Meri Unesco Yatra
Author:
Ramesh Pokhriyal 'Nishank'Publisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
General-non-fiction0 Reviews
Price: ₹ 238.4
₹
298
Unavailable
"यूनेस्को या संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन विभिन्न देशों, समुदायों, संस्कृतियों और नागरिकों के बीच मानवीय मूल्यों की स्थापना को संभव बनाने के लिए एक सशक्त एवं व्यापक मंच प्रदान करता है। यूनेस्को का प्रमुख उद्देश्य शांति स्थापना, गरीबी उन्मूलन, सतत विकास और शिक्षा के माध्यम से विज्ञान, संस्कृति, संचार और सूचना के क्षेत्र में योगदान करना है।
यूनेस्को के लक्ष्यों के केंद्र में अब प्राकृतिक विज्ञान और पृथ्वी के संसाधनों का प्रबंधन भी आ चुके हैं। इसके अंतर्गत विकसित और विकासशील देशों में संसाधन प्रबंधन और आपदा स्थिरता में सतत विकास प्राप्त करने के लिए पानी और पानी की गुणवत्ता, महासागर की रक्षा और विज्ञान तथा इंजीनियरिंग प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देना शामिल है।
भारत में मानव कल्याण संदर्भित चिंतन हजारों वर्ष पुराना है। हमारे वेदों, शास्त्रों एवं अन्य ग्रंथों में शासन करनेवालों को धर्म के आधार पर आचरण करने का परामर्श दिया गया है। इस दृष्टि से देखें तो सामाजिक और मानव विज्ञान पर ध्यान केंद्रित करते हुए यूनेस्को भी बुनियादी मानव अधिकारों के संरक्षण और संवर्धन को न केवल बढ़ावा देता है, बल्कि भेदभाव और नस्लवाद से लड़ने के लिए पूरे विश्व को तैयार करता है।
मानव कल्याण के लिए सतत सक्रिय यूनेस्को की भूमिका, उसके कार्य-क्षेत्र, प्रभाव और संभावनाओं के विषय में प्रामाणिक जानकारी देती रोचक एवं पठनीय कृति।
ISBN: 9789390366989
Pages: 168
Avg Reading Time: 6 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: कहानियाँ अंतर्मन की वेदनाओं, समाज में फैली कुरीतियों, अंधविश्वास और अन्याय तथा राग-द्वेष को उजागर करते हुए सचेत करती हैं, सही मार्ग प्रशस्त करती हैं। हमारा देश कृषि प्रधान और ग्रामों का समूह है। इसमें निवास करनेवाला वर्ग प्रारंभ से ही शोषित रहा है। किसानों की स्थिति दयनीय रही और आज भी है। पहले से ग्राम्य जीवन में बहुत बदलाव आए हैं। किसानों और खेतिहर मजदूरों की स्थिति सुधारने के लिए शासन द्वारा अनेक योजनाएँ चलाकर उनके उत्थान के प्रयास किए जा रहे हैं, किंतु बुनियादी परिवर्तन नहीं हो पा रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि नीचे से ऊपर शासन और प्रशासन जिन भावनाओं के साथ योजनाएँ बनाते हैं, उनका क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। लालची और भ्रष्ट लोगों की जो शृंखला बनी हुई है, उसको तोड़ पाना कठिन हो रहा है। वे प्रत्येक मार्ग में अवरोध और अड़ंगे लगाने के विकल्प ढूँढ़ लेते हैं। तू डाल-डाल, मैं पात-पात—इसी साँप-सीढ़ी के खेल में कृषक, मजदूर तथा असहाय वर्ग फँसे हुए हैं। उनके द्वारा भोगे जा रहे यथार्थ का चित्रण ग्राम्य जीवन की इन कहानियों में समाहित है। ग्रामीण परिवेश और देहात में किसान एवं आम जन को होने वाली कठिनाइयों, विसंगतियों, ज्यादतियों एवं उत्पीड़न को कहानियों के माध्यम से सामने लानेवाला यह कहानी-संग्रह ‘चलें गाँव की ओर’ रोचक-मनोरंजक तो है ही, पाठकों के मन को उद्वेलित करनेवाला भी है।
