Cycle Se Duniya Ki Sair
Author:
Bimal DeyPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Travelogues0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Unavailable
बांग्ला के विख्यात यात्रा-वृत्तकार एवं यात्री-पर्वतारोही बिमल दे की यह पुस्तक उनके सबसे साहसी यात्रा-अभियान पर केन्द्रित है। पाँच वर्षों में पूरी हुई यह यात्रा उन्होंने साइकिल से की थी।</p>
<p>वर्ष 1967 में कोलकाता से शुरू हुआ उनका यह सफ़र ईरान, तुर्की, रूस, अफ़गानिस्तान, इराक, सूडान, मिस्र, इटली, स्विट्जरलैंड, स्पेन, मोरक्को, फ्रांस, अमेरिका आदि देशों और उनके प्रमुख शहरों से होते हुए 1972 तक जारी रहा।</p>
<p>बांग्ला में ‘सुदूरेर पियासी’ नाम से प्रकाशित और अत्यन्त चर्चित इस पुस्तक में बिमल दे ने अपने उन अनुभवों को अंकित किया है जिनका उनकी चिन्तन-धारा पर दीर्घकालीन प्रभाव पड़ा।</p>
<p>विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों, जीवन-शैलियों और प्रकृति के अनेकानेक रूपों को एक सजग आँख से दिखाती यह पुस्तक हमारी सोच और जीवन-दृष्टि को भी विस्तृत करती है, और विविधता से परिपूर्ण इस विशाल संसार में रहने व जीने का सलीका देती है।
ISBN: 9788119133390
Pages: 280
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
तिब्बत की रहस्यमयी भैरवी माताजी के निर्देश पर कैलासबाबा की खोज में मैं गया था चौरासी महासिद्ध श्मशान और फिर पार किया पाप-परीक्षा-पत्थर। पुण्यभूमि शिवस्थल, कैलासनाथ के चरण-कमल में बैठकर चित्ताकाश में पाया था नर्मदा नाम, किन्तु हाय, गँदले मन की स्थिरता के अभाव में उस महासत्य को न जान पाया। इशारा पाने के बावजूद आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में मन में आए उस आकस्मिक विचार को पकड़कर नहीं रख पाया। मेरी राय में ज्ञानगंज के एक भिखारी लामा ही ज्ञानीगुरु थे, जिन्होंने मुझे देखते ही मन्तव्य दिया था कि मेरा मन ही है 'गँदला पानी'। शिवस्थल के स्थान माहात्म्य के प्रभाव में चित्ताकाश के नर्मदा नाम को मैं प्रश्रय न दे पाया। दरअसल सत्य को पकड़कर रखने की क्षमता मुझमें नहीं थी। इसके बाद देखते-देखते गुज़र गए दो साल। मैं भले ही भूल जाऊँ पर काल की पोथी में अंकित था मेरा प्राप्य। सन् 2009 में मिल गया 'दर्शन'—मिट गईं सारी इच्छाएँ। महातीर्थ के वही कैलासबाबा वर्तमान में परमपूज्य कायकल्पी बर्फ़ानी दादाजी हैं। उन्हीं की कृपा से प्रकाशित हुई है यह पुस्तक 'महातीर्थ के कैलासबाबा'।
—भूमिका से
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