Anuvad Anusrijan
Author:
A. ArvindakshanPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 316
₹
395
Available
प्रौद्योगिकी के प्रचुर विकास के साथ अनुवाद का एक नया आयाम सामने आ गया और वह है—मशीनी अनुवाद। कई संस्थाएँ देश-विदेश में इस नई प्रौद्योगिकी के विकास में योगदान दे रही हैं। मशीनी अनुवाद की पूरी प्रक्रिया तथा तत्सम्बन्धी समस्याओं का बहुत बड़ा क्षेत्र है जो आजकल अनुवाद के क्षेत्र में नूतन आविष्कारों के साथ सामने आ रहा है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ मशीनी अनुवाद भी विकसित होता जा रहा है। मशीनी अनुवाद के विकास ने तथा उसकी अनन्त सम्भावनाओं ने अनुवाद-कार्य को प्रोफ़ेशनल स्वरूप प्रदान किया है। यही नहीं, अनुवाद के प्रोफ़ेशनल स्वरूप को देखते हुए ऐसा ही लगता है कि यह एक इंडस्ट्री के रूप में विकसित हो सकता है। भारत जैसे बहुभाषी देश में इसकी सम्भावनाएँ अधिक हैं। यह ग्रन्थ अनुवाद को दो तरह से देख रहा है—अकादमिक तथा प्रोफ़ेशनल स्तर से। अनुवाद में ये दोनों मुख्य हैं। मेरा यही विचार है कि अनुवाद के विद्यार्थियों, शोधार्थियों एवं अध्यापकों के लिए यह ग्रन्थ उपयोगी सिद्ध होगा।</p>
<p>—भूमिका से
ISBN: 9788183619127
Pages: 127
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
Recommended For You
Aalochna Ka Vivek
- Author Name:
Rajendra Kumar
- Book Type:

- Description: डॉ. देवीशंकर अवस्थी के चिन्तन और विवेचन का कैनवस अत्यन्त विस्तृत है—सैद्धान्तिक से लेकर व्यावहारिक आलोचना तक उत्तरोत्तर गूढ़ और चुनौतीपूर्ण सवालों से उन्होंने मुठभेड़ की है। कालिदास, निराला, महादेवी वर्मा, प्रसाद, प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमचन्द से लेकर ग्रीक पौराणिक गाथाएँ तक उनकी लेखनी के प्रिय विषय हैं। इसके साथ उनकी सरस आलोचनात्मक वृत्ति वृन्दावन, मथुरा, मैसूर, ताजमहल, रानीखेत, मसूरी आदि के सौन्दर्य में भी रमी है। पर उनके आलोचक का सबसे उल्लेखनीय गुण यह है कि वह नव्यता और सम-सामयिकता की चेतना से अनुप्राणित है। इसके चलते उनकी दृष्टि एक नई ऊर्जा और सार्थकता से लैस है। यही चीज़ उन्हें हमेशा प्रासंगिक बनाए रखेगी। डॉ. अवस्थी ने साहित्य की सभी विधाओं को मूल्यवान ढंग से समृद्ध किया है, जैसे—आलोचना, रंग-समीक्षा, कविता, नाटक, प्रहसन, कहानी, रिपोर्ताज, पत्र और डायरी।
Bhakti Andolan Aur Bhakti Kavya
- Author Name:
Shivkumar Mishra
- Book Type:

-
Description:
प्रस्तुत पुस्तक का सम्बन्ध भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य से है, भक्ति-आन्दोलन के मूल में जनता के दुःख-दर्द ही हैं और उन दुःख-दर्दों को बड़ी जीवन्त मानवीयता के साथ उभरने, उनसे एकमेक होकर सामने आने में ही भक्ति-आन्दोलन की शक्ति को देखा जा सकता है। अनुमान कर सकते है कि तीन शताब्दियों से भी अधिक समय तक अपने पूरे वेग के साथ गतिशील होनेवाले इस भक्ति-आन्दोलन में जनता के ये दुःख-दर्द कितनी गहरी संवेदनशीलता के सान्निध्य में उभरे होंगे। भक्तिकाव्य में, उसके रचनाकारों में, अन्तर्विरोध भी हैं, उनकी सीमाएँ भी हैं। पुस्तक में उनकी चर्चा भी की गई है।
हम भक्तिकाव्य जैसा काव्य आज नहीं चाहते, पर जिन मूलवर्ती गुणों के कारण भक्ति कविता कालजयी हुई, वे गुण ज़रूर उससे लेना चाहते हैं, और इन गुणों के नाते ही हम उसे साथ लेकर चलना भी चाहते हैं।
पुस्तक में निबन्धों में पुनरुक्ति भी मिल सकती है। अलग-अलग समय में लिखे गए निबन्ध ही मिल-जुलकर यह किताब बना रहे हैं। इनमें से कबीर, सूर तथा भक्ति-आन्दोलन से जुड़े निबन्ध प्रकाशित भी हो चुके हैं। यहाँ वे कुछ संशोधित परिवर्द्धित रूप में फिर से प्रकाशित हो रहे हैं। मलिक मुहम्मद जायसी, तुलसी, भक्ति-आन्दोलन का पहला निबन्ध अप्रकाशित है। वे यहाँ पहली बार ही प्रकाशित हो रहे हैं। नानकदेव तथा गुरु गोविन्द सिंह पर लिखे निबन्ध भी अप्रकाशित हैं। ये विशेष अवसर के लिए लिखे गए निबन्ध थे, किन्तु किताब के विषय की सीमा में आ सकने के नाते उन्हें भी समेट लिया गया है। भक्ति-आन्दोलन सम्बन्धी निबन्धों में प्रमुखतः के. दामोदरन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारों को ही रेखांकित किया गया है।
Uttar Aupniveshikata Ke Srot Aur Hindi Sahitya
- Author Name:
Pranay Krishna
- Book Type:

