Antas Ki Khurchan
Author:
Yatish KumarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
‘<span lang="HI">यतीश कुमार की कविताओं को मैंने पढ़ा। अच्छी रचना से मुझे सार्वजनिकता मिलती है। मैं कुछ और सार्वजनिक हुआ</span>, <span lang="HI">कुछ और बाहर हुआ</span>, <span lang="HI">कुछ अन्य से मिला</span>, <span lang="HI">उनके साथ हुआ और उनके साथ चला।</span>’<br />—<span lang="HI">विनोद कुमार शुक्ल</span><br /><span lang="HI">यतीश की कविता का कुनबा काफ़ी बड़ा है</span>, <span lang="HI">जिसमें आवाँ जितने पात्र भरे पड़े हैं। इनका वैविध्य उनकी संवेदना की परिधि को कहीं व्यापक बनाता है तो कहीं भरमाता है। इस विचलन को हुनर में बदल देने की सम्भावना और भरपूर क्षमता उनके कवित्व में मौजूद है</span>, <span lang="HI">जिसका प्रमाण हैं इस संकलन की कविताएँ।</span><br />—<span lang="HI">अष्टभुजा शुक्ल</span>
ISBN: 9789391950057
Pages: 190
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
हमारे दौर की कविता के बारे में कभी-कभी एक आलोचना यह भी सुन पड़ती है कि ज़्यादातर कवियों के पहले कविता-संग्रह ही उनके सबसे अच्छे संग्रह साबित होते हैं, दूसरे संग्रहों तक आते-आते उनका प्रकाश मन्द हो जाता है, यथार्थ की काली गहराइयों में जाकर उनकी लालटेनें बुझने लगती हैं। इस बात में अगर कोई सचाई है तो कुमार अंबुज को उसके अपवाद की तरह देखा जा सकता है। अंबुज का पहला कविता-संग्रह 1992 में प्रकाशित हुआ था और सिर्फ़ दस वर्ष के अन्तराल में उनके चौथे संग्रह का छपना सबसे पहले यह बतलाता है कि इस कवि के पास कहने के लिए बहुत कुछ है : निरवधि काल और विपुल पृथ्वी है, बल्कि एक पूरा सौरमंडल है, निर्वात और सघन पदार्थों में से गुज़रना उसका रोज़ का काम है। वायुमंडल की सैर करते-करते वह ग्रह-नक्षत्रों को खँगाल लेता है, मंगल ग्रह के लोहे को अपने शरीर और रक्त में महसूस करता है और अन्तत: अपनी पृथ्वी पर लौट आता है। इस अछोर कायनात को खोजने-जानने के लिए कुमार अंबुज के पास उतनी ही विस्तृत भाषा भी है जिस पर उन्हें इतना विश्वास है कि एक कविता में वे ‘भाषा से परे का यह दुर्गम पहाड़’ भी ‘भाषा की लाठी के सहारे ही’ पार करना चाहते हैं। इस संग्रह की पहली और बीज-कविता जैसी रचना में वे ख़ुद को एक ऐसे पुराने ताँबे के पात्र की तरह देखते हैं जिसे कोई ‘इतिहास की राख से माँजता है’ और ‘एक शब्द माँजता है मुझे/एक पंक्ति माँजती रहती है/अपने खुरदुरे तार से।’
जीवन और कविता की उदात्तता को कुमार अंबुज बार-बार रचते हैं, प्राय: उसका एक नया स्थापत्य बनाने की कोशिश करते हैं लेकिन इतना-भर इस कविता का अभीष्ट नहीं है, बल्कि एक महाविमर्श के छोटे-छोटे ब्योरों, उसके बारीक ताने-बाने में प्रवेश करते हुए उसके अर्थों को खोजना ही उसकी मूल प्रतिज्ञा है और इसीलिए अंबुज यह देख पाते हैं कि ‘एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश’ और ‘इस एक के लिए/इस एक के विश्वास से/लड़ता हूँ हज़ारों से/इस एक की परवाह करता हूँ।’ एक महाजीवन के इसी ‘एक’ को लेकर कुमार अंबुज के सरोकार इतने व्यापक हैं कि वे ‘अभी-अभी दर्ज हुई एक नई ऋतु’ को ‘एक कीड़े के अपूर्व राग में गाते हुए’ सुन पाते हैं और यह संकल्प भी व्यक्त कर सकते हैं कि ‘यह एक कमज़ोर इच्छा है जिसकी चहलक़दमी की आवाज़/एक तानाशाह की इच्छा की आवाज़ से टकराती है।’ दरअसल इस एक का हालचाल जानने की तड़प ही कुमार अंबुज को अनेकता के सौरमंडल तक ले जाती है। अनेक कविताओं में वे जीवन का एक रूपक खड़ा करते प्रतीत होते हैं लेकिन सहसा उस रूपक को भेदकर उसके दारुण यथार्थ में प्रवेश कर जाते हैं।
