Samkalin Hindi Kavita
Author:
Vishwanath Prasad TiwariPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 636
₹
795
Available
प्रस्तुत पुस्तक में समकालीन हिन्दी कविता के उन्नीस महत्त्वपूर्ण और अतिविशिष्ट कवियों के काव्य का विश्लेषण-मूल्यांकन हुआ है। कहना न होगा कि ये कवि परस्पर भिन्न रुचियों के हैं; तथा इनकी काव्य-संवेदनाएँ और काव्य-चिन्ताएँ एक दूसरे से अलग हैं। समकालीन हिन्दी कविता के प्रवृत्तिगत अध्ययन से उसकी एक विकास परम्परा का तो पता चलता है पर अधिकांशत: शीर्षकों-उपशीर्षकों के अन्तर्गत कवियों का वर्ग निर्धारण मात्र होकर रह जाता है। जबकि अलग-अलग कवियों की कविताओं के अध्ययन में उन कवियों के अपने संस्कारों, उनकी भिन्न जीवन दृष्टियों, उनकी काव्य विषयक धारणाओं तथा समकालीन वास्तविकता के विविध पहलुओं की जानकारी होती है। कविता का अध्ययन एक जटिल व्यापार है। साहित्य की अन्य विधाओं में सबसे जटिल नई कविता का अध्ययन तो और भी कठिन है। आज की पत्र-पत्रिकाओं में लिखी जा रही आलोचना रचना केन्द्रित नहीं लगती। व्यक्तिगत-दलगत गुटबन्दियों में फँसकर यह उखाड़-पछाड़ और तीव्र होता जा रहा है। प्रस्तुत पुस्तक की दृष्टि सन्तुलित और वस्तुपरक है। आलोचक ने कवियों के शब्द प्रयोगों का बारीक़ी से विश्लेषण करते हुए उनकी काव्य-चिन्ताओं का उद्घाटन किया है। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि और नए साहित्य के सहृदय समीक्षक डॉ. विश्वनाथप्रसाद तिवारी ने इस पुस्तक में सहअनुभूति के साथ कवियों की कविताओं के समानान्तर यात्रा करते हुए आधुनिक हिन्दी कविता के निकट अध्ययन (क्लोज रीडिंग) की कोशिश की है। यह पुस्तक निश्चय ही कविता के अध्येताओं के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी।
ISBN: 9788180315367
Pages: 243
Avg Reading Time: 8 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘हिन्दी आलोचना और भक्तिकाव्य’ में रुस्तम राय ने हिन्दी आलोचना के मूल्य-निर्माण की प्रक्रिया, काव्य में लोकमंगल की अवधारणा और उसका संधान, सौन्दर्यानुभूति की पहचान, भक्तिकाव्य की सामाजिक भूमिका, काव्यानुभूति की विशुद्धता और भक्तिकाव्य की प्रगतिशीलता पर विस्तार-पूर्वक विचार किया है। उन्होंने हिन्दी आलोचना के मूल्य-निर्माण की प्रक्रिया के साथ-साथ हिन्दी आलोचकों के भक्तिकाव्य विषयक मूल्यांकन को विस्तृत रूप से प्रस्तुत करते हुए अपने मौलिक विचार भी प्रकट किए हैं। एक प्रकार से हिन्दी आलोचना और भक्तिकाव्य, दोनों पर इस किताब में पुनर्विचार का प्रयत्न है और भक्तिकाव्य से हिन्दी आलोचना के अंतरंग सम्बन्ध की नई व्याख्या भी। लेखक ने सगुण-निर्गुण और उसके सामाजिक आधारों पर विचार करते हुए न केवल भक्त कवियों के आन्तरिक द्वन्द्व को बल्कि आलोचकों के मतों के अन्तर्विरोध को भी उजागर किया है।
कबीर और तुलसी के प्रसंग में उठनेवाले विवादों पर भी इस पुस्तक में चर्चा की गई है। इन दोनों कवियों की विश्व-दृष्टियों के अन्तर को रेखांकित करते हुए उनके आध्यात्मिक विचारों के बदले सामाजिक विचारों को प्राथमिकता दी गई है। इस पुस्तक में एक तरह से भक्तिकाव्य की आलोचना के माध्यम से हिन्दी आलोचना का इतिहास भी प्रस्तुत किया गया है।
