Doosara Adhyay
Author:
Ajay ShuklaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 79.2
₹
99
Available
साहित्य कला परिषद् द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार—1993 से सम्मानित नाटक। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर आधारित इस नाटक में नाटकीय द्रशत्व की अपेक्षा कथात्मकता अधिक है। पात्र भी दो ही हैं, और इसका पूरा ताना-बाना यथार्थ, स्मृति और कल्पना और अति कल्पना के झिलमिल रंगों से बना है। इस रचना का वास्तविक आकर्षण चरित्रों की जटिलता, स्थिति की विडम्बना और सहज किन्तु जीवन्त भाषा संवाद में है। आधुनिक खोखले जीवन का साक्षात् दर्शन है—यह नाटक। प्रत्यक्ष कथानक के आगे जाकर यह नाटक अनेक प्रश्नों को खड़ा करता है कि हमारे स्थापित मूल्यों का आधार क्या है।</p>
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ISBN: 9788126729173
Pages: 80
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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व्रात्य बसु अपने आपमें नाटक की एक पाठशाला हैं। वे नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, नाट्य समीक्षक एवं बेहतरीन फिल्म निर्देशक हैं, जिनकी पैनी दृष्टि और सूक्ष्म विवेचन नाटक के छोटे से छोटे शिल्प को भी महत्त्वपूर्ण बनाकर मंच से लेकर फिल्म तक पहुँचा देती है। नाट्य विधा को मनुष्य जीवन का सहज प्रकाशन मानने वाले व्रात्य बसु के नाटक समाज-परिवर्तन की ठोस भूमि निर्मित करने में मील का पत्थर माने जा सकते हैं। इनके नाटकों की बौद्धिकता और मानवीय भावनाएँ अपनी स्थानीयता को प्रकट करते-करते दिन ब दिन वैश्विक होती जाती है। हमारे दैनंदिन नागरिक जीवन के एक-एक पल के ताप-उत्ताप को नाटक के भीतर समा देने की अद्भुत कला व्रात्य की लेखनी की जादुई विशेषता है। आधुनिक के अन्तर्मन का डर, उदासीनता या फिर प्रेम, रोमांस, व्रात्य के नाटकों में अपनी सुन्दरता और असुन्दरता के साथ सहज ही प्रकट हो उठते हैं और उनके पाठक तथा दर्शक उस अन्तर्दृष्टि को प्राप्त कर लेते हैं। उनके छह बहुचर्चित नाटकों के इस संकलन में, हर एक नाटक नई चिन्तन और एक नई चेतना को अभिव्यक्त करता है।
विषय की वैविध्यता हो या शोध एवं परीक्षण की दृष्टि उनकी सृष्टि एकरसता की शिकार कभी नहीं बनी। उनकी सृजनशीलता की पराकाष्ठा ही है कि काल के भीतर खड़े होकर भी वे कालोत्तर में पहुँचने की क्षमता रखते हैं। प्रस्तुत संग्रह में उनका ‘क्रेऊसा द क्वीन’, ‘मीरज़ाफ़र’, अनुशोचना’, ‘अन्तिम रात’, ‘एक दिन अलादीन’ या फिर ‘इला गुढ़ैषा’ प्रत्येक नाटक इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। चाहे विधा ऐतिहासिक हो या पौराणिक, मिथक, फैंटेसी हो या राजनीतिक व्यंग्य, आधुनिक या फिर उत्तर-आधुनिक उसके पाठ एवं मंचन दोनों ही पाठकों एवं दर्शकों के लिए एक नई उपलब्धि होते हैं। उनकी नाट्य भाषा एवं संवाद ओजपूर्ण और चमत्कृत कर देने वाले हैं। आशा है कि उनके नाटकों का यह संग्रह बांग्ला के साथ-साथ निःसन्देह हिन्दी साहित्य की भी अमूल्य निधि मानी जाएगी।
Natak Fareb-E-Hasti
- Author Name:
Sadique
- Book Type:

- Description: ‘नाटक फ़रेब-ए-हस्ती’ ग़ालिब पर लिखा गया अनोखा नाटक है। इस नाटक में एक रोचक हादसे की वजह से मिर्ज़ा ग़ालिब को मौजूदा सदी में पेश होना पड़ता है। यह हादसा इतना दिलचस्प है कि 18वीं सदी का मशहूर शायर जब आज की दिल्ली में घूमता है तो मानो हर चीज़ उससे कॉमेडी करती नज़र आती है। लेकिन बात केवल कॉमेडी तक ही सीमित नहीं है, कहानी एक नया मोड़ तब लेती है जब खुफ़िया एजेंसी के कुछ अफ़सर ग़ालिब को पड़ोसी देश का जासूस समझते हुए उनकी गतिविधियों को नोटिस करना शुरू कर देते हैं। लेखक ने इस रोचक फंतासी को एकदम यथार्थवादी अन्दाज़ में पेश किया है जहाँ पर हर दृश्य के बाद स्थितियाँ और भी ड्रामाई होती चली जाती हैं। इस सब के बीच माज़ी और हाल के न जाने कितने सवाल और उनके जवाब जुगनुओं की तरह झिलमिलाते रहते हैं।
Kabira Khada Bazaar Mein
- Author Name:
Bhisham Sahni
- Book Type:

- Description: बेपरवाह, दृढ़ और उग्र—संक्षेप में मस्तमौला—कबीर का व्यक्तित्व सदियों से भारत मन और मनीषा को प्रभावित करता रहा है। यही कारण है कि पाँच सौ वर्षों से कबीर के पद भारतीयों की ज़बान पर हैं और उनके विषय में कितनी ही कहानियाँ लोकविश्रुत हैं। अपने युग की तानाशाही, धर्मान्धता, बाह्याचार और मिथ्या धारणाओं के विरुद्ध अनथक संघर्ष करनेवाला यह व्यक्ति हमारे बीच आज भी एक स्थायी और प्रेरक मूल्य की तरह स्थापित है। ‘कबिरा खड़ा बज़ार में’ कबीर के ऐसे ही मूल्यवान व्यक्तित्व को प्रस्तुत करनेवाली बहुमंचित और चर्चित नाट्यकृति है। सुविख्यात प्रगतिशील कथाकार भीष्म साहनी की ‘हानूश’ के बाद यह दूसरी नाट्य-रचना थी, जिसे हिन्दी रंगमंच पर व्यापक प्रशंसा प्राप्त हुई है। कबीर की फक्कड़ाना मस्ती, निर्मम अक्खड़ता और युगप्रवर्तक सोच इस कृति में पूरी जीवन्तता के साथ मौजूद है। साथ ही इसमें यह भी उजागर हुआ है कि कबीर की साहित्यिकता सामाजिक जड़ता को तोड़ने का ही एक माध्यम थी, जिसके सहारे उन्होंने अनेकानेक मोर्चों पर संघर्ष किया। कृति से गुजरते हुए पाठक कबीर के इस संघर्ष को उसकी तमाम तत्कालीन सामाजिकता के बावजूद समकालीन भारतीय समाज की विभिन्न विकृतियों से सहज ही जोड़ पाता है। संक्षेप में कहें तो भीष्म साहनी की यह नाट्यकृति मध्ययुगीन वातावरण में संघर्ष कर रहे कबीर को—उनके पारिवारिक और सामाजिक सन्दर्भों सहित—आज भी प्रासंगिक बनाती है।
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