-
Description:
उपनिवेशवादी विमर्शों को चुनौती अनेक विचारधाराओं, ज्ञानमीमांसाओं से मिलती रही है, लेकिन सर्वाधिक चुनौती उन वास्तविक उपनिवेशवाद- विरोधी जनसंघर्षों से मिली है, जिनके बगैर कोई भी विमर्श संभव नहीं था। ऐसे में उत्तर-औपनिवेशिकता कोई एक व्यवस्थित सिद्धांत या अनुशासन नहीं है। तेज़ी से बदलती दुनिया में विभिन्न किस्म के विचारों और व्यवहारों के बीच, विभिन्न किस्म की संस्कृतियों और लोगों के बीच बदलते रिश्तों के सन्दर्भ में ही उत्तर-औपनिवेशिक विमर्शों ने आकार ग्रहण किया है। मार्क्सवाद से लेकर नारीवाद तक के राजनीतिक सिद्धांत, उत्तर-संरचनावाद और उत्तर-आधुनिकता के साथ मार्क्सवादी ज्ञानमीमांसा का संघर्ष, संस्कृतिवादियों और भौतिकवादियों के बीच विवाद, पाठकेन्द्रित और यथार्थवादी साहित्य सिद्धान्तों की आपसी बहस उत्तर- औपनिवेशिक विमर्शों में संचरित है। ‘औपनिवेशिक’ का रेखांकन, विश्लेषण और सैद्धांतीकरण अनेक सन्दर्भों और विविध विमर्शों के परिक्षेत्र में होता रहा है। ‘उत्तर-औपनिवेशिक’ सैद्धांतिकी जितनी अधिक योरोपीय भाषाओं और सांस्कृतिक रूपों से बाहर निकलकर अन्य सांस्कृतिक अनुभवों को समेटने की कोशिश करती है, उतनी ही अधिक समस्याग्रस्त होती चली जाती है। भारतीय भाषाओं के साहित्य पर काम करने वाले आलोचकों ने ‘उत्तर-औपनिवेशिक’ सैद्धांतिकी की तमाम कठिनाइयों की ओर इंगित किया है।
विउपनिवेशीकरण की प्रक्रिया ने औपनिवेशिक परिस्थिति और अनुभव के प्रति जिस आलोचनात्मक दृष्टिपात को संभव किया, वह एक वैश्विक परिघटना उत्तर-औपनिवेशिक आलोचना सिद्धांत ने संस्कृति और राजनीति के पुराने कलावादी द्वैत का तो अन्त कर दिया, लेकिन इस प्रक्रिया में उसके कुछ महत्त्वपूर्ण आलोचकों ने राजनीति को ही कला या पाठ में बदल दिया है।
उत्तर-औपनिवेशिक सांस्कृतिक विश्लेषण ने एक ऐसे लेखन को जन्म दिया है जो कि पश्चिमी और गैर-पश्चिमी लोगों और दुनियाओं को देखने के अब तक के वर्चस्वशाली नज़रिए को चुनौती देता है। वह एक ऐसे सैद्धांतिक ढाँचे को खड़ा करने का प्रयास है जो कि पश्चिमी, यूरो-केन्द्रिक ढाँचे का विकल्प बन सकें।
Nirala Sahitya Mein Pratirodh Ke Swar
- Author Name:
Vivek Nirala
- Book Type:

-
Description:
प्रस्तुत पुस्तक प्रतिरोध की संस्कृति के ऐतिहासिक विकासक्रम में निराला की प्रतिरोधी चेतना को उनके समग्र रचनात्मक जगत में चिन्हित करती है। कहना न होगा कि निराला के साहित्य की गहरी समझ और साफ़-सुथरी वैचारिकी के नाते अनायास ही यह किताब रामविलास जी का स्मरण कराती है। रामविलास जी के प्रभाव के बतौर हम देखते हैं कि यह किताब, जीवन-संघर्ष और रचना दोनों के जटिल अन्तर्द्वन्द्वों के रिश्तों को समझते हुए आगे बढ़ती है।
निराला की कविताओं पर काफ़ी काम हुए हैं पर विवेक यहाँ निराला के कविता-संसार में अन्य पहलुओं के साथ ही दलित और स्त्री अस्मिताओं की महत्त्वपूर्ण शिनाख़्त भी करते हैं। कथा-साहित्य में निराला के उपन्यासों और कहानियों में यथार्थवाद की गहरी समझ को चिन्हित करते हुए विवेक, निराला के गहन समयबोध को निराला के ही शब्दों में रेखांकित करते हैं—“...यह लड़ाई जनता की लड़ाई है और फ़ासिज़्म के ख़िलाफ़ विजय पाना हमारे और विश्व के कल्याण के लिए ज़रूरी है।”
निराला की यह चिन्ता आज हमारे लिए और अधिक प्रासंगिक हो जाती है जब विकास और धर्मान्धता साथ-साथ फल-फूल रहे हैं और फासीवादी ख़तरा एकदम आसन्न है। निराला के शोषण-विरोधी चिन्तन पर लिखा गया अंश किताब का बेहतरीन हिस्सा है। विवेक इस हिस्से में निराला के कम चर्चित पर बेहद महत्त्वपूर्ण लेखों के सहारे उनकी निःशंक साम्राज्यवाद-विरोधी, सामन्तवाद-विरोधी दृष्टि पर प्रकाश डालते हैं। अपने समकाल की राजनैतिक हलचलों, वैश्विक स्थितियों और उपनिवेशवादी शासन की गहरी समझ निराला के चिन्तनपरक लेखों में मौजूद है।
विवेक ने इस पुस्तक में निराला की रचनाओं के नए अस्मिता केन्द्रित पाठ पर सवालिया निशान लगाते हुए निराला को उद्धृत किया है—“तोड़कर फेंक दीजिए जनेऊ जिसकी आज कोई उपयोगिता नहीं, जो बड़प्पन का भ्रम पैदा करता है और सम स्वर से कहिए कि आप उतनी ही मर्यादा रखते हैं जितना आपका नीच से नीच पड़ोसी चमार या भंगी रखता है।” यह पुस्तक भारतीय आधुनिक साहित्य की शोषणविरोधी परम्परा को बढ़ाने में निराला के योग को बेहतरीन ढंग से रेखांकित करती है। इसे पढ़ना एक विचारोत्तेजक अनुभव से गुज़रना है।
—मृत्युंजय
Vichar Ka Aina : Kala Sahitya Sanskriti : Ramchandra Shukla
- Author Name:
Acharya Ramchandra Shukla
- Book Type:

-
Description:
विचार का आईना शृंखला के अन्तर्गत ऐसे साहित्यकारों, चिन्तकों और राजनेताओं के ‘कला साहित्य संस्कृति’ केन्द्रित चिन्तन को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्होंने भारतीय जनमानस को गहराई से प्रभावित किया। इसके पहले चरण में हम मोहनदास करमचन्द गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारपरक लेखन से एक ऐसा मुकम्मल संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं जो हर लिहाज से संग्रहणीय है।
रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य के ऐसे प्रस्थान बिन्दु हैं जिनसे टकराए बिना हिन्दी साहित्य का कोई इतिहास मुमकिन नहीं हैं। इसी तरह वे हिन्दी आलोचना के भी आदि पूर्वज हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते हुए उन्होंने तार्किक ढंग से न सिर्फ उसका काल-विभाजन प्रस्तुत किया बल्कि मध्यकालीन कवियों के पाठ-भेद के बीच सही पाठ तक पहुँचने की राह भी दिखाई। आलोचना को अधुनातन विचारों से जोड़ते हुए एक मान्य कैनन दिया। उनके निबन्धों ने भारतीय चित्त की मीमांसा के नए द्वार खोले। वे हिन्दी साहित्य की अनेक बहसों के भी प्रस्थान बिन्दु हैं। हमें उम्मीद है कि उनके कला, साहित्य और संस्कृति सम्बन्धी लेखन को पढ़ते हुए हिन्दी समाज की निर्मिति को समझने के सही और सटीक सूत्र मिलेंगे।
Hindi Samudaay Aur Rashtrawad
- Author Name:
Sudhir Ranjan Singh
- Book Type:

-
Description:
सुधीर रंजन सिंह की यह पुस्तक हिन्दी समुदाय की बौद्धिक-साहित्यिक गतिविधियों और राष्ट्रवाद से जुड़े विचारों की समीक्षा है। हिन्दीभाषी समुदाय जातीय पहचान की दृष्टि से अधूरी अवस्था में है। देश के दूसरे आधुनिक भाषा-भाषी समुदायों की तुलना में इसमें जातीय अनुभूति के स्तर पर अधिक असमानताएँ और विभाजन हैं।
इस पुस्तक में उन सभी प्रसंगों की पड़ताल की गई है जिनके कारण हिन्दीभाषी समुदाय आज यह कहने में असफल है कि ‘हम हैं’। इसमें हिन्दी समुदाय की न केवल अधूरेपन का आख्यान है, बल्कि उसके संघर्ष की गाथा भी है। इस रूप में यह उन समकालीन विवादों में प्रभावशाली हस्तक्षेप है जो हिन्दी समुदाय के निर्माणकाल की अधिकांश गतिविधियों में संकीर्ण अन्तर्वस्तु की खोज को मुख्य विषय बनाते हैं। भाषायी अस्मिता का संघर्ष इस पुस्तक के अध्ययन के केन्द्र में है। राष्ट्रीय समुदायों की भाषाओं से उनकी अस्मिता निर्धारित होती है। उन्हें दबाने का अर्थ राष्ट्रबोध को कमज़ोर करना है। अपनी भाषाओं की रक्षा सांस्कृतिक पहचान से जुड़ा मामला है, और यह राष्ट्रवादी कार्य है। इस रूप में राष्ट्रवाद एक व्यावहारिक विचारधारा है जो सामान्य नागरिक को जाति और धर्म की संकीर्णता से ऊपर उठाती है। पुस्तक की मुख्य स्थापना है कि देश के सबसे बड़े समुदाय को आत्म-पहचान से दूर रखने का अर्थ होगा जाति और धर्म से जुड़ी पहचानों को बढ़ावा देना और राष्ट्रीयता की रीढ़ को कमज़ोर करना। ‘आत्म-पहचान’, हमारी समझ से, राष्ट्रीयता की जान है। इसी से किसी देश का चौतरफ़ा विकास होता है। आर्थिक, वैज्ञानिक, कलात्मक, साहित्यिक सभी क्षेत्रों में।
पुस्तक में हिन्दी लेखकों की असाधारण छवि प्रस्तुत की गई है। सुधीर रंजन सिंह का विश्वास है कि हिन्दी के लेखकों में अपनी सामुदायिक अस्मिता को लेकर जैसी चिन्ता है, और उसके साथ ही दूसरी भाषाओं के साहित्य और राष्ट्रीय जीवन की समस्याओं से जुड़े विषयों से जैसा लगाव है—यह बात सामान्य जन में और दूसरी जगहों पर भी उसी अनुपात में दिखाई पड़े तो सभी राष्ट्रीय समूहों की पहचान निखरेगी, और राष्ट्रव्यापी चेतनागत असमानताएँ भी कम होंगी।
Parampara Ka Mulyankan
- Author Name:
Ramvilas Sharma
- Book Type:

