Mithila Ki Ranbhumi
Author:
Sunil Kumar "Bhanu"Publisher:
ESAMAAD PRAKASHANLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 249
Unavailable
“मिथिला की चर्चा होते ही यहाँ के ज्ञान की चर्चा शुरू हो जाती है । सैन्य इतिहास पर बौद्धिक इतिहास हावी हो जाता है । जबकि मिथिला एक से बढ़कर एक युद्ध की साक्षी रही है । इसकी कोख से एक से एक वीर-योद्धाओं का जन्म हुआ, जो न केवल मिथिला की सीमा के रक्षार्थ लड़े, अपितु भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर अपने मित्र शासकों के लिये अपराजेय युद्ध किया ।
इन मैथिलों की शौर्य-गाथा की चर्चा शायद ही किसी इतिहासकार ने खुलकर की है। मिथिला में मैथिलों द्वारा लड़े गये युद्ध का मतलब कंदर्पीघाट की लड़ाई या बल्दिबाड़ी की लड़ाई तक सीमित है । मैथिल योद्धाओं को इतिहास लेखन में पूरी तरह हाशिये पर डाल दिया गया है, इनकी शौर्य गाथा समाज की यादों से विलुप्त होती जा रही है ।
इस पुस्तक उन्ही योद्धाओं के शौर्य गाथा को आप तक लाने का प्रयास है । विदेह से लेकर खण्डवला राजवंश तक के युद्ध इतिहास को इसमें दिखाने का प्रयास किया गया है । यह पुस्तक एक दस्तावेज ही नहीं बल्कि सुधी पाठकों के लिए उनके शक्तिशाली अतीत का एक सम्पूर्ण ज्ञानकोष भी साबित होगा ।”
ISBN: 9788194984566
Pages: 138
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Vibhuti Narayan Rai
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- Description: साम्प्रदायिक दंगों को प्रशासन की एक बड़ी असफलता के रूप में लिया जाना चाहिए। हाल के वर्षों में इस विषय पर एक व्यापक समझ तैयार करने में पूर्व पुलिस अधिकारी व प्रतिष्ठित लेखक विभूति नारायण राय का यह अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है। श्री राय ने यह अध्ययन नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के लिए एक वर्ष के गहन परिश्रम के बाद पूरा किया था। दुर्भाग्य से, इसकी कुछ स्थापनाओं को छिपाने–दबाने की कोशिश भी की गई। इसको प्रकाश में लाने का श्रेय नेशनल अकेडमी ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेशन, मसूरी को जाता है, जिसने इसे सबसे पहले प्रकाशित किया। मेरी राय है कि प्रशासन और पुलिस के तमाम अधिकारियों के लिए इस पुस्तक का पठन–पाठन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। —पदम रोशा, पुलिस महानिदेशक (सेवानिवृत्त) साम्प्रदायिक दंगों के दौरान पुलिस–व्यवहार पर यह एक ठोस, विश्वसनीय और आधिकारिक अध्ययन है–––लेखक का यह कहना एकदम सही है कि पुलिस में काम करनेवाले लोग उसी समाज से आते हैं जिसमें साम्प्रदायिकता के विषाणु पनपते हैं, उनमें वे सब पूर्वग्रह, घृणा, सन्देह और भय होते हैं जो उनका समुदाय किसी दूसरे समुदाय के प्रति रखता है। पुलिस में भर्ती होने के बावजूद वे ख़ुद को अपने ‘सहधार्मिकों’ के ‘हम’ में शामिल रखते हैं और दूसरे समुदाय को ‘वे’ मानते रहते हैं। —ए.जी. नूरानी (‘फ़्रंटलाइन’ में) गृह मंत्रालय और पुलिस ब्यूरो ऑफ़ रिसर्च एंड डेवलपमेंट तथा अपने सर्वेक्षण से प्राप्त आँकड़ों के विस्तृत विश्लेषण पर आधारित यह शोध बताता है कि प्रत्येक दंगे के 80 प्रतिशत शिकार मुस्लिम होते हैं और जो लोग गिरफ़्तार किए जाते हैं, उनमें भी लगभग 90 प्रतिशत अल्पसंख्यक ही होते हैं। श्री राय के अनुसार, ‘‘यह तर्क–विरुद्ध है। अगर 80 प्रतिशत शिकार मुस्लिम हैं तो होना यह चाहिए कि गिरफ़्तार लोगों में 70 प्रतिशत हिन्दू हों। लेकिन ऐसा कभी होता नहीं है।’’ —सिबल चटर्जी (‘आउटलुक’ में)
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