Samidha : Vols. 1-2
Author:
Shri Naresh MehtaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 640
₹
800
Unavailable
मनुष्य के भीतर जो नाना प्रकार के राग-विराग हैं, उनके बीच जब वह अपने अन्तस में झाँकता है, उसे एक भारहीन दिगन्तव्यापी सौन्दर्य-चेतना का साक्षात्कार होता है। एक कवि अपनी काव्य-यात्रा में अपने अन्तस की उस हिरण्यमयी सच्चाई को साक्षात्कृत करता है। सारी करुणताएँ उसकी दृष्टिक्षेत्र के बाहर चली जाती हैं। केवल सौन्दर्य, केवल मंगल, केवल प्रार्थना का ही अहसास बचा रहता है।</p>
<p>श्रीनरेश मेहता की काव्य-दृष्टि में प्रकृति को एक उदात्त रूप में ग्रहण किया गया है। प्रकृति उनकी समूची संस्कृति में एक केन्द्रीय सत्ता बनकर नई क्रान्ति और नया संस्कार प्रदान करती है। प्रकृति से इस प्रकार का साक्षात्कार पुरुष को अपने विकारों से मुक्त कराता है।</p>
<p>श्रीनरेश मेहता की कविताओं में हमें कवि की दृष्टि प्रकृति और पुरुष के उदात्त रूप पर ही गड़ी दिखती है। उनके यहाँ प्रतिस्पर्द्धा के स्थान पर आत्मदान का महत्त्व है। केवल धृति नहीं है, वह उल्लास है, सृजन है, आह्लाद है और एक निरन्तर जीवन्तता है। उसमें संकोच, तिरस्कार या अस्वीकृति नहीं है। वह मनुष्य को एक नव्य मानवीय संस्कार देती है। मनुष्य के भीतर जो आसुरी वृत्तियाँ हैं, उन्हें दैवी वृत्तियों में बदलती चलती है।
ISBN: 9788180310461
Pages: 452
Avg Reading Time: 15 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
आदिवासी जन-जीवन पर मँडराते सभ्यता-प्रेषित ख़तरों को पहचानना, सीधे-सरल ढंग से उन्हें शब्दों में अंकित करना और नागर केन्द्रों से जंगलों-पहाड़ों की तरफ़ बढ़ते विकास की आक्रामक मुद्राओं का सशक्त प्रतिवाद गढ़ना जसिंता केरकेट्टा की कविताओं की विशेषताएँ रही हैं। उनकी कविताएँ अपनी सहज और संवादपरक मुद्रा में आदिवासी समाज की पीड़ाओं को समग्रता के साथ हम तक पहुँचाती रही हैं।
इन कविताओं में उनके इस मूल स्वर के साथ कुछ और भी जुड़ा है। संग्रह में संकलित कई कविताएँ ऐसी हैं जो शोषण के चालाक षड्यंत्रों में ईश्वर की अवधारणा और असहाय जन-मानस में उसके भय की भूमिका को चीन्हती हैं। भीतर और बाहर की कई जकड़नों में धर्म, ईश्वर और आस्था ने जिस तरह मनुष्य-विरोधी ताक़त के रूप में काम किया है, वह बृहत् भारतीय समाज की विडम्बना है; लेकिन आदिवासी साधनहीनता पर उनका प्रभाव और भी घातक होता है। ‘मज़दूर जब अपने अधिकार के लिए उठे/तो कुछ ईश्वर भक्तों ने उनसे/हाथ जोड़कर प्रार्थना करने को कहा।’ और ‘धीरे-धीरे हर हिंसा हमारे लिए/ईश्वर द्वारा ली जा रही परीक्षा बन गई।’ इस विडम्बना को ये कविताएँ हर संभव कोण से पकड़ने का प्रयास करती हैं।
आधुनिक शहरी सभ्यता के सम्पर्क से आदिवासी जीवन शैली में दिखाई देनेवाली विरूपताओं की तरफ़ भी जसिंता की नज़र गई है जिससे पता चलता है कि विकास का हमला सिर्फ़ जंगल के संसाधनों और वहाँ के निवासियों के दोहन तक ही सीमित नहीं है, वह उनके सांस्कृतिक बोध को भी विकृत कर रहा है।
जल, जंगल और आदिवासी जीवन से बाहर देश के सामान्य हालात भी इस संग्रह की कविताओं में जगह-जगह झाँकते दिखाई देते हैं। सत्ता का तानाशाही मिज़ाज हो या अपने ही देश की सैनिक ताक़त को अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति, कुछ भी कवि की निगाह से नहीं चूकता। यह संकलन निश्चय ही जसिंता की रचना-यात्रा का अगला चरण है।
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