Antim Dashak Ki Hindi Kavita
Author:
Ravindranath MishraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 320
₹
400
Unavailable
बीसवीं सदी का अन्तिम दशक कई तरह से सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का साक्षी रहा। विश्व में समाजवाद के पतन के उपरान्त भारत में उदारीकरण के चलते कई नई चुनौतियाँ हमारी चेतना के समक्ष उपस्थित हुईं। बाज़ारवाद, मीडिया विस्फोट और सूचना तकनीकी के आगमन के कारण भाषिक-संवेदना के तार बिखरने लगे।</p>
<p>इन परिस्थितियों में हिन्दी कवि को इन चुनौतियों का सामना करते हुए वैकल्पिक और सम्पूर्ण भावबोध प्रस्तुत करना था। और, इस दशक की कविता ने यह किया भी। इस पुस्तक में इस दशक में सक्रिय महत्त्वपूर्ण कवियों पर अलग-अलग विचार करते हुए उस संक्रमण काल की कविताओं की मुख्य चिन्ताएँ और सरोकार रेखांकित किए गए हैं।</p>
<p>अरुण कमल, कुमार अम्बुज, अष्टभुजा शुक्ल, बोधिसत्व, एकान्त श्रीवास्तव, हरीशचन्द्र पांडे, स्वप्निल श्रीवास्तव निलय उपाध्याय, काव्यायनी, अनामिका, गगन गिल और नीलेश रघुवंशी के काव्य पर अलग-अलग अध्यायों में विस्तार से विचार करते हुए लेखक ने उस समय की सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि को भी समझने का प्रयास किया है।</p>
<p>कवियों के शिल्प और भाषा की संरचनात्मक विशेषताओं को रेखांकित करते हुए उन्होंने उनकी सीमाओं और सम्भावनाओं की तरफ़ भी संकेत किया है, और एक पूरे दशक की कविता के सम्पूर्ण को सरल रूप में प्रस्तुत किया है।
ISBN: 9788180317606
Pages: 196
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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मुक्तिबोध प्रथमत: और अन्तत: कवि थे। जिस तरह उन्होंने अपने विचार को कविता में लाने के लिए आन्तरिक संघर्ष किया, उसी तरह अपने जीवनानुभूतियों को भी अपनी कला में रूपान्तरित किया। उनका व्यक्तित्व जिन तत्त्वों से निर्मित हुआ है, उनके सरलीकृत, वर्गीकृत और सुविधावादी विश्लेषण से हम सही निष्कर्षों तक नहीं पहुँच सकते हैं।
इस पुस्तक का उद्देश्य मुक्तिबोध के लगभग मिथक बन चुके जीवन और व्यक्तित्व को खोलना नहीं, बल्कि समझना है। उनका काव्य और चिन्तन उनके व्यक्तित्व और जीवन से दूर-दूर तक प्रभावित है, लेकिन इस प्रभाव को किसी यांत्रिक रिश्ते के आधार पर रेखांकित करना न तो सम्भव है, और न उचित ही। उन्होंने अपने दु:ख को निजी मर्सिया की शक्ल में कहीं भी नहीं लिखा है, उनके जीवन में झाँककर उनकी कष्टपूर्ण स्थितियों को मानवीय पीड़ा के व्यापक रूप में कविताओं में देखना एक रोमांचक अनुभव है। यह पुस्तक मुक्तिबोध के जीवन और व्यक्तित्व की रेखाओं को उनके अन्तर्विरोधों सहित पहचानने का प्रयत्न करती है।
कवि चन्द्रकान्त देवताले मुक्तिबोध के जीवन और उनकी कविता में लम्बे समय से दिलचस्पी लेते रहे हैं; यह पुस्तक इसी का नतीजा है। अपनी भूमिका में वे कहते हैं : “मैं समझता हूँ मुक्तिबोध जैसे कवि और बेहद सचेत मनुष्य की कविताओं और उनके विचारों का आकलन एक और अन्तिम बार का कार्य नहीं है। कवि के प्रति अपने आत्मीय लगाव के साथ ही मैंने उन्हें समझने की कोशिश की। पर यह आत्मीय लगाव इस अर्थ में कहीं बन्धनकारी नहीं रहा कि मैं जो महसूस कर रहा हूँ, उसे कहने में संकोच करूँ।”
Jaishankar Prasad
- Author Name:
Nandulare Vajpeyi
- Book Type:

- Description: ‘जयशंकर प्रसाद’ सन् 1939 में प्रकाशित आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी की प्रारम्भिक कृति है जो नए संस्करण के साथ साहित्य प्रेमियों, छात्रों के लिए उपलब्ध है। इसमें प्रसाद जी पर लम्बी भूमिका के साथ पन्द्रह निबन्ध हैं। कथा-साहित्य, उपन्यास, काव्य और नाटकों पर प्रसाद जी के विराट व्यक्तित्व का यह समाकलन है। रचनाकार की अन्तःप्रेरणा, अनुसन्धान का परिचय इस पुस्तक में प्राप्त है। इस पुस्तक में कवि, कथाकार, नाटककार प्रसाद को सम्पूर्ण परिवेश में परखा गया है। एक व्यक्ति के इन विभिन्न रंगों में कितनी शालीनता, संस्कार, भाषागत सौष्ठव हमें प्राप्त है, इस पर विस्तृत विवेचन है। अतीत के विशाल चित्रफलक पर पचास वर्षों के लम्बे समय तक उनका साहित्य जगत पर एकच्छत्र एकाधिकार निःसन्देह गौरव का विषय है।
Hindi Gadya Lekhan Mein Vyangya Aur Vichar
- Author Name:
Suresh Kant
- Book Type:

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Description:
व्यंग्य क्या है? उसका हास्य से क्या सम्बन्ध है? वह एक स्वतंत्र विधा है या समस्त विधाओं में व्याप्त रहनेवाली भावना या रस? वह मूलतः गद्यात्मक क्यों है, पद्यात्मक क्यों नहीं? वह बैठे-ठाले क़िस्म की चीज़ है या एक गम्भीर वैचारिक कर्म? क्या व्यंग्यकार के लिए प्रतिबद्धता अनिवार्य है? यह प्रतिबद्धता क्या चीज़ है?...
ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो प्रायः पाठकों और समीक्षकों को ही नहीं, व्यंग्यकारों को भी स्पष्ट नहीं। उदाहरण के लिए, हरिशंकर परसाई व्यंग्य को विधा नहीं मानते थे। रवीन्द्रनाथ त्यागी पहले मानते थे, बाद में मुकर गए। शरद जोशी मानते थे, पर कहते हिचकते थे। नरेन्द्र कोहली मानते हैं और कहते भी हैं। ऐसे ही, कुछ व्यंग्यकार हास्य को व्यंग्य के लिए आवश्यक नहीं मानते, जो कुछ हास्य के बिना व्यंग्य का अस्तित्व नहीं मानते...
असलियत क्या है? इसे वही स्पष्ट कर सकता है, जो स्वयं एक अच्छा व्यंग्यकार होने के साथ-साथ कुशल समीक्षक भी हो। सुरेश कांत में इन दोनों का मणिकांचन संयोग है। अपनी इस प्रतिभा के बल पर उन्होंने अपने इस शोधपूर्ण कार्य में व्यंग्य के तमाम पहलुओं को उनके वास्तविक रूप में उजागर किया है। व्यंग्य का अर्थ, उसका स्वरूप, उसका प्रयोजन, उसकी पृष्ठभूमि, उसकी परम्परा, उसके तत्त्व, उसकी उपयोगिता आदि पर प्रकाश डालते हुए वे उसकी सम्पूर्ण संरचना उद्घाटित कर देते हैं, जिसके ‘अभाव’ के चलते परसाई को व्यंग्य विधा प्रतीत नहीं होता था। व्यंग्य की रचना-प्रक्रिया में वैचारिकता की भूमिका रेखांकित करते हुए वे व्यंग्य और विचार का सम्बन्ध भी स्पष्ट करते हैं। भारतेन्दु से लेकर अब तक के सम्पूर्ण हिन्दी-व्यंग्य-कर्म का ज़ायज़ा लेते हुए वे हिन्दी-व्यंग्य की ख़ूबियों और उसके समक्ष उपस्थित चुनौतियों को एक साथ प्रकट करते हैं।
आज एक ओर जहाँ व्यंग्य-लेखन एक ज़रूरी माध्यम के रूप में उभरा है, रचनात्मक-संवेदनात्मक स्तर पर उसका बहुआयामी विस्तार हुआ है, उसकी लोकप्रियता और माँग भी अपने चरम पर है, वहीं अधिकाधिक मात्रा और अल्पसूचना (शॉर्ट नोटिस) पर लिखे जाने के कारण उसकी गुणवत्ता प्रभावित होने का भारी ख़तरा भी मौजूद है। व्यंग्य चूँकि एक हथियार है, अतः उसका विवेकसंगत प्रयोग नितान्त आवश्यक है। हर किसी पर इस अस्त्र का उपयोग नहीं किया जा सकता। इसे किसी के पक्ष में प्रयुक्त करना है तो किसी के विरुद्ध। यह विवेक व्यंग्य के मूल में विद्यमान विचार से प्राप्त होता है। व्यंग्य विचार से पैदा भी होता है और विचार को पैदा भी करता है। इस वैचारिकता से दिशा प्राप्त कर मानवता के हित में व्यंग्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष सुनिश्चित करना आज व्यंग्यकारों का सबसे बड़ा कर्तव्य भी है और उनके समक्ष गम्भीर चुनौती भी—यही इस शोध का निष्कर्ष है।
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