्ष्य नहीं, ऐसी प्रतीति पढ़ी-लिखी और तथाकथित आधुनिक लड़की को भी नहीं हो पाती, क्योंकि बहुत कुछ बदलने के बावजूद समाज जस का तस रह गया है। जींस पहननेवाली बाल-कटी लड़की राहगीरों को भले ही आज़ाद, खिलंदड़ और कभी-कभी लड़का तक होने का आभास दे या भ्रम पैदा करे, लेकिन उसकी और उसके संकटग्रस्त माता-पिता की तलाश अच्छा-सा लड़का और ठीक-ठाक घर ढूँढ़ने से आगे नहीं जा पाती। यह तलाश एक अथक और जानलेवा प्रयत्न बन जाती है और बार-बार असफल होने पर एक ऐसी प्रतीक्षा का रूप ले लेती है, जो तरह-तरह के भय, नए-नए नुस्ख़े आज़माने, ज्योतिषियों के चक्कर लगाने और समय को भरने के दबाव पैदा करती रहती है। जब तक शादी न हो तब तक लड़की क्या करे?
‘शादी से पेशतर’ की कई लड़कियों में एक डेज़ी कहती है, ‘‘कुछ सोचो मत बस करती चली जाओ।’’ क्या करती चली जाओ? नए-नए कोर्स—ब्यूटीशियन बनने के, कम्प्यूटर विशेषज्ञ बनने के, इंटीरियर डेकोरेटर बनने के और न जाने क्या-क्या। इस करते जाने के पीछे एक धुँधला-सा संकेत अपने पैरों पर खड़े होने का भी ज़रूर रहता है, लेकिन वह शादी को ही ‘मोक्ष’ मानने के कारण ठोस रूप ग्रहण नहीं कर पाता। ‘शादी से पेशतर’ हमें एक ऐसे अन्तःपुर के एकदम भीतर ले जाता है, जिसकी विदीर्णता का हम अनुमान भी नहीं लगा पाते क्योंकि हमें जो दिखाई पड़ता है, उसी को देख रहे होते हैं। यह एक ऐसा कोलाज़नुमा लघु उपन्यास है जो सरसरी दृष्टि से पढ़ने पर सतह पर ही तैरता मालूम पड़ता है, पर ध्यान देने पर यह बताता है कि सतह सिर्फ़ सतही नहीं होती, उसमें नीचे गहराई और डूब भी रहती है।
लेखिका बिना किसी लेखकीय टिप्पणी और गुरुगम्भीरता के शादी का इन्तज़ार करती हुई लड़कियों से हमारी इस तरह मुलाक़ात करवाती है कि हम परेशानी महसूस करने लगते हैं। वह हमें लड़की देखने आए लोगों में बैठा देती है।
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