Kitna Bada Jhooth
Author:
Usha PriyamvadaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Short-story-collections0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
पाँचवें दशक में हिन्दी के जिन कथाकारों ने पाठकों और समीक्षकों का ध्यान सबसे ज़्यादा आकर्षित किया उनमें उषा प्रियम्वदा का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पिछले कई दशकों से ये निरन्तर सृजनरत हैं और इस अवधि में इन्होंने जो कुछ लिखा है वह परिमाण में कम होते हुए भी विशिष्ट है, जिसका प्रमाण है ‘कितना बड़ा झूठ’ की ये कहानियाँ।</p>
<p>प्रस्तुत संग्रह की अधिकांश कहानियाँ अमेरिकी अथवा यूरोपीय परिवेश में लिखी गई हैं। और जिन कहानियों का परिवेश भारतीय है उनमें भी प्रमुख पात्र, जो प्रायः नारी है, का सम्बन्ध किसी-न-किसी रूप में यूरोप अथवा अमेरिका से रहता है। इस एक तथ्य के कारण ही इन कहानियों को, बहुचर्चित मुहावरे की भाषा में, भोगे हुए यथार्थ की संज्ञा भी दी जा सकती है और इसी तथ्य के कारण इन कहानियों में आधुनिकता का स्वर भी अधिक प्रबल है।</p>
<p>डॉ. इन्द्रनाथ मदान के शब्दों में : ‘उषा प्रियम्वदा की कहानी-कला से रूढ़ियों, मृत परम्पराओं, जड़ मान्यताओं पर मीठी-मीठी चोटों की ध्वनि निकलती है, घिरे हुए जीवन की उबासी एवं उदासी उभरती है, आत्मीयता और करुणा के स्वर फूटते हैं। सूक्ष्म व्यंग्य कहानीकार के बौद्धिक विकास और कलात्मक संयम का परिचय देता है, जो तटस्थ दृष्टि और गहन चिन्तन का परिणाम है।’</p>
<p>अपने पहले संग्रह ‘ज़िन्दगी और गुलाब’ के फूल से लेकर अब तक विषय-वस्तु और शिल्प की दृष्टि से लेखिका ने विकास की जो मंज़िलें तय की हैं, उनका जीवन्त परिचय पाठकों को ‘कितना बड़ा झूठ’ की कहानियों से मिलेगा।
ISBN: 9788126715718
Pages: 104
Avg Reading Time: 3 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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हालाँकि, ये कहानियाँ मूल रूप से सम्बन्धों की ही कहानियाँ हैं, लेकिन इनमें सर्वत्र व्याप्त, वे तमाम दारुण दु:ख, हमारे ‘समय’ और ‘समाज’ के भीतर घटते उस यथार्थ को उसकी समूची ‘क्रूरता और करुणा’ के साथ प्रकट करते हैं, जो इस दोगली अर्थव्यवस्था का गिरेबान पकड़कर पूछते हैं कि 'कल के विरुद्ध बिना किसी कल के’ खड़े आदमी को, कौन इस अन्ध-नियति की तरफ़ लगातार ढकेलता चला आ रहा है?
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Shankar
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- Description: कथाकार शंकर के 'सैल्यूट' कहानी-संग्रह की रचनाएँ मध्यवर्ग की संवेदनहीनता और वैचारिक संकट के दस्तावेज की तरह हैं। जिस दौर में मानव सभ्यता बाजार सभ्यता में बदल गई हो, सामान्य मनुष्य किस तरह इसकी हिंस्रता और विसंगतियों का सामना करता है, साथ ही अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहता है, इसके अनोखे वृत्तांत शंकर की कहानियों में है। अपनी लंबी कथा-यात्रा में प्रगतीशील सरोकारों से सदा प्रतिबद्ध रहने वाले कथाकार ने इस संग्रह की कहानियों में छोटी-छोटी घटनाओं के भीतर से जीवन के यथार्थों को बड़ी रोचकता से उद्घाटित किया है। एक सहज और बांध लेने वाली भाषा, किसी फार्मूले में बंधे बिना, इन कहानियों को जितनी प्रहारात्मक बनाती है, उतनी ही पारदर्शी भी। कहानी विधा जिस दौर में एक खास किस्म के संकट से गुजर रही है और कई कथाकारों ने इस विधा को लगभग त्याग दिया है, वरिष्ठ कथाकार शंकर में एक निरंतरता बनी रही है। इनकी कहानियों में छोटे कैनवास पर भी जीवन के छूट गए कई बड़े पहलू उभरते हैं। इनमें संकट के पार देखने के गुण हैं, जो एक गहरे 'विजन' की वजह से हैं। कहानी सबसे पहले कहानी की तरह हो और यह अंतत: एक आवाज बने, इस संग्रह की कहानियों में यह दुर्लभ चीज मौजूद है। —शंभुनाथ वरिष्ठ आलोचक, संपादक 'वागर्थ'
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