Aadhunik Sahitya
Author:
Nandulare VajpeyiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 796
₹
995
Unavailable
‘आधुनिक साहित्य’ आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के निबन्धों का संग्रह है। इसमें सम्मिलित निबन्धों में सन् 1930 से 1942 तक की कालावधि के हिन्दी साहित्य की मुख्य कृतियों और प्रवृत्तियों का विवेचन किया गया है। कुछ अन्य प्रासंगिक निबन्ध भी इसमें जोड़ दिए गए हैं, जो विषय पर भिन्न दिशा और भूमि से प्रकाश डालते हैं। लेकिन जैसाकि स्वयं वाजपेयी जी अपनी भूमिका में कहते हैं : “पुस्तक में इस सामग्री के रहते हुए भी इसे उस समय का साहित्यिक इतिहास नहीं कहा जा सकता। इसका निर्माण इतिहास से भिन्न प्रणाली और प्रेरणा से किया गया है।”</p>
<p>वाजपेयी जी आगे कहते हैं : “मेरी ये समीक्षाएँ और निबन्ध निर्माण की पगडंडियाँ हैं; इतिहास वह ‘रोलर’ है, जो इन अथवा इन जैसी अन्य पगडंडियों को समतल कर प्रशस्त पथ बनाता है। जब तक विविध दृष्टियों और उपादानों को लेकर अच्छे परिमाण में साहित्यिक समीक्षाएँ नहीं प्रस्तुत की जातीं, तब तक इतिहास-लेखन का कार्य वस्तुतः सम्भव नहीं है। ‘हिन्दी साहित्य : बीसवीं शताब्दी’ के साथ ‘आधुनिक साहित्य’ के ये पूरक निबन्ध यदि नई साहित्यिक रुचि और दृष्टि के निर्माण में कुछ भी योग दे सकें, तो यह इनकी सफलता होगी।”</p>
<p>इस पुस्तक में शामिल निबन्ध अपने विषय-काल के साहित्य की एक विहंगम तस्वीर पाठक के सामने प्रस्तुत करते हैं और साहित्येतिहास की दिशा में उन्मुख होनेवाले विद्वज्जनों को एक आधार मुहैया कराते हैं।
ISBN: 9788126706112
Pages: 379
Avg Reading Time: 13 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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बीसवीं सदी का अन्तिम दशक कई तरह से सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का साक्षी रहा। विश्व में समाजवाद के पतन के उपरान्त भारत में उदारीकरण के चलते कई नई चुनौतियाँ हमारी चेतना के समक्ष उपस्थित हुईं। बाज़ारवाद, मीडिया विस्फोट और सूचना तकनीकी के आगमन के कारण भाषिक-संवेदना के तार बिखरने लगे।
इन परिस्थितियों में हिन्दी कवि को इन चुनौतियों का सामना करते हुए वैकल्पिक और सम्पूर्ण भावबोध प्रस्तुत करना था। और, इस दशक की कविता ने यह किया भी। इस पुस्तक में इस दशक में सक्रिय महत्त्वपूर्ण कवियों पर अलग-अलग विचार करते हुए उस संक्रमण काल की कविताओं की मुख्य चिन्ताएँ और सरोकार रेखांकित किए गए हैं।
अरुण कमल, कुमार अम्बुज, अष्टभुजा शुक्ल, बोधिसत्व, एकान्त श्रीवास्तव, हरीशचन्द्र पांडे, स्वप्निल श्रीवास्तव निलय उपाध्याय, काव्यायनी, अनामिका, गगन गिल और नीलेश रघुवंशी के काव्य पर अलग-अलग अध्यायों में विस्तार से विचार करते हुए लेखक ने उस समय की सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि को भी समझने का प्रयास किया है।
कवियों के शिल्प और भाषा की संरचनात्मक विशेषताओं को रेखांकित करते हुए उन्होंने उनकी सीमाओं और सम्भावनाओं की तरफ़ भी संकेत किया है, और एक पूरे दशक की कविता के सम्पूर्ण को सरल रूप में प्रस्तुत किया है।
Anuvad Anusrijan
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A. Arvindakshan
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Description:
