Evam Indrajit
Author:
Badal SarkarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
बादल सरकार के नाटक ‘एवम् इन्द्रजित्’ का भारतीय रंगकर्म में एक विशिष्ट स्थान है। मूलतः बांग्ला में लिखे इस नाटक का अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। विभिन्न भाषाओं के रंगकर्म में इस नाटक ने बार-बार मंचित होकर प्रशंसा और प्रसिद्धि पर्याप्त बटोरी है।
इस नाटक की लोकप्रियता का कारण इसके कथा व शिल्प में निहित है। युवा वर्ग की महत्त्वाकांक्षा, परवर्ती कुंठा व निराशा का यथार्थपरक चित्रण इसमें किया गया है। नाटक अपनी निष्पत्ति में रेखांकित करता है कि मृत्यु का वरण समस्या का समाधान नहीं है। यह जानते हुए भी कि हमारे पास कोई सम्बल नहीं, हमें जीना है। नाटक का कथ्य अत्यन्त यथार्थवादी होते हुए भी शिल्प प्रतीकात्मक है। जीवन के दस-पन्द्रह वर्षों की अवधि को समेटे हुए यह नाटक जीने की ज़िद का तर्क है।
<p>बादल सरकार की काव्यात्मक भाषा सम्प्रेषण और अर्थ दोनों को समृद्ध करती है। नए कलेवर में प्रस्तुत यह प्रसिद्ध नाटक पाठकों व रंगकर्मियों को ख़ूब भाएगा, ऐसा विश्वास किया जा सकता है ।</p>
<p>प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ. प्रतिभा अग्रवाल ने ‘एवम् इन्द्रजीत्’ का मनोयोगपूर्वक अनुवाद किया है। उनके अनुसार, ‘...मेरे द्वारा किए गए अनुवादों में यह सर्वश्रेष्ठ है।’
ISBN: 9788126726196
Pages: 120
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: ‘मुआवज़े’ भीष्म साहनी के पहले तीन नाटकों से इस अर्थ में अलग है कि इसकी पृष्ठभूमि वर्तमान में स्थित है और इसका मिज़ाज व्यंग्य तथा हास्यप्रधान है। हालाँकि इसकी विषयवस्तु में भी समाज और व्यवस्था के वे सब स्याह पक्ष शामिल हैं जिनको अक्सर भीष्म साहनी ने अपने उपन्यासों, कहानियों और नाटकों में उघाड़ा है। साम्प्रदायिक दंगों और उसमें शिकार लोगों को मिलनेवाले मुआवज़े को लेकर बुना गया इस नाटक का कथानक पुलिस, प्रशासन, राजनेताओं और व्यावसायिक तबके के स्वार्थी और संवेदनहीन रवैये को दर्शाता है। साथ ही मुआवज़े के लिए ग़रीब श्रमिक वर्ग के लोगों की हताश कोशिशों की विडम्बना को भी इसमें पकड़ा गया है। नाटक की विशेषता यह है कि व्यंग्य के लिहाज़ से इतने संवेदनशील विषय और लगभग पैंतीस पात्रों और अनेक समूह-दृश्यों के बावजूद नाटक की गति कहीं शिथिल होती नहीं दिखती, और न ही कहीं नाटककार के सरोकार हँसी के तूफ़ान में ग़ायब होते हैं। शायद यही कारण है कि देश के कितने ही रंग-समूह, निर्देशक और रंगकर्मी इस नाटक को खेलते रहे हैं और दर्शक आज भी इसके मंचन की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
Jati Hi Puchho Sadhu ki
- Author Name:
Vijay Tendulkar
- Book Type:

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Description:
जीवन के स्याह पक्षों को निर्मम पर्यवेक्षण से उजागर करने के लिए प्रसिद्ध रहे विजय तेन्दुलकर का यह नाटक समकालीन सामाजिक विद्रूप को थोड़ा व्यंग्यात्मक नज़रिए से खोलता है।
एम.ए. की डिग्री से लैस होकर महीपत नौकरी की जिस खोज-यात्रा से गुज़रता है, वह शिक्षा की वर्तमान दशा, समाज के विभिन्न शैक्षिक स्तरों के परस्पर संघर्ष और स्थानीय स्तर पर सत्ता के विभिन्न केन्द्रों के टकराव की अनेक परतों को खोलती जाती है।
इस नाटक को पढ़ते-देखते हुए हमें स्वातंत्र्योत्तर भारत की कई ऐसी छवियों का साक्षात्कार होता है जो धीरे-धीरे हमारे सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन का हिस्सा हो चुकी हैं। वे हमें स्वीकार्य लगती हैं लेकिन उन्हीं के चलते धीरे-धीरे हमारा सामूहिक चरित्र खोखला होता जा रहा है।
अपने दो-टूकपन, सामाजिक सरोकार और व्यंग्य की तीव्रता के कारण अनेक निर्देशकों, अभिनेताओं और असंख्य दर्शकों की पसन्द रहे इस नाटक के दिल्ली में ही शताधिक मंचन हो चुके हैं। मूल मराठी से वसन्त देव द्वारा किए गए इस अनुवाद की गुणवत्ता तो इसी तथ्य से साबित हो जाती है कि पुस्तक रूप में इस नाटक के पाठ और मंच पर उसके प्रदर्शन में कोई बिन्दु ऐसा नहीं आता, जहाँ हिन्दी पाठक किसी अभिव्यक्ति या व्यंजना को अपने लिए अपरिचित महसूस करता हो।
Mrichchhakatik
- Author Name:
Shudrak
- Book Type:

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Description:
संस्कृत नाटकों की लगभग एक हज़ार वर्ष लम्बी नाट्य-परम्परा में महाकवि शूद्रक की रचना ‘मृच्छकटिकम्’ अपना अद्वितीय स्थान रखती है। इसका हिन्दी रूपान्तर सुप्रसिद्ध कहानीकार और नाटककार मोहन राकेश ने बहुत पहले किया था।
‘मृच्छकटिक’ अर्थात् मिट्टी की गाड़ी जिसमें एक ओर चारुदत्त और वसंतसेना की प्रेमकथा है तो दूसरी ओर उसकी पृष्ठभूमि में तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का ऐसा सशक्त एवं जीवन्त चित्रण है कि वह इस नाटक को अनायास ही प्रत्येक युग के लिए आश्चर्यजनक रूप से समसामयिक बना डालता है। चोर, जुआरी, राजा का साला, शरीर की मालिश करनेवाला और रिश्वतख़ोर कर्मचारी और इन सबके साथ-साथ राजसत्ता को पलटने में सफल लोकक्रान्ति—ये सभी तत्त्व मिलकर इस नाटक को एक ऐसा कलेवर प्रदान करते हैं, जो सम्भवतः पूरे भारतीय नाट्य-साहित्य में दुर्लभ है।
हमें विश्वास है कि अपने रूपान्तर में पाठकों, अध्येताओं और रंगकर्मियों के बीच ‘मृच्छकटिक’ का पुनः वैसा ही स्वागत होगा, जैसा कि पहले संस्करण के समय हुआ था।
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