Bharatvarsh ka Brihat Itihas : Vols. 1- 2
Author:
Shrinetra PandeyPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 880
₹
1100
Unavailable
भारतवर्ष का बृहत् इतिहास बड़ा ही लोकप्रिय ग्रन्थ बन गया है। इसकी रचना दशकों पूर्व की गई थी किन्तु इसकी मान्यता तथा लोकप्रियता आज भी पूर्ववत् बनी है। इस नवीन संस्करण का संशोधन तथा परिवर्द्धन उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद् के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार कर दिया गया है जिसके फलस्वरूप कुछ नए प्रकरणों का समावेश हो गया है।</p>
<p>पुस्तक के अन्त में कुछ परिशिष्टियाँ भी जोड़ दी गई हैं। जिससे पुस्तक की अनुकूलता तथा उपयोगिता में वृद्धि हो गई है। आशा है, यह नवीन संस्करण विद्यार्थियों तथा अध्यापकों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम होगा।
ISBN: 9788180318238
Pages: 570
Avg Reading Time: 19 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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फतेहपुर की नगरीय संरचना और उसके राजनैतिक महत्व को इतिहास की दृष्टि से देखने-परखने के उद्देश्य से लिखी गयी यह पुस्तक अत्यंत प्रासंगिक है। इस पुस्तक में अकबर के नगरीय-बोध, स्थापत्य संबंधी रुचि और विकास की अवधारणा को लेकर कई उल्लेखनीय स्थापनाएं की गयी हैं। अकबर ने फतेहपुर सीकरी का निर्माण सूफी संत शेख सलीम चिश्ती के प्रति आदर प्रकट करने के उद्देश्य से कराया था लेकिन फतेहपुर सीकरी अकबर के लिए रणनीतिक, राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी हितकर था। असल में सीकरी अजमेर और आगरा के बीच एक गलियारे के रूप में स्थित था। इस दृष्टिकोण से देखें तो गंगा घाटी में पड़ने वाले मैदानों की ओर प्रसार करने की योजना के लिए यह अत्यंत उपयुक्त था। इतना ही नहीं फतेहपुर सीकरी में महलों के बीच बनी मस्जिद में सूफी संत शेख सलीम चिश्ती का मकबरा बनाकर अकबर राजनीतिक और आध्यात्मिक सत्ता का परस्पर समन्वयन संयोजन करने में भी कामयाबी हासिल की।
अकबर ने अपनी राजधानी फतेहपुर सीकरी से वापस कर ली और फिर वहां कभी भी राजधानी नहीं बनायी। जिस नगर से बेपनाह मोहब्बत हो और जो दुनिया के महानतम नगरों में से एक हो, उससे विरक्ति का भाव पैदा होना विचार का विषय है। इस पर डॉ अनिल कुमार यादव ने गंभीरतापूर्वक कलम चलायी है।कुमार वीरेन्द्र
Sarfaroshi Ki Tamanna
- Author Name:
Kuldeep Nayar
- Book Type:

- Description: भगत सिंह (1907-1931) का समय वही समय था जब भारत का स्वतंत्रता-संग्राम अपने उरूज की तरफ़ बढ़ रहा था और जिस समय आंशिक आज़ादी के लिए महात्मा गांधी के अहिंसात्मक, निष्क्रिय प्रतिरोध ने लोगों के धैर्य की परीक्षा लेना शुरू कर दिया था। भारत का युवा वर्ग भगत सिंह के सशस्त्र विरोध के आह्वान और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के आर्मी विंग की अवज्ञापूर्ण साहसिकता से प्रेरणा ग्रहण कर रहा था, जिससे भगत सिंह और उनके साथी सुखदेव और राजगुरु जुड़े थे। ‘इंकिलाब ज़िन्दाबाद’ का उनका नारा स्वतंत्रता-संघर्ष का उद्घोष बन गया था। लाहौर षड्यंत्र मामले में एक दिखावटी मुक़दमा चलाकर ब्रिटिश सरकार द्वारा भगत सिंह को मात्र 23 साल की आयु में फाँसी पर चढ़ा दिए जाने के बाद भारतवासियों ने उन्हें, उनके युवकोचित साहस, नायकत्व और मौत के प्रति निडरता को देखते हुए शहीद का दर्जा दे दिया। जेल में लिखी हुई उनकी चीज़ें तो अनेक वर्ष उपरान्त, आज़ादी के बाद सामने आईं। आज इसी सामग्री के आधार पर उन्हें देश की आज़ादी के लिए जान देनेवाले अन्य शहीदों से अलग माना जाता है। उनका यह लेखन उन्हें सिर्फ़ एक भावप्रवण स्वतंत्रता सेनानी से कहीं ज़्यादा एक ऐसे अध्यवसायी बुद्धिजीवी के रूप में सामने लाता है जिसकी प्रेरणा के स्रोत, अन्य विचारकों के साथ, मार्क्स, लेनिन, बर्ट्रेंड रसेल और विक्टर ह्यूगो थे और जिसका क्रान्ति-स्वप्न अंग्रेज़ों को देश से निकाल देने-भर तक सीमित नहीं था, बल्कि वह उससे कहीं आगे एक धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी भारत का सपना सँजो रहा था। इसी असाधारण युवक की सौवीं जन्मशती के अवसर पर कुलदीप नैयर इस पुस्तक में उस शहीद के पीछे छिपे आदमी, उसके विश्वासों, उसके बौद्धिक रुझानों और निराशाओं पर प्रकाश डाल रहे हैं। यह पुस्तक पहली बार स्पष्ट करती है कि हंसराज वोहरा ने भगत सिंह के साथ धोखा क्यों किया, साथ ही इसमें सुखदेव के ऊपर भी नई रोशनी में विचार किया गया है जिनकी वफ़ादारी पर कुछ इतिहासकारों ने सवाल उठाए हैं। लेकिन इसके केन्द्र में भगत सिंह का हिंसा का प्रयोग ही है जिसकी गांधी जी समेत अन्य अनेक लोगों ने इतनी कड़ी आलोचना की है। भगत सिंह की मंशा अधिक से अधिक लोगों की हत्या करके या अपने हमलों की भयावहता से अंग्रेज़ों के दिल में आतंक पैदा करना नहीं था, न उनकी निर्भयता का उत्स सिर्फ़ बन्दूक़ों और जवानी के साहस में था। यह उनके अध्ययन से उपजी बौद्धिकता और उनके विश्वासों की दृढ़ता का मिला-जुला परिणाम था।
Bharatiya Videsh Neeti
- Author Name:
Jn Dixit
- Book Type:

- Description: प्रस्तुत पुस्तक में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्री जे.एन. दीक्षित द्वारा पचास वर्षो की अवधि के विस्तृत फलक पर भारतीय विदेश नीति के विभिन्न चित्र सशक्त तथा प्रभावशाली ढंग से उकेरे गए हैं । लेखक ने 1947 को भारतीय विदेश नीति का आरंभ काल माना है । इन्होंने बताया है कि पं. जवाहरलाल नेहरू ने भारत की विदेश नीति का मूलाधार रखा तथा इसके बाद उनके उत्तराधिकारियों ने इस दिशा में किस प्रकार से व्यापक और महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । इस महत्त्वपूर्ण आख्यान का वर्णन करते समय लेखक ने कालक्रमानुसार भारत की विदेश नीति के विविध पक्षों को उजागर किया है । इसके साथ ही उन पक्षों के राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पड़नेवाले प्रभावों का भी विवेचन किया है तथा ऐसी युगांतकारी घटनाओं को शामिल किया है जिनका भारतीय विदेश नीति की प्राथमिकताओं पर प्रभाव पड़ा है । इसके अतिरिक्त इस पुस्तक में उन घटनाओं के परिणामों तथा प्रतिक्रियाओं का भी विश्लेषण किया गया है । उदाहरण के तौर पर-सन् 1947-48, 1965 तथा 1971 में भारत-पाक युद्ध; संयुक्त राष्ट्र का संदेहास्पद रवैया तथा कश्मीर का मुद्दा; 1962 में भारत-चीन युद्ध; 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का कब्जा; महाशक्तिशाली सोवियत संघ का विघटन; कश्मीर की समस्या तथा पाकिस्तान की ' परोक्ष युद्ध ' की कार्यनीति; 1991 में खाड़ी युद्ध; मई 1998 में भारत-पाक द्वारा किए गए परमाणु परीक्षण । इस पुस्तक में विश्व के विभिन्न देशों-विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ, चीन तथा पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करते हुए घटनाओं के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय संबंधों का विशद विवेचन किया गया है । भारतीय विदेश नीति को आधार बनाकर लिखी गई यह पुस्तक निस्संदेह एक उत्कृष्ट कृति है ।
Purabiyon Ka Lokvritt Via Des-Pardes
- Author Name:
Zilani Bano
- Book Type:

- Description: एक गतिशील सांस्कृतिक संरचना है। वस्तुत: यह उस सामूहिक विवेकशील जीवन-पद्धति का नाम है जो सहज, सरल और भौतिकवादी होने के साथ-साथ अपनी जीवन्त परम्पराओं को अपने दैनिक जीवन के संघर्ष से जोड़ती चलती है। यह लोकमानस को आन्दोलित करने का सामर्थ्य रखती है। एक समाजशास्त्रीय अवधारणा के रूप में उसे समझने की चेष्टाएँ अक्सर उसकी अन्दरूनी गतिशीलता और परिवर्तनशीलता की अनदेखी करती चलती हैं। इसके चलते यह मान लिया जाता है कि लोकसंस्कृति प्राक्-आधुनिक समाज की संस्कृति है और इस समाज के विघटन के साथ लोक को भी अन्तत: विघटित होना ही है। समाजविज्ञानों के पास एक ऐसे लोक की कल्पना ही नहीं है जो आधुनिकता के थपेड़े खाकर भी जीवित रह सके। सच्चाई यह है कि वास्तविकता के धरातल पर लोक न सिर्फ़ विद्यमान है बल्कि अपार जिजीविषा के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव के साथ क़दम मिलाते हुए वह निरन्तर अपने को बदलने का प्रयत्न भी कर रहा है। लोक का सामना कामनाओं की बेरोक-टोक स्वतंत्रता पर आधारित जिस भोगमूलक संस्कृति से हो रहा है, उसके पीछे साम्राज्यवाद की अनियंत्रित ताक़त भी है। यह किसी भी समाज की बुनियादी मानवीय आकांक्षाओं को नकारकर अपने निजी हितों के अनुकूल, उसकी प्राथमिकताओं को मोड़ने में समर्थ है। इस पुस्तक में पूरबिया संस्कृति के अनुभवाश्रित विश्लेषण, उसकी जिजीविषा और कामकाज के सिलसिले में स्थानान्तरण के परिप्रेक्ष्य में उसके सामने मौजूद चुनौतियों का अध्ययन किया गया ह
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