एक मूलभूत सरलता से संश्लिष्टता की ओर कुमार अंबुज की यह यात्रा एक उल्लेखनीय अनुभव है जिसका साक्ष्य उनकी इन कविताओं की संरचना, उनके ख़ास पैटर्न में भी मिलता है। वे शुरू में प्राय: एक शान्त-सुन्दर प्रवेश-द्वार की तरह दिखती हैं लेकिन उसके खुलते ही जैसे एक जटिल यथार्थ के आयाम प्रकट होने लगते हैं, जहाँ ‘ग़रीब की बुदबुदाहट का अनुवाद’ कुछ इस तरह होता है कि ‘लकड़ी का बुरादा भी जगा देता है मेरी भूख’ और ‘जीवन में एकदम ख़ाली’ एक दिन भी पूरे जीवन की गतिविधि में इतना स्पन्दित और स्मृति में इतना चिन्हित दिखता है कि उसे ‘न उम्र में से घटाया जा सकेगा/और जोड़कर देखने में होगा एक अपराध।’ यह एक लगभग सिनेमाई शिल्प है जिसमें एक सुन्दर शुरुआत एक विरूप विस्तार की ओर जा सकती है, एक प्रतीक, एक अमूर्तन हमें एक यथार्थपरक और ठोस संसार में ले जाता है, फिर सहसा अपने मूल बिम्ब में लौटता है और दूसरी वास्तविकता की ओर बढ़ने लगता है। इस संग्रह की एक कविता ‘रेखागणित’ अंबुज की इस काव्य-प्रविधि का उकृष्ट उदाहरण है जिसमें एक सीधी-सरल रेखा के गणित में एक पूरे जीवन को, उसके आश्चर्यों और रोमांचों, उसकी निश्छलता और ऐन्द्रियता को, उसके न्याय और अन्याय की परस्पर न मिलनेवाली समान्तर लकीरों को अन्तत: इस उम्मीद के साथ देखा गया है कि ‘वहीं कहीं छिपा हो सकता है/ज़िन्दगी को आसान कर सकनेवाला प्रमेय।’
किसी भी रचनाकार के लिए अपने शिल्प को लाँघना कठिन काम होता है, लेकिन अंबुज की संवेदना अपने कथ्य के अनुरूप शिल्प सहजता से उपलब्ध कर लेती है, क्योंकि एक समृद्ध काव्य-भाषा उनका सबसे कारगर औज़ार है। इसीलिए ‘रेखागणित’, ‘चुम्बक’, ‘जीवाश्म’, ‘मेढक’, ‘मुर्गी’, ‘हस्तलिपि’ जैसे नए अनुभवों की मार्मिक शक्लें निर्मित होती हैं और ‘एक कम है’, ‘अतिक्रमण’, ‘मानकीकरण’, ‘मैं एक आततायी को जानता हूँ’, ‘कवि व्याप्ति’, ‘कला का कोना’, ‘भाषा से परे’, ‘एक और शाम’ और ‘मध्यवर्गीय ओट’ जैसी किंचित् परिचित भावभूमि के अपरिचित आयाम खुलते हैं। करुणा और नैतिकता, जो कि कविता के स्थायी-अपरिवर्तनीय सुर हैं, जैसे अंबुज की कविताओं में ताने-बाने की तरह मौजूद हैं—इसीलिए ‘असाध्य रोग’ में सहज, गद्यात्मक लोकोक्ति जैसी बात को वे विचलित करनेवाले तरीक़े से लिख सकते हैं : ‘आँसुओं से कोई दवा तैयार हो सकती होती/तो कोई रोग असाध्य नहीं रह जाता।’ ‘पगडंडी’ कविता बताती है कि ‘जब सारी दुनिया चमकदार सड़कों से भर जाएगी, तब भी एक राह को दूसरी राह से जोड़ती पगडंडी बची रहेगी।’ कुमार अंबुज ख़ुद किसी राजमार्ग पर नहीं, बल्कि कविता की एक पगडंडी पर चलते उसी हाशिये, उसी किनारे से राजमार्गों के जाल को देखते आए हैं, क्योंकि न्याय और अन्याय की समान्तर रेखाएँ भले ही आपस में न मिलें, अन्याय का प्रतिरोध और न्याय की प्रतिष्ठा इसी राह से सम्भव है।
Navya-Shodhat
- Author Name:
Rahul Shinde
- Book Type:

- Description: The best poetry collection
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