Adbhut Ganitajna : Srinivas Ramanujan
Author:
Bhu Dev Sharma, Narendra GovilPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Unavailable
"अद्भुत गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन के जीवन और कृतित्व दोनों से परिचय प्राप्त करना किसी को भी मानव प्रतिभा की संभावनाओं के संबंध में चमत्कृत करने के लिए पर्याप्त है। गणित के क्षेत्र में विश्व में कदाचित् ही कोई व्यक्ति रामानुजन के नाम से अपरिचित होगा।
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विश्वास है, प्रस्तुत पुस्तक पढ़कर पाठकगण श्रीनिवास रामानुजन के कृतित्व से न केवल परिचित होंगे, बल्कि प्रेरणा भी ग्रहण करेंगे।
"
ISBN: 9789351864950
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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जमशेत जी नुसीरवान जी टाटा का जन्म 1889 में हुआ था। उनके जीवनकाल में भारत अंग्रेज़ों के शिकंजे में कसा रहा। फिर भी उनके द्वारा परिकल्पित परियोजनाएँ देश के आज़ाद हो जाने पर उसके विकास का आधार बनीं। अपनी प्रकृति से असाधारण होते हुए भी ये संस्थान अपने-अपने क्षेत्रों में दूसरों के लिए आदर्श बने हुए हैं। उनकी ढेर सारी उपलब्धियों में देश के कुछ बेहतरीन वैज्ञानिकों को तैयार करनेवाला बेंगलूर का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस; जमशेदपुर स्थित टाटा इस्पात संयंत्र, जो कि देश के व्यापार से विनिर्माण में संक्रमण करने का द्योतक है; उनकी पथ-प्रदर्शक पनबिजली परियोजना और दुनिया के लाजवाब होटलों में से एक मुम्बई का ताजमहल होटल शामिल है।
अपने हाथ में लिए अन्य कामों की भाँति जमशेत जी ने इन परियोजनाओं में एक ऐसे व्यक्ति की अमोघ नैसर्गिक वृत्ति को प्रकट किया जिसे पता था कि पराधीन राष्ट्र के गौरव की बहाली कैसे की जाए। उन्होंने देश की आज़ादी के बाद उसे दुनिया के अग्रणी राष्ट्रों में स्थान पाने में मदद की।
ये परियोजनाएँ जिस बड़े पैमाने की थीं, उसके लिए बहुत दम-गुर्दे की आवश्यकता थी। कुछ मामलों में तो बस लगे रहने की ज़िद थी जो कि रंग लाई—जैसे कि इस्पात परियोजना के लिए उपयुक्त जगह की तलाश करने का मामला असीम धैर्य के कारण हल हुआ। दूसरे मामलों में, जैसे—इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस में मान-मनुहार करने का उनका लाजवाब कौशल और धैर्य ही था जिसने आख़िरकार शंकालु वाइसराय लॉर्ड कर्जन से उन्हें मंजूरी दिलवाई।
‘भारत से प्यार’ में आर.एम. लाला ने जमशेत जी और उनके समय के जीवन्त चित्रण के लिए लन्दन की इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी और दूसरे अभिलेखागारों की नवीन सामग्री के साथ-साथ उनके पत्रों का उपयोग किया। यह एक महत्त्वपूर्ण लेखा-जोखा है जो स्पष्ट कर देता है कि जशमेत जी की उपलब्धि वाक़ई मानीखेज़ थी और उनकी मृत्यु के सौ साल बाद भी ऐसा क्यों जान पड़ता है कि वे अपने समय से बहुत आगे थे।
kabaadkhana
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Gyanranjan
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यह आश्चर्यजनक है कि ‘लौट आ जो धार’ में दूधनाथ सिंह ने ज्ञानरंजन के शिल्प की तुलना सुमित्रानन्दन पन्त से की है और बताना चाहा है कि कुछ दूर तक चलने के बाद ज्ञानरंजन अमूर्त दार्शनिकता में फँस जाते हैं। ज्ञानरंजन की कहानियाँ पढ़ने में तो ऐसा कुछ नहीं लगता। उत्सुकतावश उनकी गद्य रचनाओं के संकलन ‘कबाड़खाना’ को पढ़ा कि शायद यहाँ ऐसा कुछ दिख जाए, लेकिन यहाँ भी ज्ञानरंजन वही हैं–वही सीधी बात करने की जवाँमर्दी, वही सच्चाई का गुरूर। विचारधारा का आग्रह है, मार्क्सवाद का आग्रह है, पर फटी लंगोट बचाने जैसा आग्रह नहीं है, यह लड़ाई को दुश्मन के घर में घुसकर लड़ने का आग्रह है। संग्रह के हिसाब से यह एक बेतरतीब-सा संग्रह है। इसमें संस्मरण हैं, व्याख्यान हैं, सम्पादकीय हैं, रचनात्मक निबन्ध हैं, साक्षात्कार हैं, अखबारी टिप्पणियाँ हैं, और तो और, एक उपन्यास- अंश और काशीनाथ सिंह के नाम लिखा एक पत्र भी है, लेकिन ये सारी की सारी गद्य रचनाएँ मिलकर इस प्रदर्शनप्रिय समय में एक जीवन्त प्रतिवाद का निर्माण करती हैं। ये उसी ‘जेनुइन’ बेचैनी और छटपटाहट का मूर्त रूप बनती हैं, जो साठोत्तरी पीढ़ी की पहचान थी और उससे भी ज्यादा बेचैनी और छटपटाहट आज सर्वत्र मौजूद होने के बावजूद आज की साहित्यिक पीढ़ी की पहचान नहीं है।
‘कबाड़खाना’ पढ़ना दिलचस्प है और इसका हर शब्द झकझोरने वाला है। काफी हद तक यह ज्ञानरंजन के द्वारा कहानी न लिखने या न के बराबर लिखने की भरपाई करता है। यहाँ, ‘राजा हो, तुमने बुढ़ौती में चंचल प्यार कर मारा’ जैसे स्वतःस्फूर्त वाक्य है जो लाख गढ़न के बावजूद कहानियों में भी मुश्किल से ही मिलते हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि इसमें वह बेचैनी है जो सांस्कृतिक हमले और सतहीपन के इस दौर में हमारी भाषा और समाज को बेबस मौत से बचाएगी। सफाई देना ज्ञानजी की फितरत वैसे भी नहीं है लेकिन हिन्दी पाठकों की सन्तुष्टि तब होगी, जब वे ‘कबाड़खाना’ के ही मानदण्डों पर अपनी खास विधा में कुछ लेकर आएँ।
–चन्द्रभूषण
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