Uttar Aupniveshikata Ke Srot Aur Hindi Sahitya
Author:
Pranay KrishnaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Available
उपनिवेशवादी विमर्शों को चुनौती अनेक विचारधाराओं, ज्ञानमीमांसाओं से मिलती रही है, लेकिन सर्वाधिक चुनौती उन वास्तविक उपनिवेशवाद- विरोधी जनसंघर्षों से मिली है, जिनके बगैर कोई भी विमर्श संभव नहीं था। ऐसे में उत्तर-औपनिवेशिकता कोई एक व्यवस्थित सिद्धांत या अनुशासन नहीं है। तेज़ी से बदलती दुनिया में विभिन्न किस्म के विचारों और व्यवहारों के बीच, विभिन्न किस्म की संस्कृतियों और लोगों के बीच बदलते रिश्तों के सन्दर्भ में ही उत्तर-औपनिवेशिक विमर्शों ने आकार ग्रहण किया है। मार्क्सवाद से लेकर नारीवाद तक के राजनीतिक सिद्धांत, उत्तर-संरचनावाद और उत्तर-आधुनिकता के साथ मार्क्सवादी ज्ञानमीमांसा का संघर्ष, संस्कृतिवादियों और भौतिकवादियों के बीच विवाद, पाठकेन्द्रित और यथार्थवादी साहित्य सिद्धान्तों की आपसी बहस उत्तर- औपनिवेशिक विमर्शों में संचरित है। ‘औपनिवेशिक’ का रेखांकन, विश्लेषण और सैद्धांतीकरण अनेक सन्दर्भों और विविध विमर्शों के परिक्षेत्र में होता रहा है। ‘उत्तर-औपनिवेशिक’ सैद्धांतिकी जितनी अधिक योरोपीय भाषाओं और सांस्कृतिक रूपों से बाहर निकलकर अन्य सांस्कृतिक अनुभवों को समेटने की कोशिश करती है, उतनी ही अधिक समस्याग्रस्त होती चली जाती है। भारतीय भाषाओं के साहित्य पर काम करने वाले आलोचकों ने ‘उत्तर-औपनिवेशिक’ सैद्धांतिकी की तमाम कठिनाइयों की ओर इंगित किया है।</p>
<p>विउपनिवेशीकरण की प्रक्रिया ने औपनिवेशिक परिस्थिति और अनुभव के प्रति जिस आलोचनात्मक दृष्टिपात को संभव किया, वह एक वैश्विक परिघटना उत्तर-औपनिवेशिक आलोचना सिद्धांत ने संस्कृति और राजनीति के पुराने कलावादी द्वैत का तो अन्त कर दिया, लेकिन इस प्रक्रिया में उसके कुछ महत्त्वपूर्ण आलोचकों ने राजनीति को ही कला या पाठ में बदल दिया है।</p>
<p>उत्तर-औपनिवेशिक सांस्कृतिक विश्लेषण ने एक ऐसे लेखन को जन्म दिया है जो कि पश्चिमी और गैर-पश्चिमी लोगों और दुनियाओं को देखने के अब तक के वर्चस्वशाली नज़रिए को चुनौती देता है। वह एक ऐसे सैद्धांतिक ढाँचे को खड़ा करने का प्रयास है जो कि पश्चिमी, यूरो-केन्द्रिक ढाँचे का विकल्प बन सकें।
ISBN: 9788119133888
Pages: 340
Avg Reading Time: 11 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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समकालीन सोच एक ओर समग्रतावादी रुख़ ग्रहण कर सामाजिक परिवर्तन की बातों पर अपना ध्यान केन्द्रित रखती है तो दूसरी ओर वह व्यक्तिवादी-अस्तित्ववादी न होकर व्यक्ति की अस्मिता के प्रति पूरी तरह सजग रहती है, अस्तित्व के प्रति भी। वह महान क्रान्ति पर नहीं, छोटी-छोटी लड़ाइयों पर आस्था रखती है। इतिहास का अन्त, विचारधारा का अन्त, कविता का अन्त वाली बातों का विरोध भी करती है। इस तरह की बातों को वह नकारात्मक मानव विरोधी सोच कहकर टाल देती है। वैश्वीकरण, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद, साम्प्रदायिकता, अंधाधुंध विकास नीति इत्यादि का विरोध करती है, साथ ही साथ स्त्री, दलित, आदिवासी अस्मिता पर ज़ोर देती है।
