Pratinidhi Kahaniyan ; shani
Author:
ShaniPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Short-story-collections0 Reviews
Price: ₹ 60
₹
75
Available
शानी हिन्दी साहित्य के एक विरल कथाकार हैं। अनछुए-अनदेखे यथार्थ को एक बड़े कैनवस पर रचने के लिए शानी के पास जो विज़न था, वह विघटन के इस दौर में आज भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। उसे प्रस्तुत संग्रह की इन प्रतिनिध कहानियों में भी साफ़ देखा जा सकता है। एक तरफ़ उन्होंने 'जनाजा', 'युद्ध', 'जली हुई रस्सी', सरीखी रचनाओं के ज़रिए विभाजन के बाद से अपने में चन्द मुस्लिम समाज के बहुत सारे डर, असमंजस और विरोधाभास हमारे सामने रखे हैं, तो दूसरी ओर 'जहाँपनाह जंगल' जैसी दुनिया उद्घाटित की है और 'परस्त्रीगमन' जैसा नजरिया पेश किया है। उनकी कहानियों में हमें अपने भीतर की वह दबी हुई चीख़ सुनाई पड़ती है, जिसे हम रोज़ मुल्लवी करते चलते थे। साथ ही, उनकी दूरबीनी नज़र के सामने हम अपने कार्यकलापों को बौना, व्यर्थ और क्षणभंगुर होता हुआ भी पाते हैं। संक्षेप में, उनके पाठकों को कहीं छुटकारा नहीं है—हर हालत में वे पात्रों की नियति के सहभोगी हैं—उसमें विद्रूप हो, व्यंग्य हो या कभी न भुलाया जानेवाला अपमान।</p>
<p>शानी के रचना-संसार से अपरिचित पाठकों के लिए यह संकलन यक़ीनन प्रतिनिधि सिद्ध होगा।
ISBN: 9788126701995
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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Description:
हिन्दी के सुपरिचित कहानीकार तथा कथा समीक्षक डॉ. विजयमोहन सिंह का यह चौथा कहानी-संग्रह है। संग्रह की अधिकांश कहानियाँ उस मुहावरे से बाहर का पाठ प्रस्तुत करती हैं जिन्हें हम सामान्यतः ‘आधुनिक कहानी’ कहते हैं। न केवल शिल्प तथा भाषा के स्तर पर बल्कि कथानक और ट्रीटमेंट के स्तर पर भी ये कहानियाँ परिचित तथा रूढ़ मुहावरों से पृथक् अपनी निजी कथा भाषा का निर्माण करती हैं। कुछ कहानियों में संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग एक विशेष प्रकार की व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए किया गया है जो परम्परागत इतिवृत्तात्मक शैली को एक नए सन्दर्भ प्रदान करता है।
‘अंगरक्षक’ जैसी कहानी एक ऐसी सामाजिक विडम्बना को प्रस्तुत करती है जो समकालीन परिवेश में स्त्री की क्रूर नियति को सामने लाती है। प्रायः सर्वत्र व्याप्त एक अन्तर्निहित गूढ़ व्यंग्य इन कहानियों की केन्द्रीय विशेषता है। इन कहानियों के बारे में स्वयं लेखक का कहना है कि मेरी कहानियों की जो शृंखला पिछले दो दशकों से चली आ रही है, ये कहानियाँ उसके विराम की कहानियाँ हैं क्योंकि उस ‘सामन्ती अवशेष’ का जितना उत्खनन मैं कर सकता था, कर चुका—‘एक बँगला बने न्यारा’ से लेकर इन कहानियों तक।
संग्रह का शीर्षक ग़ालिब के इस विख्यात शे’र का अंश है जो इस संग्रह की एक कहानी का शीर्षक भी है। आज़ादी के बाद के परिवर्तित होते हुए सामाजिक-राजनैतिक परिवेश में उससे असम्पृक्त तथा उसके अपने को अजनबी अकेला और उखड़ा हुआ महसूस करनेवाला सामन्त वर्ग का प्रतिनिधि कहानी के नायक को सहसा अपने अस्तित्व की निरर्थकता का बड़ी शिद्दत से एहसास होने लगता है जिसकी परिणति आत्महत्या में होती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि मूलतः यह ‘आत्महत्या’ या अन्त एक पूरे युग का अन्त है जो आज अप्रासंगिक तथा निरर्थक हो चुका है।
Jamuni
- Author Name:
Mithileshwar
- Book Type:

- Description: मिथिलेश्वर ग्रामीण परिवेश के सशक्त कथाकार हैं। उनकी लम्बी कहानी ‘जमुनी’ को कृषक-जीवन की महागाथा कहा जा सकता है, जिसमें एक सामान्य भारतीय कृषक परिवार के प्रेम-घृणा, आस्था-विश्वास, आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, सम्पत्ति-विपत्ति और उत्थान-पतन का मार्मिक एवं सजीव चित्र प्रस्तुत किया गया है...। शिल्प का रचाव निश्चय ही कहानी को महत्त्वपूर्ण बना देता है, किन्तु कहीं-कहीं अनायास सादगी ही शिल्प का शृंगार बन जाती है। प्रेमचन्द का कथाशिल्प ऐसा ही था। वर्तमान कथाकारों में मिथिलेश्वर का कथाशिल्प भी इसी प्रकार का है।’’ —डॉ. राकेश गुप्त एवं डॉ. ऋषिकुमार चतुर्वेदी ‘हिन्दी कहानी 1991-95’, खंड-2 का भूमिकांश शीर्षक कथा ‘जमुनी’ एक लम्बी कहानी है जिसमें एक कृषक परिवार का संघर्ष जीवन्त हो उठता है और जहाँ अपनी भूख-प्यास और नींद-आराम को दरकिनार करते हुए हर एक की चिन्ता बीमार भैंस को मृत्यु के मुख में जाने से बचाने की है, क्योंकि वह भैंस ही उनकी सुख-समृद्धि का केन्द्र है। ‘जमुनी’ के अतिरिक्त इस संग्रह की अन्य कहानियाँ भी जीवन और जगत के जरूरी सवालों के जवाब तलाशती अमिट प्रभाव क़ायम करनेवाली कहानियाँ हैं। निःसन्देह, यह कहानी-संग्रह समर्थ कथाशिल्पी मिथिलेश्वर के प्रौढ़ कथा-लेखन की सार्थक यात्रा का द्योतक है। ‘बाबूजी’ के कथाकार ने अपने लेखकीय नैरन्तैर्य और श्रेष्ठ कथा-लेखन के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट मौजूदगी का एहसास कराते हुए हिन्दी कथा-जगत को और अधिक ऊर्जस्वित और विकसित किया है...।
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