Vibhajan Ki Asali Kahani
Author:
Narendra Singh SarilaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 399.2
₹
499
Available
सत्ता एवं विश्वासघातों का एक आख्यान—जो उद्घाटित करता है कि विभाजन के समय अंग्रेज़ों के वास्तविक उद्देश्य क्या थे, और किस प्रकार भारतीय नेतृत्व उनसे मात खा गया।
भारत के विभाजन एवं अंग्रेज़ों की आशंकाओं के मध्य निर्णायक कड़ी थी—सोवियत रूस का मध्य-पूर्व में ऊर्जा के (तैल) कूपों पर नियंत्रण, जिस पर इतिहासकारों एवं विश्लेषकों ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। ब्रिटिश नेताओं ने जब अनुभव कर लिया कि भारतीय राष्ट्रवादी नेता सोवियत यूनियन के विरुद्ध महाखेल में उनका सहयोग नहीं करेंगे, उन्होंने ऐसी परिस्थिति तैयार करने की सोची कि वे उनसे अपने मन्तव्य को पूरा करा लें। इस प्रक्रिया में, वे अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु ‘इस्लाम’ का राजनीतिक इस्तेमाल करने में भी नहीं हिचके। कैसे एक सघन धूम्रपट के पीछे इस योजना की कल्पना की गई और कैसे इसे कार्यान्वित किया गया—यही सब इस ‘विभाजन की असली कहानी’ की विषयवस्तु है।
लेखक द्वारा खोज निकाले गए अतिगोपनीय दस्तावेज़ी सबूत महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना, लॉर्ड लुइस माउंटबेटन, विंस्टन चर्चिल, क्लीमेंट एटली, लॉर्ड आर्चिबाल्ड वेवल, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, सरदार पटेल, वी.पी. मेनन एवं कृष्णा मेनन जैसी कई विशिष्ट हस्तियों पर नई रोशनी डालते हैं। पुस्तक की विषयवस्तु उन अल्पज्ञात तथ्यों को भी प्रकाश में लाती है जिनका सम्बन्ध अमेरिका द्वारा एक नई उत्तर-औपनिवेशिक विश्व-व्यवस्था विकसित करने की आशा में सहयोग के अतिरिक्त, भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में ब्रिटेन पर बनाए गए अप्रत्यक्ष दबाव से है। लेखक ने वर्तमान कश्मीर समस्या के मूल कारणों और संयुक्त राष्ट्र में इस मामले पर हुए विचार-विमर्श की रूपरेखा भी यहाँ प्रस्तुत की है।
यह समयोचित पुस्तक वर्तमान भारतीयों के लिए एक चेतावनी है कि वे उस अति आदर्शवाद, अतिगर्व एवं पलायनवाद से बचें जिसके शिकार उनके कुछ पूर्वज हुए।
ISBN: 9789395737586
Pages: 407
Avg Reading Time: 14 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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Description:
‘वैदहि ओखद जाणै’ पुस्तक में मीरां को उसकी अपनी सांस्कृतिक पारिस्थितिकी से अलग, पश्चिमी विद्वत्ता के सांस्कृतिक मानकों पर समझने-परखने के प्रयासों की पड़ताल है। पश्चिमी विद्वत्ता से मीरां का सम्बन्ध उपनिवेशकाल से ही है। कर्नल जेम्स टॉड ने मीरां को ‘रहस्यवादी संत-भक्त और पवित्रात्मा कवयित्री’ की पहचान दी, जबकि जर्मन विद्वान् हरमन गोएत्ज़ ने ख़ास पश्चिमी नज़रिये से उसके जीवन की पुनर्रचना की। फ्रांसिस टैफ़्ट सहित कुछ पश्चिमी विद्वानों ने उसके जीवन को ‘किंवदंती’ में सीमित कर दिया, जबकि स्ट्रैटन हौली खींच-खाँचकर उसकी कविता के विरह को भारतीय समाज की कथित लैंगिक असमानता में ले गए। विनांद कैलवर्त, स्ट्रैटन हौली आदि ने मीरां को बहुत मनोयोग से पढ़ा-समझा, लेकिन उन्होंने उसकी कविता को पांडुलिपीय प्रमाणों के अभाव, भाव विषयक बहुवचन और भाषा सम्बन्धी वैविध्य के कारण कुछ हद तक अप्रामाणिक ठहरा दिया।