Cheen Mein Darshanshastra
- Author Name:
G. Ramkrishna
- Book Type:

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Description:
‘दर्शनशास्त्र : पूर्व और पश्चिम’ ग्रन्थमाला की यह दूसरी पुस्तक है जिसमें विश्व की एक प्राचीनतम दार्शनिक धारा का परिचय प्रस्तुत किया गया है।
चीन में दर्शन की परम्परा यों तो बहुत पुरानी है, लेकिन ईसा-पूर्व की पाँचवीं से तीसरी शताब्दी का काल दार्शनिक चिन्तन की दृष्टि से समृद्धि का काल माना जाता है। कन्फ्यूशियस का चिन्तन इसी काल की देन है। तब से लेकर कुछ शताब्दी पहले तक इस देश में अनेक दार्शनिक मतवाद अस्तित्व में आए। प्रस्तुत पुस्तक में इन सभी मतवादों की पृष्ठभूमि स्पष्ट करने के लिए अनेक सदियों के कालक्रम में चीन के राजवंशों की एक संक्षिप्त रूपरेखा दी गई है। उसके बाद विभिन्न सम्प्रदायों के सिद्धान्तों और उनके सामाजिक-राजनीतिक निहितार्थों का विवेचन किया गया है। चीन में बौद्ध मत का आगमन एक महत्त्वपूर्ण घटना थी, जिसके फलस्वरूप चिन्तन के क्षेत्र में कई धाराओं-उपधाराओं का जन्म हुआ। चीनी दर्शन में चूँकि इन धाराओं-उपधाराओं का विशेष महत्त्व है, इसलिए लेखक ने ख़ास तौर पर इनका विश्लेषण और इनके दार्शनिक लक्ष्यों का मूल्यांकन किया है। इसी प्रकार, इन्होंने एक ओर महिमामंडित कन्फ्यूशियस को एक सटीक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में स्थापित किया है तो दूसरी ओर लांछित ताओवाद की एक सुबोध व्याख्या भी दी है।
चीनी दर्शन के अनेक सम्प्रदायों का मत रहा है कि दर्शनशास्त्री होने के लिए हर समय तत्त्वमीमांसा के गूढ़ रहस्यों में उलझे रहना आवश्यक नहीं है। इसी प्रकार हमारा भी विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक को पढ़ने और समझने के लिए दर्शन का पंडित होना आवश्यक नहीं है। थोड़े-से पृष्ठों में चीनी दर्शन का एक व्यापक, फिर भी सुबोध, परिचय इस पुस्तक की विशेषता है, और आशा की जा सकती है कि इससे विशेषतः भारतीय और चीनी दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन की प्रेरणा प्राप्त होगी।
Band Galiyon Ke Virudh
- Author Name:
Mrinal Pande
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- Description: गली तो चारों बन्द भई हैं, हरि से कैसे मिलूँ री जाय? ऊँची नीची राह रपटीली पाँव नहीं ठहराय, सोच–सोच पग धरूँ जतन से बार–बार डिग जाय... — मीराबाई ‘‘बीस साल पहले बसमतिया थी, बीस साल बाद भँवरीबाई है। कितना साम्य है बसमतिया और भँवरीबाई में। फिर भी कितना फ़र्क़ है...दोनों ग़रीब, दोनों दलित, दोनों एक ही अपराध (बलात्कार) की शिकार। दोनों ने गाँव के फ़ैसले को मानने से इनकार किया। एक ज़िन्दा जला दी गई, एक ने दोबारा जीवन शुरू किया। कितने स्नेह, शोक, अपमान, सम्मान, दु:ख, सुख के बाद एक औरत इंसान बनकर खड़ी हो पाती है, और बसमतिया से भँवरीबाई तक का स़फ़र तय होता है।’’ मणिमाला : ‘एक सफ़र—बसमतिया से भँवरीबाईं’ तक में यह जो सफ़र बसमतिया से भँवरीबाई तक ने बीस बरसों में तय किया, उससे भी बड़ा और दुरूह सफ़र वह है, जो हमारी महिला–पत्रकारों, लेखिकाओं ने तय किया है; मीराबाई से लेकर मणिमाला तक। यह संकलन इंडियन वीमेंस प्रेस कोर की एक विनम्र कोशिश है, उस सफ़र को अपने–अपने ढंग से आज भी तय कर रही लेखिकाओं की कलम से प्रस्तुत करने की। इस सफ़र में हास्य भी है, करुणा भी; आक्रोश भी है, और क्षमा भी| ‘‘कृष्ण कली तब हर साहित्यिक घर की किराएदारिन थी। उसके देर से घर लौटने का इन्तज़ार हर मकान मालिक करता था और मैं करती थी अख़बार वाले का इन्तज़ार। उन दिनों मेरा कोई घर नहीं था, जहाँ मैं ‘कृष्ण कली’ को रखती, सो उसे मैंने रखा था अपनी पलकों पर।’’ — पद्मा सचदेव ‘शब्दों का हरसिंगार’ में जिस समाज में जनगणना–दर–जनगणना औरतों और बच्चियों की तादाद लगातार घट रही हो; जहाँ निरोधी–क़ानूनों के बावजूद दहेज–उत्पीड़न जारी हो, और गर्भजल–परीक्षण (अम्नीयोसेंटेसिस) तकनीक की मदद से कन्या–भ्रूणों की गर्भपात द्वारा हत्या की जा रही हो, वहाँ एक स्त्री के लिए न सिर्फ़ अपने वजूद को कायम रखना, बल्कि देश के कोने–कोने में घट रहे सकारात्मक और नकारात्मक बदलावों को लेखन और पत्रकारिता की मुख्यधारा में दर्ज कराते चलना; क़ुदरत के महानतम अचम्भों में से एक माना जाना चाहिए। ग्रन्थ में संकलित इन लेखों की कमानी स्वतंत्रता के बाद के भारत के पूरे पचास–साला इतिहास को अपनी तरह से मापती है। इसमें ‘बच्चों की दुनिया’ (मृदुला गर्ग, पारुल शर्मा), ‘आदिवासी तथा दलित औरतों की संघर्ष–गाथा’ (इरा झा, मणिमाला, मनीषा), ‘आतंकवाद तथा शराब के मुद्दों से जूझती महिलाओं का जीवट’ (अमिता जोशी और सुषमा वर्मा), ‘पंचायतों, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक आन्दोलनों में स्त्रियों की भागीदारी’ (अन्नू आनन्द, अलका आर्य, गीताश्री), ‘चुनावों में उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति’ (नीलम गुप्ता), ‘देह व्यापार’ (उषा महाजन), ‘स्त्रियों के जीवन में तनाव तथा हिंसा’ (जयन्ती, उषा पाहवा, मीना कौशिक), ‘लिंगगत ग़ैर–बराबरी के विभिन्न सामाजिक–आर्थिक मंच’ (रजनी नागपाल, रश्मिस्वरूप जौहरी) तथा ‘फ़िल्म, ललित कलाएँ तथा युवाओं की समस्याएँ’ (मंजरी, सन्तोष मेहता, सरोजिनी बर्तवाल)—सभी विषय समेटे हुए हैं। माँ को हमारे यहाँ भले ही आदि–गुरु कहा जाता हो, औपचारिक तौर पर इतिहास–लेखन पर पुरुषों का ही दबदबा रहा है। इसलिए शायद अनजाने में ही हमारे समाज और राज में औरतों की सशक्त भागीदारी की कहानियाँ अक्सर इतिहास की किताबों से बेदख़ल होती रही हैं। नतीजतन ख़ुद औरतों को अपनी जमात की सही तस्वीर, राज–काज और समाज के निर्वहन में उनकी भूमिका समझ पाने में वक़्त लगा है | ‘‘समाज के शिल्पकारों ने औरत के ज़हन में पुरुष की वीरता, ताक़त की ऐसी शौर्यगाथाएँ लिखीं कि उसके दिमाग़ में कभी यह सवाल कौंधा ही नहीं कि सिर्फ़ हमारे पूर्वज पिताजी ने ही नहीं, हमारी पूर्वजा माँओं ने भी इतिहास रचा है...’’ —अलका आर्य : ‘वीरता कोई ख़ुशबू नहीं’ में ...‘‘कथा लेखिकाओं से शायद उत्सुकतावश ही यह अवश्य पूछा जाता है कि उन्होंने लिखना कैसे शुरू किया। अच्छे–ख़ासे बैठे–बिठाए उन्हें क्या पड़ी थी कि वे लेखिका बन बैठीं?’’ — उषा महाजन : ‘पुरुष के समाज में महिला लेखिकाएँ’ में ‘‘हशमत सख़्त हो गए। याद रख प्यारे, लिखना वह धन्धा नहीं कि अगर तुमने पचास लाख कमाए हैं तो हमने पाँच करोड़...तुम इतना कड़ा दाना हो कि चाहो भी तो आत्महत्या न कर पाओगे। तुम डरकर भागनेवालों में से नहीं हो।...’’ — कृष्णा सोबती : ‘हम हशमत’ में।