समग्रतः इस पुस्तक में लेखक ने न केवल परिश्रम, सूझबूझ और आलोचकीय विवेक का परिचय दिया है, बल्कि मूल्यों की टकराहट और मूल्यांकनों के द्वन्द्व में उसने अपना स्वतंत्र विवेक नहीं खोया है। इसीलिए लेखक के निष्कर्षों से उसके निर्णय की क्षमता भी प्रकट होती है। निश्चय ही पुस्तक की प्रस्तुति स्तरीय, भाषा विषयानुकूल, प्रवाहपूर्ण और परिमार्जित है।
—डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
Dwivediyugeen Aakhyan Kavya
- Author Name:
V. Gangadharan
- Book Type:

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द्विवेदीयुगीन आख्यान-काव्यों में रूढ़िवादी सामाजिक बन्धनों के प्रति विद्रोह, वर्तमान जीवन-पद्धति के विरुद्ध असन्तोष एवं संकुचित मनोवृत्ति के प्रति आक्रोश पाया जाता है। सांस्कृतिक पुनर्जागरण के इस काल में सामाजिक क्रान्ति पर विशेष बल दिया गया। फलत: लोगों में एकता, सेवा, त्याग और बलिदान की भावना ने काव्य में शिवत्व की स्थापना की। इन्हीं कारणों से तत्कालीन आख्यान-काव्यों में साम्प्रदायिक सामंजस्य, अछूतोद्धार, धर्म एवं जाति के भेदभाव को मिटाने का यथाशक्ति प्रयास किया गया।
प्रस्तुत पुस्तक में मुख्य विषय की आधारशिला संस्कृति की अवधारणा, स्वरूप आदि के विषय में भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों के मतों का विवेचन करते हुए सभ्यता और संस्कृति के सम्बन्ध पर विचार किया गया है। भारतेन्दु युग के अन्त और द्विवेदी-युग के पूर्वाभास के सम्बन्ध में विचार करने के उपरान्त तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनैतिक तत्त्वों की विशद व्याख्या अनिवार्य है, क्योंकि इसी परिवेश में द्विवेदीयुगीन आख्यान-काव्य का उदय हुआ।
द्विवेदी-युग के आख्यान-काव्यों में संस्कृति के आध्यात्मिक और लौकिक तत्त्व विभिन्न भूमिकाओं का स्पर्श करते हुए दृष्टिगत होते हैं। भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता, त्याग, आध्यात्मिकता, सत्यनिष्ठा, वर्ण-व्यवस्था आदि आदर्शों के साथ व्यावहारिक जीवन-प्रकृति में आ मिलनेवाले युगानुकूल प्रभावों के कारण होनेवाले परिवर्तनों के अन्तराल से शाश्वत तत्त्वों तक पहुँचने का प्रयास अत्यन्त मनोरंजक होने के साथ-साथ भारतीय चिन्तनधारा के विकास-क्रम को समझने में सहायक भी है।
कथानक और चरित्र आख्यान-काव्य के प्रमुख तत्त्व हैं, इनके माध्यम से ही प्राय: कवि अपने उद्देश्य तक पाठकों को पहुँचाता है। प्रस्तुत पुस्तक में शासकीय विवेचन से पृथक् इन दोनों तत्त्वों का सांस्कृतिक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक के अन्त में द्विवेदीयुगीन आख्यान-काव्यों का विशद अध्ययन करने के उपरान्त कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत किए गए हैं।
Nayi Kavita : Vols. 1-3
- Author Name:
Ramswaroop Chaturvedi
- Book Type:

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Description:
‘नयी कविता’ वाद-मुक्त धरातल को केन्द्र में मानकर सन् 54 में प्रकाशित हुई। प्रगतिवाद मार्क्सवाद से प्रेरित होकर हिन्दी साहित्य में स्थापित हुआ और प्रयोगवाद वैज्ञानिक चेतना को आधार मानकर अस्तित्व में आया। जबकि ‘नयी कविता’ विशुद्ध काव्य भूमि की नवीनता से उपजी है और 1954 से 67 तक आठ अंक उत्तरोत्तर समृद्ध के साथ प्रकाशित हुए। ‘नयी कविता’ के पहले अंक ने हिन्दी में अपनी क्रान्तिकारी उपस्थिति दर्ज की और विरोध की भूमिका भी स्वाभाविक रूप से प्रखरतर होती गई। किंचित् कविता का विरोधात्मक आशय न समझकर उसे ही विरोध का आधार मान लिया गया।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविताओं ने मुझे नयी कविता की शक्ति के प्रति आश्वस्त किया और अजित कुमार की चार पंक्तियों की कविता विरोध का प्रतीक बन गई और साथ ही नवीनता का उद्घोष भी।