टॉड का कैनेनाइजेशन औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के विस्तार व स्थिरता और व्यापक नीति का हिस्सा था, जबकि हरमन गोएत्ज की मीरां के जीवन की पुनर्रचना पश्चिमी मनीषा के जीवन को देखने-समझने के विभक्त नज़रिये का नतीजा है। मीरां की पहचान और मूल्यांकन में प्रयुक्त अन्य कसौटियों—‘ऑथेंटिक’, एकरूपता, संगति आदि का भी दरअसल मीरां के जीवन और कविता की पहचान और मूल्यांकन में इस्तेमाल बहुत युक्तिसंगत नहीं है। पश्चिम का सांस्कृतिक बोध अलग प्रकार का है, क्योंकि इसका विकास चर्च के अनुशासन में हुआ है, जबकि भारतीय सांस्कृतिक बोध इस तरह के किसी अनुशासन से हमेशा बाहर, स्वतंत्र रूप से विकसित हुआ। भक्ति आन्दोलन तो भारतीय मनीषा की स्वातंत्र्य चेतना का विस्फोट है और स्वतंत्रता हमेशा बहुवचन में ही चरितार्थ होती है। मीरां की कविता भी इसीलिए श्रुत और स्मृत पर निर्भर ‘जीवित’ कविता है और इसका स्वर बहुवचन है।
इस पुस्तक में मीरां सम्बन्धी पश्चिमी विद्वत्ता की इन धारणाओं का प्रत्याख्यान है। यह प्रत्याख्यान इसलिए ज़रूरी है कि आम भारतीय मीरां के सम्बन्ध में अपनी सदियों से चली आ रही धारणाओं के प्रति मन में किसी संशय को जगह देने से पहले विचार करें।
Purabiyon Ka Lokvritt Via Des-Pardes
- Author Name:
Zilani Bano
- Book Type:

- Description: एक गतिशील सांस्कृतिक संरचना है। वस्तुत: यह उस सामूहिक विवेकशील जीवन-पद्धति का नाम है जो सहज, सरल और भौतिकवादी होने के साथ-साथ अपनी जीवन्त परम्पराओं को अपने दैनिक जीवन के संघर्ष से जोड़ती चलती है। यह लोकमानस को आन्दोलित करने का सामर्थ्य रखती है। एक समाजशास्त्रीय अवधारणा के रूप में उसे समझने की चेष्टाएँ अक्सर उसकी अन्दरूनी गतिशीलता और परिवर्तनशीलता की अनदेखी करती चलती हैं। इसके चलते यह मान लिया जाता है कि लोकसंस्कृति प्राक्-आधुनिक समाज की संस्कृति है और इस समाज के विघटन के साथ लोक को भी अन्तत: विघटित होना ही है। समाजविज्ञानों के पास एक ऐसे लोक की कल्पना ही नहीं है जो आधुनिकता के थपेड़े खाकर भी जीवित रह सके। सच्चाई यह है कि वास्तविकता के धरातल पर लोक न सिर्फ़ विद्यमान है बल्कि अपार जिजीविषा के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव के साथ क़दम मिलाते हुए वह निरन्तर अपने को बदलने का प्रयत्न भी कर रहा है। लोक का सामना कामनाओं की बेरोक-टोक स्वतंत्रता पर आधारित जिस भोगमूलक संस्कृति से हो रहा है, उसके पीछे साम्राज्यवाद की अनियंत्रित ताक़त भी है। यह किसी भी समाज की बुनियादी मानवीय आकांक्षाओं को नकारकर अपने निजी हितों के अनुकूल, उसकी प्राथमिकताओं को मोड़ने में समर्थ है। इस पुस्तक में पूरबिया संस्कृति के अनुभवाश्रित विश्लेषण, उसकी जिजीविषा और कामकाज के सिलसिले में स्थानान्तरण के परिप्रेक्ष्य में उसके सामने मौजूद चुनौतियों का अध्ययन किया गया ह
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