प्रौद्योगिकी के प्रचुर विकास के साथ अनुवाद का एक नया आयाम सामने आ गया और वह है—मशीनी अनुवाद। कई संस्थाएँ देश-विदेश में इस नई प्रौद्योगिकी के विकास में योगदान दे रही हैं। मशीनी अनुवाद की पूरी प्रक्रिया तथा तत्सम्बन्धी समस्याओं का बहुत बड़ा क्षेत्र है जो आजकल अनुवाद के क्षेत्र में नूतन आविष्कारों के साथ सामने आ रहा है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ मशीनी अनुवाद भी विकसित होता जा रहा है। मशीनी अनुवाद के विकास ने तथा उसकी अनन्त सम्भावनाओं ने अनुवाद-कार्य को प्रोफ़ेशनल स्वरूप प्रदान किया है। यही नहीं, अनुवाद के प्रोफ़ेशनल स्वरूप को देखते हुए ऐसा ही लगता है कि यह एक इंडस्ट्री के रूप में विकसित हो सकता है। भारत जैसे बहुभाषी देश में इसकी सम्भावनाएँ अधिक हैं। यह ग्रन्थ अनुवाद को दो तरह से देख रहा है—अकादमिक तथा प्रोफ़ेशनल स्तर से। अनुवाद में ये दोनों मुख्य हैं। मेरा यही विचार है कि अनुवाद के विद्यार्थियों, शोधार्थियों एवं अध्यापकों के लिए यह ग्रन्थ उपयोगी सिद्ध होगा।
—भूमिका से
Hindi Upanyas Ka Vikas
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Madhuresh
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Description:
इस बात को जब-जब दोहराया जाता रहा है कि हिन्दी की आलोचना मुख्यत: काव्य केन्द्रित रही है। लेकिन स्वाधीनता के बाद कथा साहित्य में आए रचनात्मक विस्फोट के परिणामस्वरूप आलोचना के केन्द्र बिन्दु में भी बदलाव आना स्वाभाविक था। इसी दौर में कहानी की तरह उपन्यास में भी जिन कुछेक आलोचकों ने सक्रिय, निरन्तर और सार्थक हस्तक्षेप किया है, उनमें मधुरेश का उल्लेख विशेष सम्मान के साथ किया जाता है। अपनी आलोचनात्मक उपस्थिति से उन्होंने आलोचना के प्रति छीजते हुए विश्वास की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए गहरा और निर्णायक संघर्ष किया है।
उपन्यास का सामाजिक यथार्थ से गहरा और अनिवार्य रिश्ता है। आलोचकों ने उसे ऐसे ही गद्य में लिखित महाकाव्य के रूप में परिभाषित नहीं किया है। जीवन की समग्रता में, उसमें निहित सारी जटिलता और अन्तर्विरोधों के साथ, अंकित करने की अपनी क्षमता के कारण ही अपेक्षाकृत बहुत कम समय में उसने यह गौरव हासिल किया है।
‘हिन्दी उपन्यास का विकास' लगभग एक सौ बीस वर्षों के हिन्दी उपन्यास को उसके सामाजिक सन्दर्भों में देखने और आकलित करने का एक उल्लेखनीय प्रयास है। आज जब उपन्यास में रूपवादी रुझान, निरुद्देश्यता और भाषाई खिलन्दड़ापन घुसपैठ कर रहे हैं, मधुरेश की ‘हिन्दी उपन्यास का विकास’ पुस्तक सामाजिक यथार्थ की ज़मीन पर उपन्यास को देखने-परखने का उपक्रम करने के कारण ही विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करती है। यहाँ मधुरेश एक व्यापक फलक पर उपन्यासकारों, विभिन्न प्रवृत्तियों और वैचारिक आन्दोलनों की वस्तुगत पड़ताल में गम्भीरता से प्रवृत्त दिखाई देते हैं। उनकी विश्वसनीय आलोचना-दृष्टि और साफ़-सुथरी भाषा में दिए गए मूल्य-निर्णय ‘हिन्दी उपन्यास का विकास’ को एक गम्भीर आलोचनात्मक हस्तक्षेप के रूप में स्थापित करते हैं—उपन्यास की मृत्यु और उसके भविष्य सम्बन्धी अनेक बहसों और विवादों को समेटते हुए।
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