‘नयी कविता : नयी अभिरुचि’, ‘नयी कविता : सन्तुलन’ और ’नयी कविता : अर्थ की लय’ जैसे सम्पादकीय विचारोत्तेजक सिद्ध हुए। ‘नयी कविता’ के सैद्धान्तिक पक्ष को उजागर करने में मैंने व्यापक सहयोग प्राप्त किया और साहित्य में उसकी मान्यता निर्विवाद प्रमाणित हुई। जो युगान्तर कविता के भीतर घटित हुआ। वह कवियों को निरन्तर प्रेरित करता रहा और आज भी कीर्तिमान के रूप में स्थापित है।
—जगदीश गुप्त
Aacharya Hazariprasad Dwivedi ke Shresth Nibandh
- Author Name:
Hazariprasad Dwivedi
- Book Type:

- Description: आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का रचना-संसार वैविध्यपूर्ण और साहित्यिक व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे संस्कृत के शास्त्री थे, ज्योतिष के आचार्य। कवि, आलोचक, उपन्यासकार, निबन्धकार, सम्पादक, अनुवादक और भी न जाने क्या-क्या थे। वे पंडित भी थे और प्रोफ़ेसर भी, आचार्य तो थे ही। वे अपने समय के एक बहुत ही अच्छे वक्ता थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि वे एक कुशल अध्यापक और सच्चे जिज्ञासु अनुसन्धाता थे। बलराज साहनी ने उनकी इस अनुसंधान वृति को लक्षित करते हुए लिखा है, ‘‘सूई से लेकर सोशिलिज्म तक सभी वस्तुओं का अनुसन्धान करने के लिए वे उत्सुक रहते।’’ तभी तो वे, बालू से भी तेल निकाल लेने की बात करते हैं, अगर सही और ठीक ढंग का बालू मिल जाए। उनके इस अनुसन्धान और अध्ययन-मनन की सबसे बड़ी ताक़त थी एक साथ कई भाषाओं और परम्पराओं की जानकारी। वे जहाँ संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश जैसी प्राचीन भारतीय भाषाओं के साथ भारतीय साहित्य, दर्शन चिन्तन की ज्ञान-परम्पराओं को अपनी सांस्कृतिक-चेतना में धारण किए हुए थे, वहीं हिन्दी, अंग्रेज़ी, बांग्ला और पंजाबी जैसी आधुनिक भारतीय व विदेशी भाषाओं के साथ आधुनिक ज्ञान-परम्परा को भी। परम्परा और आधुनिकता का ऐसा मेल कम ही साहित्यकारों में देखने को मिलता है। परम्परा और आधुनिकता के इस प्रीतिकर मेल से उन्होंने हिन्दी साहित्य-शास्त्र को मूल्यांकन का एक नया आयाम दिया। लोक और शास्त्र को जिस इतिहास-बोध से द्विवेदी जी ने मूल्यांकित किया है, वह इस नाते महत्त्वपूर्ण है कि उसमें किसी तरह का महिमामंडन या भाव-विह्वल गौरव गान नहीं मिलता, बल्कि एक वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि मिलती है, जिसका पहला और आख़िरी लक्ष्य मनुष्य है—उसका मृत्य, उसकी मबीता और उसका श्रम है।
Muktibodh Ki Kavya Srishti
- Author Name:
Suresh Rituparna
- Book Type:

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आधुनिक हिन्दी काव्य-साहित्य के इतिहास में निराला के बाद मुक्तिबोध एक ऐसे कवि के रूप में सदैव याद किए जाएँगे जिनका जीवन ही उनकी कविता होती है। जिसकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं होता है।
मुक्तिबोध के काव्य का निर्माण चेतना को झकझोर देनेवाले अन्तःसंघर्ष, उनके अभिशप्त युग तथा व्यक्तित्व के सन्धान से उपजा है। वस्तुत: उनकी कविताओं का पेचीदापन इसी अन्तःसंघर्ष की उपज है। लेकिन अपने युग को अर्थ और वाणी देने से अधिक और क्या सार्थक कार्य कोई कवि कर सकता है!