समकालीन कविता लगभग इसका अनुसरण करती आ रही है। उसके कई मायने हैं और उन मायनों में एक तत्त्व प्रमुख है, वह है उसकी मानवीय संसक्ति। समकालीन कविता मानवता की तरफ़दारी करके अपने इतिहास का विकास करती आ रही है, मानवता का इतिहास रच रही है। असल में वह समकालीन जीवन की सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श ही प्रस्तुत करती है। पुराने समाज के समान आज के समाज में शोषक एवं शोषित हैं, लेकिन दोनों को अलग करना कठिन कार्य हो गया है। आज शोषक स्पष्ट दिखाई नहीं देता है, वह कई रूपों-भावों-गंधों-रंगों-रुचियों के रूप में समाज की प्रगति एवं तरफ़दारी का भ्रम फैलाकर अपना काम साधता है। समकालीन कविता इस मायिकता के प्रति मनुष्य एवं समाज को सजग करती है, प्रतिरोध करने की सख़्त ज़रूरत पर बल भी देती है। कहीं-कहीं वह प्रतिरोध के मार्ग की ओर संकेत भी करती है।
Rachnaon Par Chintan
- Author Name:
Zilani Bano
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आंचलिक उपन्यास ‘अलग-अलग वैतरणी’, 'सोनामाटी’ और ‘आधा गाँव’ ने यह अहसास दिया है कि जीवन की बहुरंगी प्रक्रियाओं के आत्मीय अंकन के लिए जितना उदार फलक आंचलिकता प्रदान करती है, उतना पारम्परिक, शिष्ट, तत्सम जीवन नहीं। इसकी तत्परता में व्यक्ति की पीड़ा अथवा उसके आन्तरिक संघर्षों के अंकन अथवा मूर्त ऐतिहासिक प्रक्रियाओं का अंकन चाहे जितना भी हो लेकिन जीवन की वह आभा, सामान्य जीवन-प्रक्रिया में ही रचे-पचे होने का सामर्थ्य कम ही दिखता है। इसी कारण शिवप्रसाद सिंह का ‘नीला चाँद’ बौद्धिक प्रयास लगता है। ‘वे दिन’, ‘चितकोबरा’ या ‘शेखर : एक जीवनी’ शिल्प और तकनीक की दृष्टि से जो भी स्थान रखते हों, अपनी अन्तरंगता के बावजूद, ऊष्माहीन और औपचारिक लगते हैं। इनसे भिन्न ‘मैला आँचल’, ‘परती परिकथा’, ‘बलचनमा’ उपन्यास जीवन को प्रथम तल पर अंकित करते है। इनमें जीवन अधिक और चिन्तन कम है।
लेकिन ‘इतिहासेतर’ और ‘परम इतर' के आग्रही निर्मल वर्मा परम्परा और स्मृतियों की ओर लौटते हैं और उन्हें ही निकष मानकर वर्तमान की समालोचना प्रस्तुत करते हैं।
'गाँधीवाद की शव परीक्षा’ में मशीन को सभ्यता, रोज़गार और सस्ते, सर्वसुलभ उत्पादों से जोड़ा गया था, ‘चक्कर क्लब’ में इसे मनुष्यत्व अर्थात् मनुष्य के सत्त्व से जोड़ा गया है।
‘अन्धा युग’ में वर्णित सामाजिक यथार्थ तत्कालीन सामाजिक यथार्थ से मेल नहीं खाता यह मूलतः अतियथार्थवादी है।
Deshaj adhunikta
- Author Name:
Anupam Anand
- Book Type:

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यहापि आधुनिक मूल्यों के प्रति हिन्दी साहित्य में पाई जानेवाली तीव्र चेतना पाश्चात्य प्रभावों से अधिक जुड़ी प्रतीत होती है, परन्तु क्या इन मूल्यों की जड़े अपने पारम्परिक साहित्य में नहीं थीं? क्या आदिकाल से प्रगतिवाद के पूर्व तक का सम्पूर्ण साहित्य आधुनिकता के चेतना से मुक्त था? क्या भक्तिकाल में निर्गुण-सगुण, आत्मा-परमात्मा, जड़-चेतन से परे सामाजिक चेतना का अभाव था? इन सभी प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें अत्यन्त गहराई से अपनी देशज बोलियों में रचे गए साहित्य का सूक्ष्म अवलोकन करना होगा। संवेदनात्मक स्तर पर इस साहित्य के अवलोकन के उपरान्त यहाँ प्रत्येक कवि व लेखक की रचना में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में आधुनिकता अवश्य पाई जाएगी ।
क्या तुलसी के राम साम्राज्यवाद विस्तार के लिए संघर्षरत रहते हैं? नहीं, तुलसी के राम बुराई पर अच्छाई को स्थापित करने के लिए संघर्षशील रहते हैं। इस रूप में यह संघर्ष आधुनिकता का सन्दर्भ है।
Bhakti Andolan Aur Bhakti Kavya
- Author Name:
Shivkumar Mishra
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प्रस्तुत पुस्तक का सम्बन्ध भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य से है, भक्ति-आन्दोलन के मूल में जनता के दुःख-दर्द ही हैं और उन दुःख-दर्दों को बड़ी जीवन्त मानवीयता के साथ उभरने, उनसे एकमेक होकर सामने आने में ही भक्ति-आन्दोलन की शक्ति को देखा जा सकता है। अनुमान कर सकते है कि तीन शताब्दियों से भी अधिक समय तक अपने पूरे वेग के साथ गतिशील होनेवाले इस भक्ति-आन्दोलन में जनता के ये दुःख-दर्द कितनी गहरी संवेदनशीलता के सान्निध्य में उभरे होंगे। भक्तिकाव्य में, उसके रचनाकारों में, अन्तर्विरोध भी हैं, उनकी सीमाएँ भी हैं। पुस्तक में उनकी चर्चा भी की गई है।
हम भक्तिकाव्य जैसा काव्य आज नहीं चाहते, पर जिन मूलवर्ती गुणों के कारण भक्ति कविता कालजयी हुई, वे गुण ज़रूर उससे लेना चाहते हैं, और इन गुणों के नाते ही हम उसे साथ लेकर चलना भी चाहते हैं।
पुस्तक में निबन्धों में पुनरुक्ति भी मिल सकती है। अलग-अलग समय में लिखे गए निबन्ध ही मिल-जुलकर यह किताब बना रहे हैं। इनमें से कबीर, सूर तथा भक्ति-आन्दोलन से जुड़े निबन्ध प्रकाशित भी हो चुके हैं। यहाँ वे कुछ संशोधित परिवर्द्धित रूप में फिर से प्रकाशित हो रहे हैं। मलिक मुहम्मद जायसी, तुलसी, भक्ति-आन्दोलन का पहला निबन्ध अप्रकाशित है। वे यहाँ पहली बार ही प्रकाशित हो रहे हैं। नानकदेव तथा गुरु गोविन्द सिंह पर लिखे निबन्ध भी अप्रकाशित हैं। ये विशेष अवसर के लिए लिखे गए निबन्ध थे, किन्तु किताब के विषय की सीमा में आ सकने के नाते उन्हें भी समेट लिया गया है। भक्ति-आन्दोलन सम्बन्धी निबन्धों में प्रमुखतः के. दामोदरन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारों को ही रेखांकित किया गया है।
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