Nirlep Narayan
Author:
Rajendra RatneshPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
यह उपन्यास श्रावक उमरावमल ढढ्ढा की जीवनी पर आधारित है। <br />श्री ढढ्ढा का जीवन सीधा, सादा और सरल था। रायबहादुर सेठ के पौत्र और एक बड़ी हवेली के मालिक होकर भी उन्होंने आमजन का जीवन जिया। पुरखों द्वारा छोड़ी गई करोड़ों की सम्पत्ति अपने भोग-विलास पर ख़र्च नहीं करके दान कर दी। उनके पुरखे अंग्रेज़ों के बैंकर थे। उनका व्यवसाय इन्दौर, हैदराबाद तक फैला था। महारानी अहल्याबाई के राखीबंद भाई उनके पुरखे थे। उन्होंने पुरखों की सम्पत्ति को छुए बिना नौकरी करके अपना जीवन-यापन किया। श्री ढढ्ढा वस्तुत: एक अकिंचन अमीर थे। वे सचमुच ही निर्लेप नारायण थे।</p>
<p>उमरावमल ढढ्ढा मानते थे कि मैं सबसे पहले इनसान हूँ, बाद में हिन्दुस्तानी। उसके बाद जैन। जैन के बाद श्वेताम्बर। स्थानकवासी परम्परा का श्रावक। वे सम्यक् अर्थों में महावीर मार्ग के अनुगामी और अनुरागी थे।</p>
<p>वे हमेशा अपनी बात अनेकान्त की भाषा में कहते थे। अनेकान्त को समझाने का उनका फ़ार्मूला बड़ा सीधा था। वे कहते थे कि 'ही' और ‘भी' में ही अनेकान्त का सिद्धान्त छिपा है। मेरा मत ‘ही’ सच्चा है, यह एकान्तवाद है जबकि अनेकान्त कहता है कि मेरा मत ‘भी’ सच्चा है और आपका मत ‘भी’ सच्चा हो सकता है।</p>
<p>उन्होंने पुरखों के छोड़े करोड़ों रुपयों के धन को छुआ ही नहीं। वकालत, वृत्तिका और व्यवसाय—इन सब में उन्हें वांछित सफलता नहीं मिली। वकालत इसलिए छोड़ दी कि झूठ की रोटी वे नहीं खा सकते थे। वृत्तिका भी गिरते स्वास्थ्य की वजह से लम्बी नहीं चली। व्यवसाय में घाटे पर घाटे लगे। जो कुछ पास में बचा, वह दान-पुण्य में लुटा दिया।</p>
<p>उन्होंने अमीरी को छोड़ ग़रीबी को अपनाया। जब भी कोई ढढ्ढा हवेली की भव्यता को देखता तो उसकी आँखें आश्चर्य से फटी की फटी रह जातीं कि इतनी बड़ी हवेली का स्वामी एक सीधी-सादी ज़िन्दगी जी रहा है।
ISBN: 9788126730414
Pages: 132
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Arundhati Roy
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- Description: v data-content-type="html" data-appearance="default" data-element="main"><p>एक विशुद्ध व्यावहारिक अर्थ में तो शायद यह कहना सही होगा कि यह सब उस समय शुरू हुआ, जब सोफ़ी मोल आयमनम आई। शायद यह सच है कि एक ही दिन में चीज़ें बदल सकती हैं। कि चंद घंटे समूची ज़िन्दगियों के नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं। और यह कि जब वे ऐसा करते हैं, उन चंद घंटों को किसी जले हुए घर से बचाए गए अवशेषों की तरह—करियाई हुई घड़ी, आँच लगी तस्वीर, झुलसा हुआ फ़र्नीचर—खंडहरों से समेटकर उनकी जाँच-परख करनी पड़ती है। सँजोना पड़ता है। उनका लेखा-जोखा करना पड़ता है।</p> <p>छोटी-छोटी घटनाएँ, मामूली चीज़ें, टूटी-फूटी और फिर से जोड़ी गईं। नए अर्थों से भरी। अचानक वे किसी कहानी की निर्वर्ण हड्डियाँ बन जाती हैं।</p> <p>फिर भी, यह कहना कि वह सब कुछ तब शुरू हुआ जब सोफ़ी मोल आयमनम आई, उसे देखने का महज़ एक पहलू है।</p> <p>साथ ही यह दावा भी किया जा सकता था कि वह प्रकरण सचमुच हज़ारों साल पहले शुरू हुआ था। मार्क्सवादियों के आने से बहुत पहले। अंग्रेज़ों के मलाबार पर क़ब्ज़ा करने से पहले, डच उत्थान से पहले, वास्को डी गामा के आगमन से पहले, ज़मोरिन की कालिकट विजय से पहले।</p> <p>किश्ती में सवार ईसाइयत के आगमन और चाय की थैली से चाय की तरह रिसकर केरल में उसके फैल जाने से भी बहुत पहले हुई थी।</p> <p>कि वह सब कुछ दरअसल उन दिनों शुरू हुआ जब प्रेम के क़ानून बने। वे क़ानून जो यह निर्धारित करते थे कि किस से प्रेम किया जाना चाहिए, और कैसे।</p> <p>और कितना।</p> <p>बहरहाल, व्यावहारिक रूप से एक नितान्त व्यावहारिक दुनिया में...वह दिसम्बर उनहत्तर का (उन्नीस सौ अनुच्चरित था) एक आसमानी नीला दिन था। एक आसमानी रंग की प्लिमथ, अपने टेलफ़िनों में सूरज को लिए, धान के युवा खेतों और रबर के बूढ़े पेड़ों को तेज़ी से पीछे छोड़ती कोचीन की तरफ़ भागी जा रही थी...</p>
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