Kisan

Kisan

Authors(s):

Honore De Balzac

Language:

Hindi

Pages:

304

Country of Origin:

India

Age Range:

18-100

Average Reading Time

608 mins

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Book Description

‘किसान’ (अंग्रेज़ी में ‘दि पीजशेंट्री’ और ‘संस ऑफ़ दि सॉयल’ नाम से प्रकाशित) ‘ह्यूमन कॉमेडी’ शृंखला के अन्तिम चरण की रचना है। इसकी गणना बाल्ज़ाक की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और परिपक्व कृतियों में की जाती है।</p> <p>बाल्ज़ाक ने ‘ह्यूमन कॉमेडी’ की पूरी परियोजना के अन्तर्गत, अपने चार उपन्यासों में फ़्रांसीसी ग्रामीण जीवन के अन्तरंग और बहिरंग को चित्रित करते हुए, सामन्ती भूमि-सम्बन्धों के पूँजीवादी रूपान्तरण तथा आधुनिक पूँजीवाद के विकास में कृषि की भूमिका को, पूँजीवाद के अन्तर्गत गाँव और शहर के बीच लगातार बढ़ती खाई को, छोटे मालिक किसानों पर सूदख़ोर महाजनों की जकड़बन्दी को, शहरी और ग्रामीण महाजनी के फ़र्क़ को, कृषि में माल-उत्पादन के बढ़ते वर्चस्व और किसानी जीवन पर मुद्रा के आच्छादनकारी प्रभाव को तथा किसान आबादी के विभेदीकरण (डिफ़रेंसिएशन) और कंगालीकरण को जिस अन्तर्भेदी गहराई और चहुँमुखी व्यापकता के साथ प्रस्तुत किया है, वह आर्थिक इतिहास या समाज-विज्ञान की किसी पुस्तक में भी देखने को नहीं मिलता।</p> <p>बाल्ज़ाक शहरी मध्यवर्गीय रोमानी नज़रिए से न तो कहीं ‘अहा, ग्राम्य-जीवन भी क्या है’ की आहें भरते नज़र आते हैं, न ही उन ‘काव्यात्मक सम्बन्धों’ और पुरानी संस्थाओं-सम्बन्धों-चीज़ों के लिए बिसूरते दीखते हैं जिन्हें पूँजी या तो लील जाती है, या पुनः संस्कारित करके अपना लेती है या फिर अजायबघरों में सुरक्षित कर देती है। इसके विपरीत वह ठहरे हुए ग्रामीण जीवन की कूपमंडूकतापूर्ण तुष्टि के प्रति वितृष्णा प्रकट करते हैं और उस मध्यवर्गीय शहरी नज़रिए की खिल्ली उड़ाते हैं जिसे ग्राम्य जीवन एक ख़ूबसूरत लेंडस्केप नज़र आता है।</p> <p>एक ठंडी वस्तुपरकता के साथ बाल्ज़ाक गाँवों में व्याप्त पिछड़ेपन, अज्ञानता, विपन्नता, कूपमंडूकता, निर्ममता और उस अमानवीकरण की चर्चा करते हैं जो मन्थर गति वाले अलग-थलग पड़े ‘स्वायत्तप्राय’ ग्रामीण परिवेश के अपरिहार्य गुण हैं और गाँवों में पूँजी का प्रवेश इन्हें और निर्मम-निरंकुश बनाने का काम ही करता है। पश्चिमी दुनिया में कृषि में पूँजीवाद का प्रवेश सबसे क्रान्तिकारी ढंग से फ़्रांस और अमेरिका में हुआ। वहाँ के बूर्ज्वा जनवादी क्रान्ति के उत्तरकालीन परिदृश्य को चित्रित करते हुए बाल्ज़ाक ने दिखलाया है कि ग्रामीण जीवन वहाँ भी लगभग ठहरा हुआ सा है, भविष्य को लेकर कहीं कोई उत्साह नहीं है, बाहरी दुनिया से नाम-मात्र का सम्पर्क है, नए विचारों का प्रभाव नगण्य है। खेतिहर मज़दूर, छोटा मालिक किसान, रिटायर्ड फ़ौजी—सभी आत्मविश्वास से रिक्त, रामभरोसे जी रहे हैं। खेतों में भरपूर हाड़ गलाने के बावजूद कुछ भी हासिल नहीं होता। ग़रीबी, भूमिहीनता, ऋणग्रस्तता, कुपोषण, बीमारी, ग़रीबी के चलते ऊँची जन्म दर और ऊँची मृत्यु दर—विशेषकर शिशु मृत्यु दर तथा अन्धविश्वास और भाग्यवाद का चतुर्दिक बोलबाला है।</p> <p>ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसानों की स्थिति के हर पहलू को तफ़सील से देखते हुए बाल्ज़ाक किसान में समस्या के सारतत्त्व को पकड़ते हैं और बताते हैं कि सवाल भूस्वामित्व की सामन्ती व्यवस्था का नहीं है, बल्कि अपने आप में भू-स्वामित्व की पूरी व्यवस्था का ही है। सामन्ती भूस्वामी की जगह पूँजीवादी फ़ौजी जनरल या ऑपेरा गायिका के आ जाने से आम किसान की स्थिति में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। किसान की ख़ून-पसीने की कमाई के मुख्य अपहर्ता प्रायः सामने नहीं होते। वे बदलते रहते हैं, पर किसानों का रोज़मर्रे के जीवन में जिन बिचौलियों से साबका पड़ता है, उनकी स्थिति अपरिवर्तित रहती है।</p> <p>किसान उपन्यास में बाल्ज़ाक रिगू-गोबर्तें गठजोड़ के रूप में व्यापारी-भूस्वामी-सूदख़ोर गठजोड़ की किसानों पर चतुर्दिक जकड़बन्दी की तस्वीर उपस्थित करते हैं और दिखलाते हैं कि किस तरह प्रशासन, न्याय, ऋण और व्यापार के पूरे तंत्र पर इस गिरोह का ऑक्टोपसी नियंत्रण क़ायम है। स्वयं बाल्ज़ाक के ही शब्दों में : ‘‘छोटे किसान की त्रासदी यह है कि सामन्ती शोषण से मुक्त होकर वह पूँजीवादी शोषण के जाल में फँस गया है।”</p> <p>—सम्पादकीय आलेख से।

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