
Stritva Se Hindutva Tak
Publisher:
Rajkamal Prakashan Samuh
Language:
Hindi
Pages:
287
Country of Origin:
India
Age Range:
18-100
Average Reading Time
574 mins
Book Description
प्रस्तुत पुस्तक का विषय है औपनिवेशिक उत्तर भारत में हिन्दू संगठनों, प्रचारकों और विचारों के सांस्कृतिक जगत में लिंग की केन्द्रीय भूमिका, यौनिकता का संकीर्ण विमर्श और साम्प्रदायिक उभार से इसके अन्तर्सम्बन्ध।</p> <p>अभिलेखागारों और प्रचलित साहित्य विधाओं के विशद शोध के ज़रिए यह दर्शाया गया है कि किस प्रकार मुख्यतः मध्यवर्गीय हिन्दू प्रचारकों ने हिन्दी के प्रिंट-पब्लिक माध्यमों के इस्तेमाल से नए सामाजिक और नैतिक प्रतिमान गढ़ने, और एक विविध आबादी को एकरूप, आधुनिक हिन्दू समुदाय बनाने की कोशिश की। पुस्तक के पहले भाग में हिन्दू प्रचारकों की नैतिक और यौनिक चिन्ताएँ हैं। बाज़ारू साहित्य, कामोत्तेजक इश्तहार, लोकप्रिय संस्कृति, अश्लीलता, महिलाओं के मनोरंजन, शिक्षा और घरेलू परिदृश्यों की पड़ताल के ज़रिए लेखिका ने स्पष्ट किया है कि किस प्रकार एक ‘सम्माननीय’, ‘सुसंस्कृत’ हिन्दू सामाजिक और राजनैतिक पहचान बनाने के लिए इन सारे क्षेत्रों को पुनर्परिभाषित करने की कोशिशें हुईं। साथ ही इन प्रयासों के विरोध भी हुए, जिनसे हिन्दी साहित्य और हिन्दू पहचान की जटिलताओं और विषमताओं का भान होता है।</p> <p>दूसरे भाग में लिंग के प्रिज़्म से रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में बढ़ता हुआ साम्प्रदायिककरण देखा गया है। लेखिका ने हिन्दू पुरुषत्व की चिन्ताओं, मुस्लिम मर्द की साँचेदार तस्वीर, अपहरण-विरोधी अभियान, गाज़ी मियाँ की आलोचना और विधवा-विवाह के बदलते विमर्श पर ध्यान देते हुए बताया है कि हिन्दू प्रचारक हिन्दू औरत और मुस्लिम मर्द के बीच मेल-जोल कैसे रोकना चाहते थे। इन सबके बीच, यह पुस्तक महिलाओं के हस्तक्षेप—नकार और प्रतिकार—की भी चर्चा करती है, जिससे हिन्दू पहचान की तस्वीर खंडित होती है।</p> <p>