Aadarsh Prabandhan Ke Sookta
Author:
Suresh KantPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Management0 Reviews
Price: ₹ 100
₹
125
Available
प्रबन्धन आत्म-विकास की एक सतत् प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबन्धित किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबन्धित करने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ़्तर अथवा कारोबार के। इस प्रकार आत्म-विकास ही घर-दफ़्तर दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज़ से देखें, तो प्रबन्धन का ताल्लुक़ कम्पनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से है। वह इंसान को बेहतर इंसान बनाने की कला है, क्योंकि बेहतर इंसार ही बेहतर कर्मचारी, अधिकारी, प्रबन्धक या करोबारी हो सकता है।</p>
<p>‘आदर्श प्रबन्धन के सूक्त’ में संकलित आलेखों को पाँच खंडों में विभाजित किया गया है—व्यक्तित्व-विकास, कैरियर निर्माण, औद्योगिक सम्बन्ध, समय-प्रबन्धन और कौशल-विकास। इस पुस्तक से आप अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं की लगातार जाँच-परख और आशावाद की उपयोगिता को समझ सकते हैं। साथ ही ख़ुश रहने, अपनी भीतरी शक्तियों के विकास, अपनी सामर्थ्य के भरसक उपयोग और सटीक लक्ष्य-निर्धारण की व्यावसायिक उपादेयता का आकलन कर सकते हैं। इसके अलावा संघर्षों की महत्ता, पेशा बदलने से सफलता, सलाहकार व कार्यपालक के आपसी रिश्तों, और साख आदि विषयों पर भी इसमें प्रकाश डाला गया है।</p>
<p>प्रबन्धन और आत्मविकास के क्षेत्र में वर्षों से अध्ययन व लेखनरत लेखक की एक महत्वपूर्ण पुस्तक।
ISBN: 9788183611398
Pages: 19
Avg Reading Time: 1 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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प्रबन्धन आत्म-विकास की एक सतत प्रक्रिया है। अपने को व्यवस्थित-प्रबन्धित किए बिना आदमी दूसरों को व्यवस्थित-प्रबन्धित करने में सफल नहीं हो सकता, चाहे वे दूसरे लोग घर के सदस्य हों या दफ़्तर अथवा कारोबार के। इस प्रकार आत्म-विकास ही घर-दफ़्तर, दोनों की उन्नति का मूल है। इस लिहाज़ से देखें, तो प्रबन्धन का ताल्लुक़ कम्पनी-जगत के लोगों से ही नहीं, मनुष्य मात्र से है। वह इनसान को बेहतर बनाने की कला है, क्योंकि बेहतर इनसान ही बेहतर कर्मचारी, अधिकारी, प्रबन्धक या कारोबारी हो सकता है।
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कॉरपोरेट की नई दुनिया में एक सन्तुलित प्रबन्धन शैली अपनाना आज बहुत ज़रूरी हो गया है, ताकि उससे जुड़े लोगों की पूरी क्षमता का इस्तेमाल भी हो सके, और उन्हें उनके योगदान का सन्तोषजनक फल भी प्राप्त हो, और इस सबके साथ कॉरपोरेट निकाय का समग्र विकास भी सम्भव हो।
यह पुस्तक इसी के लिए कुछ साधारण लेकिन अत्यन्त मूल्यवान गुर बताती है। पुस्तक की आधारभूत मान्यता है कि सम्पत्ति-निर्माण का कार्य मानवीय मूल्यों को नज़रअन्दाज़ करके नहीं किया जा सकता और न ही किया जाना चाहिए। कर्ता अपने कर्तव्य को पहले समझे, जिसके तहत ज़रूरी है कि उस समय निकाय का नेतृत्व अपना सब कुछ हासिल कर लेता है, तब उसकी मनोवृत्ति दूसरों के हित की ओर जानी चाहिए। यानी किसी भी प्रकार की प्रगति को केवल अपने तक सीमित नहीं रखना चाहिए। एक नीति निर्धारित करें, जिसका आधार परहित हो। जो अपने सहयोगियों की सुरक्षा की गारंटी दे, दूसरों की ग़लतियों को भूलकर आगे बढ़े और सह-अस्तित्व को अपनी कार्यशैली की पहचान बनाए।
ऐसी ही कुछ आवश्यक बातों को इस पुस्तक के लेखक ने सरल ढंग से, उदाहरणों-क़िस्सों की मदद से समझाते हुए क्रमश: संकलित किया है। विशेष उल्लेखनीय यह है कि लेखक स्वयं एक सफल प्रबन्धक रहे हैं, और यह सब उन्होंने व्यवहारत: आज़माया है।
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