Prakriti Ka Dwandwavad
- Author Name:
Friedrich Engels
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Description:
उन्नीसवीं सदी के आरंभ में, और उससे भी अधिक मध्यकाल में, गणित, ज्योतिष, भौतिकी, रसायन तथा जीव-विज्ञान के क्षेत्र में आविष्कारों और उपलब्धियों का एक तांता-सा लग गया था। नए तथ्यों और प्राकृतिक नियमों की स्थापना हुई, नए सिद्धांतों तथा नई परिकल्पनाओं का बीजारोपण हुआ, और विज्ञान के नए उपांग अस्तित्व में आए।
एंगेल्स ने दिखाया कि प्राकृतिक विज्ञान की उस विजय-यात्रा में तीन सर्वोपरि उत्कर्ष हैं–जैव कोशिका की खोज, ऊर्जा की अविनाशिता, रूपांतरण के नियम की खोज और डार्विनवाद। सन् 1838 तथा 1839 ई. में मत्थियस याकोब श्लेईडैन और थियौडोर श्वान ने वनस्पति एवं पशु कोशिकाओं की एकरूपता सिद्ध की। उन्होंने सिद्ध किया कि कोशिका जीवधारियों की मूल रचना-इकाई है, और उन्होंने आंगिक संरचना के एक सांगोपांग कोशिका सिद्धांत की स्थापना की। इस प्रकार उन्होंने जीव-जगत की एकता को प्रमाणित किया। सन् 1842 और 1847 के बीच के काल में जुलियस मायर, जैम्स जूल, विलियम ग्रोव, एल.ए. कोल्डिंग और हरमान हैल्महोल्ट्ज ने ऊर्जा की अविनाशिता तथा रूपांतरण के नियम की खोज करके इसे प्रमाणित किया। परिणामतः प्रकृति का उद्घाटन एक ऐसी अविरत प्रक्रिया के रूप में हुआ जिसमें द्रव्य की एक प्रकार की सर्वव्यापी गति दूसरे प्रकार में बदलती रहती है। 'प्रकृति का द्वंद्ववाद' में जिन विषयों का समावेश है, उनकी रचना एंगेल्स ने 1873 से 1886 ई. तक के काल में की थी। प्रकृति विज्ञान के इतिहास, विशेषतः पुनर्जागरण से उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल तक के इतिहास से, पर्याप्त साक्ष्य लेकर एंगेल्स ने दर्शाया है कि प्रकृति विज्ञान का विकास अंततोगत्वा व्यावहारिक आवश्यकताओं से, उत्पादन से, निर्धारित होता है।
हिन्दी में इस पुस्तक की लम्बे समय से प्रतीक्षा थी लेकिन इसके जटिल पाठ के चलते किसी ने इसके अनुवाद का साहस नहीं किया। विज्ञान और प्रगतिशील सोच के हिमायती गुणाकर मुळे ही ऐसे व्यक्ति थे, जो इस पुस्तक की अहमियत को समझते थे और अनुवाद में इसके साथ न्याय कर सकते थे! कुछ पृष्ठों का जो अनुवाद वे किसी कारणवश नहीं कर पाए थे, वह बाद में कराया गया और पूरी पांडुलिपि को व्यवस्थित किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में और पांडुलिपि को प्रकाशन योग्य स्थिति तक लाने में श्रीमती शांति गुणाकर मुळे की भूमिका उल्लेखनीय रही है।
आधारभूत मार्क्सवादी साहित्य में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए यह पुस्तक अमूल्य है।
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