-
Description:
प्रगतिशीलता के सन्दर्भ में परम्परा-बोध एक बुनियादी मूल्य है, फिर चाहे इसे साहित्य के परिप्रेक्ष्य में रखा-परखा जाए अथवा समाज के। दूसरे शब्दों में बिना साहित्यिक परम्परा को समझे न तो प्रगतिशील आलोचना और साहित्य की रचना हो सकती है और न ही अपनी ऐतिहासिक परम्परा से अलग रहकर कोई बड़ा सामाजिक बदलाव सम्भव है। लेकिन परम्परा में जो उपयोगी और सार्थक है, उसे उसका मूल्यांकन किए बिना नहीं अपनाया जा सकता।
यह पुस्तक परम्परा के इसी उपयोगी और सार्थक की तलाश का प्रतिफलन है।
सुविख्यात समालोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने जहाँ इसमें हिन्दी जाति के सांस्कृतिक इतिहास की रूपरेखा प्रस्तुत की है, वहीं अपने-अपने युग में विशिष्ट भवभूति और तुलसी की लोकाभिमुख काव्य-चेतना का विस्तृत मूल्यांकन किया है। तुलसी के भक्तिकाव्य के सामाजिक मूल्यों का उद्घाटन करते हुए उनका कहना है कि दरिद्रता पर जितना अकेले तुलसीदास ने लिखा है, उतना हिन्दी के समस्त नए-पुराने कवियों ने मिलकर न लिखा होगा। भवभूति के सन्दर्भ में रामविलास जी का यह निष्कर्ष महत्त्वपूर्ण है कि ‘यूनानी नाटककारों की देवसापेक्ष न्याय-व्यवस्था की जगह देवनिरपेक्ष न्याय-व्यवस्था का चित्रण शेक्सपियर से पहले भवभूति ने किया’ और रामायण-महाभारत के नायकों के विषय में यह कि ‘राम और कृष्ण दोनों श्याम वर्ण के पुरुष हैं’।
वस्तुतः इस कृति में, आधुनिक साहित्य के जनवादी मूल्यों के सन्दर्भ में, प्राचीन, मध्यकालीन और समकालीन भारतीय साहित्य में अभिव्यक्त संघर्षशील जनचेतना के उस विकासमान स्वरूप की पुष्टि हुई है जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिम्बित करता रहा है।
Aadhunik Bodh : Dinkar Granthmala
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

-
Description:
— इस पुस्तक में आधुनिकता पर केन्द्रित निबन्ध संकलित हैं। एक युगद्रष्टा राष्ट्रकवि के मौलिक चिन्तन से ओतप्रोत विचारोत्तेजक ये निबन्ध आधुनिकता के महत्त्व को इस तार्किकता के साथ रेखांकित करते हैं कि पाठकों को अपने राष्ट्र के प्रति एक नई दृष्टि मिल सके।
आधुनिकता की परिभाषा क्या है? धर्म, साहित्य और समाज को वह किस सीमा तक प्रभावित करती है? क्या नैतिकता, सौन्दर्यबोध की भाँति आधुनिकता का भी कोई शाश्वत मूल्य है? विज्ञान, औद्योगिकी और टेक्नोलॉजी के निरन्तर प्रसार के सामने हम अपनी संस्कृति का सार किस तरह बचा सकते हैं? प्रस्तुत संग्रह के निबन्धों में दिनकर जी ने इन ज्वलन्त प्रश्नों पर न केवल गहराई से विचार किए हैं, वरन् भारतीय संस्कृति के सनातन जीवन-मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में उनके समाधान भी दिए हैं।
निस्सन्देह, 'आधुनिक बोध' रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के चिन्तकस्वरूप को उद्घाटित करनेवाली एक श्रेष्ठ बौद्धिक कृति है।
Triveni
- Author Name:
Acharya Ramchandra Shukla
- Book Type:

-
Description:
‘त्रिवेणी’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की तीन कृतियों मलिक मुहम्मद जायसी, महाकवि सूरदास तथा गोस्वामी तुलसीदास के आलोचनात्मक अंशों का संकलन है।
निबन्धों को इस दृष्टि से संकलित किया गया है कि साहित्य परम्परा की श्रेष्ठता तथा निबन्ध रचना का मानकीकरण हो सके। इनकी शैली, वैयक्तिकता, स्वच्छन्दता तथा भावात्मक पक्ष इन तत्त्वों में समाहित हैं।
प्रस्तुत संकलन निश्चय ही विद्यार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
Ramvilas Sharma Ka Mahattva
- Author Name:
Ravibhushan
- Book Type:

-
Description:
रामविलास शर्मा उन भारतीय लेखकों, विचारकों, बुद्धिजीवियों और मार्क्सवादी चिन्तकों में अग्रणी हैं जिन्होंने अपने समय में लेखन के ज़रिए निरन्तर और सार्थक हस्तक्षेप किया है। अपने समय और समाज की समस्याओं पर विचार किया है और उनके निदान भी सुझाए हैं।
अपने पहले लेख ‘निराला जी की कविता’ में उन्होंने लिखा था, ‘निराला जी की कविता नए युग की आँखों से यौवन को देखती हैं।’ उन्होंने सदैव नए युग की आँखों को महत्त्व दिया। आज जब बहुत सारे युवाओं ने हथियार डाल दिए हैं, और लेखक-आलोचक उत्तर-आधुनिकता और उत्तर-संरचनावाद जैसी बहसों में लिप्त हैं, हमें रामविलास जी की अडिगता, अविचलता और मार्क्सवादी दर्शन में अटूट आस्था तथा जन-संघर्षों में विश्वास को याद करने की ज़रूरत है।
रामविलास शर्मा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और निराला की अगली कड़ी हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि तुलसीदास को जो राम के नाम पर होता था, वही अच्छा लगता था। देश और जनता के हित में जो होता है, वह मुझे अच्छा लगता है। उनके लेखन की मुख्य चिन्ता हिन्दी और भारत रहे।
सम्भवत: बीसवीं सदी में विश्व की किसी और भाषा में कोई ऐसा दूसरा आलोचक नहीं है जिसने अपने जातीय समाज, जातीय भाषा और साहित्य के सम्बन्ध में एक साथ क्रान्तिकारी स्थापनाएँ दी हों। वे साहित्य समीक्षक, सभ्यता समीक्षक और संस्कृति समीक्षक एक साथ रहे हैं। यह पुस्तक आज के भारत के सन्दर्भ में उनका पुनर्पाठ करने का प्रयास है—अपने लम्बे लेखन-काल में उन्होंने जिन-जिन विषयों को व्यापक ढंग से छुआ, उनके सम्बन्ध में उनके विचारों को दुबारा पढ़ने का भी और वर्तमान घटाटोप में कोई रास्ता निकालने का भी।
Hindi Aalochana ka Doosra Path
- Author Name:
Nirmala Jain
- Book Type:

-
Description:
अनुसन्धान, सिद्धान्त-निरूपण, पांडित्यपूर्ण-अध्ययन, साहित्येतिहास आदि आलोचना के लिए उपयोगी हो सकते हैं, ख़ुद आलोचना नहीं हो सकते। आलोचना के इस वास्तविक स्वरूप का उद्घाटन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल बहुत पहले कर चुके थे।
आलोचना का सही सन्दर्भ और उसकी सार्थकता की सच्ची कसौटी रचना ही हो सकती है और होती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि समकालीन रचनात्मक साहित्य की समीक्षा सार्थक आलोचना की पहली ज़िम्मेदारी है। इस दृष्टि से आलोचना के विकास में गम्भीरता से की गई पुस्तक-समीक्षाओं की भूमिका असन्दिग्ध है। ऐसी ही समीक्षाओं के बीच से अक्सर आलोचना का विकास होता है—बशर्ते समीक्षक की वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी सन्देहातीत हो। इसी क्रम में पूर्ववर्ती रचनाओं और रचनाकारों के पुनर्मूल्यांकन के प्रयास भी सामने आते हैं। सिद्धान्त-निरूपण और पूर्वकालीन कृतियों की ये व्याख्याएँ समकालीन रचनाओं की समीक्षा के सन्दर्भ में ही प्रासंगिकता प्राप्त करती हैं।
हिन्दी आलोचना के किसी इतिहास का मुख्य लक्ष्य इसी प्रासंगिकता की प्रतिष्ठा होना चाहिए। इस दृष्टि से देखने पर हिन्दी आलोचना का पूरा परिदृश्य ही नए रूप में उद्घाटित होता है।
आज आवश्यकता हिन्दी आलोचना के इतिहास को उसके समुचित परिदृश्य में रखने की ही है। इस कृति में इसी परिदृश्य का साक्षात्कार करने का प्रयास किया गया है।
—‘भूमिका’ से
Renu Ka Hai Andaze Bayan Aur
- Author Name:
Bharat Yayawar
- Book Type:

-
Description:
फणीश्वरनाथ रेणु का जीवन और साहित्य जितना बहुआयामी है उतना ही रसग्राही। रेणु के व्यक्तित्व-कृतित्व के विविध पक्षों की गहन खोज करने में भारत यायावर ने अपने जीवन के कई वर्ष लगा दिए हैं। उनके सम्पादन में अब तक रेणु की लगभग बीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से 'रेणु रचनावली' का सम्पादन किया है, जो बेहद प्रशंसित हुआ है। रेणु पर अपनी लम्बी खोज-यात्रा के उपरान्त उन्होंने 'रेणु का है अन्दाज़े-बयाँ और' लिखी है। इस पुस्तक में रेणु के जीवन और साहित्य के नए और अनछुए पहलुओं की तलाश की गई है। रेणु पर यह पहली पुस्तक है जिसमें विस्तार से उनकी रचनाओं की पड़ताल की गई है। रेणु के साहित्य में उपन्यास एवं कहानी के साथ ही रिपोर्ताज सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विधा है, जिस पर विस्तार से विवेचन किया गया है।
भारत यायावर की इस पुस्तक में रेणु के जीवन और साहित्य के गहन अनुसंधानपरक विवेचन के बावजूद सबसे महत्त्वपूर्ण है एक जीवन्त यानी हँसती-बतियाती हुई रचनात्मक भाषा। इस भाषा का एक अपना ही स्वाद है, साथ ही अपना ही रंग है। इसके कारण यह पुस्तक रोचक, दिलचस्प और बेहद पठनीय है। इस पुस्तक के परिशिष्ट में भारत यायावर ने फणीश्वरनाथ रेणु का संक्षिप्त जीवन-परिचय जोड़ दिया है एवं दो असंकलित रचनाओं ‘जै गंगा’ एवं ‘डायन कोशी’ को भी संकलित कर दिया है, इससे इस पुस्तक की महत्ता और अधिक बढ़ गई है। कुल मिलाकर, रेणु के अन्दाज़े-बयाँ को अपने ही ढंग से प्रस्तुत करनेवाली यह अनोखी पुस्तक है।
Hindi : Aakansha aur Yatharth
- Author Name:
Shrinarayan Sameer
- Book Type:

-
Description:
हमारी सभ्यता चाहे जितनी विकसित हो जाए, इलेक्ट्रॉनिक संवाद (SMS) का स्वरूप चाहे जितना लघुतम बन जाए, परम्परा, परिवर्तन और प्रगति के लक्षणों, विचारों तथा संकल्पनाओं को व्यक्त करने का माध्यम भाषा ही रहेगी। इसलिए भाषा से जुड़े प्रश्न, यक्ष-प्रश्न की तरह हर देश और काल में ध्यान आकृष्ट करते हैं और करते रहेंगे। भाषाओं के विपुल और बहुरंगे संसार में हिन्दी की सहजता, सर्वग्राहिता और सामूहिकता वाली भावना उसे विलक्षण बनाती है और इन्हीं की बदौलत यह दूसरे भाषा-भाषियों को भी प्रीतिकर लगती है। हिन्दी के व्यापक प्रसार का यही मूल कारण है।
भूमंडलीकरण और सूचनाक्रान्ति के मौजूदा दौर में भी यह सच ग़ौर करने लायक़ है कि हिन्दी का जो भाषा-रूप पहले मात्र बोलचाल तक सीमित था और स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में राजनीतिक आलोड़न से जुड़कर लोक का कंठहार बना, वह अब प्रशासनिक, वाणिज्यिक, तकनीकी, मीडिया आदि प्रयोजनमूलक स्वरूप में भी निखर आया है। इस पुस्तक के निबन्ध हिन्दी की इसी बहुविध और व्यापक शक्ति तथा सामर्थ्य को लेकर जिरह करते हैं। इस जिरह में हक़ीक़त और फ़साने, अस्ल और ख़्वाब तथा बहुत कुछ कहे-बुने गए हैं। और यही है हिन्दी की आकांक्षा और हिन्दी का यथार्थ जो भूमंडलीकरण और सूचनाक्रान्ति के लाख दबावों के बावजूद जस-का-तस है, बल्कि पुनर्नवा है और निरन्तर प्रसार पा रहा है।
हिन्दी भाषा के इस अस्ल और ख़्वाब को लेकर डॉ. श्रीनारायण समीर ने इस किताब में विमर्श का जो ठाठ खड़ा किया है, वह क़ाबिले-तारीफ़ है, क़ायल करता है और हिन्दी के प्रशस्त भविष्य की प्रस्तावना रचता है।
Anuprayukt Bhashavigyan : Siddhant Evam Prayog
- Author Name:
Ravindranath Shrivastava
- Book Type:

-
Description:
अप्रयुक्त भाषाविज्ञान अपने सिद्धान्त और प्रणाली के आधार पर भाषा से सम्बन्धित ज्ञान के अन्य क्षेत्रों के अध्ययन विश्लेषण के लिए नया कार्यक्षेत्र खोलता है। इस नए कार्यक्षेत्र के प्रति प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव सचेत रहे तथा इससे उनके भाषावैज्ञानिक की संलग्नता भी निरन्तर बनी रही। उनका यह दृढ़ मत था कि भाषाविदों को ही आज अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की सर्वाधिक आवश्यकता है। वे यह मानते थे कि भाषाविद् ही अपने भाषावैज्ञानिक ज्ञान का अनुप्रयोग करते हुए भाषा-अध्ययन को प्रौढ़ तथा उपयोगी बना सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि समाज में भाषा-प्रयोग, भाषा का कलात्मक प्रयोग, भाषा का शिक्षण आदि कई ऐसे क्षेत्र हैं जो अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के उपयोग के अभाव में उजागर हो ही नहीं सकते। यदि गम्भीरता से देखा जाए तो मातृभाषा और अन्य भाषाओं के शिक्षक, साहित्य-समीक्षक, अनुवादक, कोशकार सभी को भाषावैज्ञानिक ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। इसके साथ ही जो अध्येता साक्षरता-अभियान, लेखन-पद्धति के विकास, वर्तनी-शोधन, भाषा-नीति, कंप्यूटर-भाषा जैसे क्षेत्रों से सम्बन्ध हैं, वे भी भाषावैज्ञानिक अनुप्रयोग के अभाव में अपेक्षित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकते। अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के विषय-क्षेत्र एवं उसकी कार्य-प्रणाली पर काफ़ी समय तक भ्रामक विचारों की धुंध छाई रही। प्रो. श्रीवास्तव ने इस प्रकार अवैज्ञानिक अन्तर्विरोधों को शान्त करने के साथ ही अपनी तार्किक और वैज्ञानिक विवेचन-पद्धति और इसके सभी उपवर्गों को एक भ्रान्तिमुक्त दिशा दी। उन्होंने यह प्रतिपादित और प्रमाणित किया कि भाषावैज्ञानिक नियमों के अनुप्रयोग के लक्ष्य भिन्न होते हैं। लक्ष्य-भेद से ही अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के भिन्न सन्दर्भ उपजते हैं; यही उसकी भिन्न शाखाओं के निर्माण और विकास का कारण बनते हैं। इन और ऐसे अनेक प्रश्नों पर यह पुस्तक
प्रो. श्रीवास्तव का नज़रिया प्रस्तुत करती है। इनमें से कई लेख कालक्रम के लम्बे अन्तराल में लिखे गए हैं। इन्हें क्रमबद्ध ढंग से उपलब्ध कराना इस संकलन के प्रकाशन का प्रमुख लक्ष्य है। हमारा यह भी उद्देश्य है कि समय के साथ प्रो. श्रीवास्तव के चिन्तन में क्रमशः प्रखरता, वैज्ञानिकता और व्यापकता के जो आयाम जुड़ते चले गए उनकी पहचान हो सके। पुस्तक के व्यापक फ़लक और इसकी वैचारिक गहराई को देखते हुए इसे हिन्दी में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की पहली सम्पूर्ण कृति कहा जा सकता है।
Shri Arvind : Meri Dristi Main
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

-
Description:
‘श्री अरविन्द : मेरी दृष्टि में’ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की विराट मानसिकता का परिचय करानेवाली विचार-प्रधान कृति है।
दिनकर ने इस पुस्तक में योगिराज अरविन्द के विकासवाद, अतिमानव की अवधारणा एवं साहित्यिक मान्यताओं को बहुत ही सरलता से बताया है।
श्री अरविन्द केवल एक क्रान्तिकारी ही नहीं, उच्चकोटि के साधक भी थे। राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में—“श्री अरविन्द की साधना अथाह थी, उनका व्यक्तित्व गहन और विशाल था और उनका साहित्य दुर्गम समुद्र के समान है।”
इस पुस्तक की एक विशेषता यह भी है कि यहाँ श्री अरविन्द की कालजयी चौदह कविताओं को भी संकलित किया गया है जो स्वयं राष्ट्रकवि दिनकर द्वारा अपनी विशिष्ट भाषा-शैली में अनूदित की गई हैं।
नई साज-सज्जा में प्रस्तुत यह कृति निश्चय ही हिन्दी साहित्य में रुचि रखनेवाले पाठकों के लिए उपादेय सिद्ध होगी।
1857 Aur Bihar Ki Patrakarita
- Author Name:
Md. Zakir Hussain
- Book Type:

- Description: बिहार शुरू से ही विभिन्न आंदोलनों का केंद्र रहा है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में बिहार में लगभग आठ सौ लोगों को फाँसी पर चढ़ा दिया गया था। हजारों लोगों पर मुकदमा चलाया गया, सैकड़ों गाँव जलाए गए। इसमें शामिल विद्रोहियों की जमीन-जायदाद जब्त कर ली गई और उसे गद्दारों में बाँट दिया गया था। वैसे तो बिहार में 1857 के महायुद्ध पर कई पुस्तकें उपलब्ध हैं, पर मो. जाकिर साहब की इस पुस्तक की विशेषता है कि उन्होंने 1857 के दौरान उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में इस विद्रोह के बारे में जो कुछ लिखा गया, उसे सिलसिलेवार ढंग से संकलित किया है। किसी भी विद्रोह या आंदोलन को तब की उपलब्ध रपटों और खबरों का अध्ययन कर समझा जा सकता है। इसमें अखबार-ए-बिहार, दिल्ली उर्दू-अखबार, अखबार-अल-जफर, सादिक-अल-अखबार और नदीम के बिहार विशेषांक में प्रकाशित 1857 से संबंधित खबरों और लेखों को शामिल किया गया है। सन् सत्तावन के विद्रोह के दो साल पहले पटना से ‘हरकारा’ प्रकाशित हुआ था और सन् 1856 में ‘अखबार-ए-बिहार’ प्रकाशित होने लगा था। लेखक ने उर्दू की पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन कर 1857 के गदर से जुड़ी सामग्रियों को रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है। ऐसे में यह पुस्तक अधिक प्रामाणिक और उपयोगी बन गई है।
Rakta Ka Kan-Kan Samarpit
- Author Name:
Chiranjeev Sinha
- Book Type:

- Description: विश्व के शीर्ष राष्ट्रों में शुमार भारतवर्ष को देखकर आज किस भारतीय का सीना चौड़ा नहीं होता होगा; लेकिन आज बराबरी और सम्मान के जिस मुकाम पर हम खड़े हैं, वहाँ हम यों ही नहीं पहुँचे हैं। इसके लिए हमें अनगिनत कुरबानियाँ देनी पड़ी हैं, लाखों जवानियाँ काल-कोठरी के पीछे खुशी- खुशी कैद हुई हैं। उनमें से कुछ को ही हम जानते हैं और बाकियों की स्मृति कस्बों एवं गाँवों में सिमटकर रह गई है। यह पुस्तक ऐसे ही गुमनाम स्वातंत्र्य साथकों के बारे में है, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारतमाता की स्वाधीनता के लिए हँसते-हँसते न्योछावर कर दिया, पर वे इतिहास की नामचीन क्या, साधारण सी पुस्तकों का भी हिस्सा नहीं बन सके। वैसे यह उनको इच्छा भी नहीं थी कि उनका नाम हो, लेकिन आज को युवा पीढ़ी और स्कूली बच्चों को उनके बारे में जानना आवश्यक है कि वे कौन महापुरुष थे। 'जरा याद उन्हें भी कर लो' इसी उद्देश्य को लेकर कहानी-दर-कहानी मजबूती से आगे बढ़ती है। चिरंजीव सिन्हा की पुस्तक ' रक्त का कण-कण समर्पित” उत्तर प्रदेश के गुमनाम स्वाधीनता सेनानियों की प्रेरक गाथाओं का पठनीय संकलन है।
Prithveeraj Raso : Bhasha Aur Sahitya
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

-
Description:
‘पृथ्वीराज रासो’ को हिन्दी का आदि महाकाव्य कहलाने का गौरव प्राप्त है। भाषा की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ में अपभ्रंशोत्तर पुरानी हिन्दी के विविध भाषिक रूपों के प्रयोग प्राप्त होते हैं।
‘पृथ्वीराज रासो : भाषा और साहित्य’ नामक शोधग्रन्थ में इस काव्य-ग्रन्थ की भाषा का व्यवस्थित और सांगोपांग भाषा-वैज्ञानिक विश्लेषण करने का पहला प्रयास किया गया है।
वर्तमान स्थिति में जबकि रासो के सुलभ संस्करण सन्तोषप्रद नहीं हैं और वैज्ञानिक संस्करण अभी भी होने को हैं, भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन के लिए सर्वोत्तम मार्ग यही है कि प्राचीनतम पांडुलिपियों में से किसी एक को आधार बना लिया जाए।
प्रस्तुत ग्रन्थ में धारणोज की लघुतम रूपान्तर वाली प्रति को आधार माना गया है, क्योंकि एक तो इसका प्रतिलिपि-काल (सं. 1667 वि.) अब तक की प्राप्त प्रतियों में प्राचीनतम है और दूसरे, इसमें भाषा के रूप भी अपेक्षाकृत प्राचीनतर हैं। इसके साथ ही नागरी प्रचारिणी सभा में सुरक्षित बृहत् रूपान्तर की उस प्रति से भी सहायता ली गई है जिसका प्रतिलिपि-काल सम्पादकों के अनुसार सं. 1640 या 42।
इस ग्रन्थ में भाषा-वैज्ञानिक विवेचन के साथ ही ‘कनवज्ज समय' का सम्पादित पाठ और उसके सम्पूर्ण शब्दों का सन्दर्भसहित कोश भी दिया गया है। इसके अतिरिक्त यथास्थान शब्द-रूपों की ऐतिहासिकता तथा प्रादेशिकता की ओर संकेत भी किया गया है।
विश्लेषण के क्रम में एक ओर डिंगल-पिंगल तत्त्व स्पष्ट होते गए हैं, तो दूसरी ओर हिन्दी की उदयकालीन तथा अपभ्रंशोत्तर अवस्था की भाषा का स्वरूप भी उद्घाटित हुआ है। साथ ही तुलना के लिए तत्कालीन अन्य रचनाओं के भी समानान्तर शब्द-रूप दिए गए हैं।
नवीन परिवर्धित संस्करण का एक अतिरिक्त आकर्षण यह भी है कि इसमें परिशिष्ट-स्वरूप ‘पृथ्वीराज रासो’ की संक्षिप्त साहित्यिक समालोचना भी जोड़ दी गई है।
इस प्रकार यह प्रबन्ध शोधार्थी अध्येताओं के साथ ही हिन्दी के प्रबुद्ध पाठकों के लिए भी एक आवश्यक सन्दर्भ-ग्रन्थ है।
Kavi Ka Akelapan
- Author Name:
Mangalesh Dabral
- Book Type:

-
Description:
कवियों के गद्य में कोई न कोई विशेषता तो होती होगी जो हम उसे अक्सर आम गद्य से अलग करके देखने की कोशिश करते हैं। वह विशेषता क्या हो सकती है? क्या कवि का बादल लिखना हम पर छाया कर जाता है? क्या कवि के बारिश लिखने से हम भीगने लगते हैं? कवि का प्रेम या ख़ून के बारे में कुछ लिखना हमें बेचैन करने लगता है? मंगलेश डबराल का गद्य पढ़ते हुए कितनी ही बार हम संवेदना के कई ऐसे बारीक़ उतार-चढ़ावों से गुज़र सकते हैं। मगर यह कहना कि उनका गद्य दरअसल उनकी कविता का ही एक आयाम है, इस गद्य की विशेषता को पूरा अनावृत नहीं करता। इससे गुज़रते हुए सबसे पहले तो यही लगता है कि यह गद्य क़तई महत्त्वाकांक्षी नहीं है। यह सिर्फ़ भाषा के स्तर पर आपको मोहित नहीं करता, बल्कि कविताओं और एक कवि के दूसरे कई सरोकारों की समाजशास्त्रीय और राजनीतिक विवेचना की गहराई इसे असली उठान देती है। उसमें अनुभव की गहराई, विचार की प्रतिबद्धता और शिल्प की सुन्दरता एक साथ बुनी हुई है।
‘कवि का अकेलापन’ दो हिस्सों में बँटा हुआ है। पहले हिस्से में मंगलेश अपने कुछ प्रिय कवियों की रचनाओं, उनकी पंक्तियों को खोलते हुए उनके अर्थ-स्तरों और उस भावभूमि तक पहुँचने की कोशिश करते हैं, जहाँ से वे पंक्तियाँ अवतरित हुई होंगी और ऐसा करते हुए वह अलग-अलग स्थितियों, विषयों और विचारों के सन्दर्भ में उस कवि के और साथ ही स्वयं अपनी सोच और कल्पना को उघाड़ते हैं। यह हमें एक साथ दो-दो कवियों के भीतरी लोक में समाहित काव्यात्मक स्पन्दन और विमर्श के संसार की अद्भुत छवियाँ दिखाता है। दूसरे हिस्से में कवि की बेतरतीब डायरी है। यह डायरी एक बेचैन व्यक्ति, एक आम नागरिक, एक पुत्र, एक दोस्त, एक संगीत-प्रेमी और इन सबसे थोड़ा ज़्यादा एक कवि के रूप में मंगलेश डबराल को हमारे सामने खोलने का काम करती है और अन्ततः हम यह सोचकर विस्मित हुए बिना नहीं रह पाते कि एक कवि अपने अकेलेपन में किस तरह अपने चारों ओर फैले दृश्यों, बदलावों, अदृश्य दबावों, विस्मृतियों, तकलीफ़ों की नज़र न आनेवाली वजहों और न जाने कितने ही दूसरे अमूर्तों की शिनाख़्त कर उन्हें मूर्त कर सकता है। अगर इसी किताब में प्रयुक्त शीर्षकों की मदद से कहा जाए तो यह ‘असमय के बावजूद’, ‘प्रसिद्धि के उद्योग’ और ‘बर्बरता के विरुद्ध’ एक कवि का ‘लौटते हुए पूर्णतर’ होते जाना है।
Meri Dharti Mere Log
- Author Name:
Sheshendra Sharma
- Book Type:

-
Description:
कवि तीखा होता हुआ मनहर है—वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि। कितनी सरल, कितनी कोमल जनान्तिक, फिर भी अभिजात, कितनी आम-अवाम को पुकारती उसकी आवाज़ है। शब्दों का औदार्य, रचना की सुघराई, गिरा की गरिमा, भावों की तीखी सादगी सिद्ध करती है कि—सिम्पल इज़ द कल्मिनेशन ऑफ़ द कॉम्प्लेक्स।
—डॉ. भगवतशरण उपाध्याय
यह कृति सिखाती है कि किस तरह कवि संवेदना में जनवादी और क्रान्तिकारी हो सकता है। यह काव्य स्वाद और आग एक साथ देता है। इस आग से रूपान्तरित व्यक्तित्व आदमी नहीं रहता, वह क्रान्ति का अस्त्र बन जाता है, जिसे इतिहास इस्तेमाल करता है।
—डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
शेषेन्द्र के काव्य में भारतीय आत्मा की लाक्षणिक अभिव्यक्ति है। इसकी बनावट बौद्धिक नहीं, हार्दिक और आत्मिक है। यह केवल मस्तिष्क को उत्तेजित करके नहीं छोड़ देता बल्कि एक गहितर वेदना और संवेदना से हमें भीतर ही भीतर गला देता है।
—वीरेन्द्र कुमार जैन
शेषेन्द्र तेलगू-काव्य के ही नहीं, बल्कि विश्व-काव्य के आशा-सूर्य हैं। कविता-रहस्य जितना वह जानते हैं, उतना अन्य आधुनिक कवि कम जानते हैं। श्रमिक-जीवन की भूमिका पर आधारित ‘मेरी धरती : मेरे लोग’ बीसवीं शती की जिह्वा और आगामी पीढ़ियों की हृदय-ध्वनि है। शेषेन्द्र वह कवि हैं जिसे राजेश्वर ने अपनी ‘काव्य-मीमांसा’ में इस तरह वर्णित किया है—वायं पताकामिव यस्य दृष्ट्वा जनः कवीनाम अनुपृष्ठ मेति।
—डॉ. सरगूकृष्ण मूर्ति
Customer Reviews
0 out of 5
Book