मुक्तिबोध का काव्य इस चुनौती को स्वीकार करता है तथा अपने युग की भयावहता को पूर्णता के साथ रूपायित भी करता है।
यह सच है कि मुक्तिबोध एक प्रतिबद्ध कवि हैं लेकिन उनकी प्रतिबद्धता को किसी वाद-विशेष से जोड़कर ही यदि देखा जाता रहा तो यह उनकी काव्य-प्रतिभा के साथ अन्याय ही होगा। वस्तुत: उनकी प्रतिबद्धता तो वैश्विक स्तर पर श्रमशील मानव के प्रति ही रही है। प्रस्तुत पुस्तक मुक्तिबोध की काव्य-संवेदना को इसी दृष्टिकोण से समझने का प्रयास है।
Kabeer Soor Tulsi
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
- Book Type:

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हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों तथा आलोचकों ने भक्ति के सन्दर्भ में अनेक टिप्पणियाँ दी हैं। किसी ने इसे ईसाइयत की देन बताई है तो किसी ने इस्लाम की उपज। कोई इसे हिन्दू जाति की हताशा तथा निराशा से जोड़ता है तो अन्य कोई दक्षिण भारत की देन कहता है। इन सबसे हटकर भक्ति प्रवाह भारतीय आध्यात्मिक चेतना का नैसर्गिक विकास है। भक्ति काव्यधारा की मूल प्रकृति में कहीं भी पराजय की कुंठाग्रस्तता नहीं है और न ही उसमें कहीं कोई क्षेत्रवाद ही दिखाई पड़ता है। यह इन सबके ऊपर सामाजिक समानता, प्रेम, हृदय-से हृदय को जोड़कर मानव जाति को आत्यन्तिक मंगलवाद की व्यवस्था से समृद्ध करनेवाली कविता है। इस आलोचनात्मक कृति का मूल मन्तव्य भी इसी से जुड़ा है।
कबीर-सूर-तुलसी इन तीनों कवियों में वर्तमान भक्ति की केन्द्रीय चेतना को इंगित करते हुए उनके कृतित्व का एक बार पुनर्विश्लेषण किया गया है ताकि भक्ति की लोकानुभूति से इनकी कविता की आस्वादनभूमि का मर्म समझाया जा सके। ‘हरिस्मरण’ तथा ‘कलाविलास’ के प्रवाह-संगम पर रची गई भक्ति-कविता की अपूर्वता की विवेचना ही इस आलोच्य कृति का मन्तव्य है।
Kabristan Mein Panchayat
- Author Name:
Kedarnath Singh
- Book Type:

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‘कब्रिस्तान में पंचायत’ कवि केदारनाथ सिंह की एक गद्य कृति है—एक कवि के गद्य का एक विलक्षण नमूना—जिसमें उसकी सोच, अनुभव और उसके पूरे परिवेश की कुछ मार्मिक छवियाँ मिलेंगी और बेशक वे चिन्ताएँ भी जो सिर्फ़ एक लेखक की नहीं हैं। पुस्तक के नाम में जो व्यंग्यार्थ है, वह हमारे समय के गहरे उद्वेलन की ओर संकेत करता है और शायद इस बात की ओर भी कि इस अबोलेपन की हद तक बँटे हुए समय में परस्पर बातचीत के सिवा कोई रास्ता नहीं। यह अबोलापन इतना गहरा है और इतनी दूर तक फैला हुआ कि आज एक माँ और ‘उसके द्वारा रची गई उसकी अपनी ही सृष्टि’ के बीच एक लम्बी फाँक आ गई है। इस पुस्तक के ज़्यादातर आलेख इन्हीं फाँकों या दरारों के बोध से पैदा हुए हैं—फिर वह अक्का महादेवी की पीड़ा-भरी चुनौती हो या एक रहस्यमय दर्द से एक मामूली आदमी का मर जाना।
इन आलेखों में एक सुखद विविधता मिलेगी, जिसका फलक एक ओर वाक्यपदीयम् से कोलकाता की सड़क पर पड़ी घायल चिड़िया तक फैला है और दूसरी ओर विस्मृत दलित कवि देवेन्द्र कुमार से दलित कविता के पितामह तेलगू के महाकवि गुर्रम जाशुआ तक। दक्षिण के कुछ कालजयी रचनाकारों पर लिखी गई तलस्पर्शी टिप्पणियाँ इस पुस्तक को एक और विस्तार देती हैं और थोड़ी-सी अखिल भारतीयता भी।
पारदर्शी और कसी हुई भाषा में लिखे गए ये आलेख कुछ समय पूर्व दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में क्रमिक रूप से छपे थे और वृहत्तर पाठक-समुदाय द्वारा पढ़े-सराहे गए थे। कुछ नई सामग्री के साथ उन आलेखों को एक जगह एक साथ पढ़ना एक अलग ढंग का अनुभव होगा और शायद एक आवयिक संग्रथन का सूचक भी।
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