Patkatha Lekhan : Ek parichay
Author:
Manohar Shyam JoshiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Other0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
पटकथा-लेखन एक हुनर है। अंग्रेज़ी में पटकथा-लेखन के बारे में पचासों किताबें उपलब्ध हैं और विदेशों के, ख़ासकर अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में पटकथा-लेखन के बाक़ायदा पाठ्यक्रम चलते हैं। लेकिन भारत में इस दिशा में अभी तक कोई पहल नहीं हुई। हिन्दी में तो पटकथा-लेखन और सिनेमा से जुड़ी अन्य विधाओं के बारे में कोई अच्छी किताब छपी ही नहीं है। इसकी एक वजह यह भी है कि हिन्दी में सामान्यतः यह माना जाता रहा है कि लिखना चाहे किसी भी तरह का हो, उसे सिखाया नहीं जा सकता। कई बार तो लगता है कि शायद हम मानते हैं कि लिखना सीखना भी नहीं चाहिए। यह मान्यता भ्रामक है और इसी का नतीजा है कि हिन्दी वाले गीत-लेखन, रेडियो, रंगमंच, सिनेमा, टी.वी. और विज्ञापन आदि में ज़्यादा नहीं चल पाए।</p>
<p>लेकिन इधर फ़िल्म व टी.वी. के प्रसार और पटकथा-लेखन में रोज़गार की बढ़ती सम्भावनाओं को देखते हुए अनेक लोग पटकथा-लेखन में रुचि लेने लगे हैं, और पटकथा के शिल्प की आधारभूत जानकारी चाहते हैं। अफ़सोस कि हिन्दी में ऐसी जानकारी देनेवाली पुस्तक अब तक उपलब्ध ही नहीं थी।</p>
<p>‘पटकथा-लेखन : एक परिचय’ इसी दिशा में एक बड़ी शुरुआत है, न सिर्फ़ इसलिए कि इसके लेखक सिद्ध पटकथाकार मनोहर श्याम जोशी हैं, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने इस पुस्तक की एक-एक पंक्ति लिखते हुए उस पाठक को ध्यान में रखा है जो फ़िल्म और टी.वी. में होनेवाले लेखन का ‘क, ख, ग’ भी नहीं जानता। प्राथमिक स्तर की जानकारियों से शुरू करके यह पुस्तक हमें पटकथा-लेखन और फ़िल्म व टी.वी. की अनेक माध्यमगत विशेषताओं तक पहुँचाती है; और सो भी इतनी दिलचस्प और जीवन्त शैली में कि पुस्तक पढ़ने के बाद आप स्वतः ही पटकथा पर हाथ आज़माने की सोचने लगते हैं।
ISBN: 9788126715008
Pages: 183
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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यह प्रक्रिया, विनोबा के अनुसार, केवल लेखक तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि पाठक या ग्रहीता में भी घटित होती है। वह, इसलिए अर्थ की निश्चितता को उत्तम साहित्य का गुण नहीं मानते। कह सकते हैं कि उत्तर-आधुनिकतावादी साहित्य-चिन्तकों की तरह वह साहित्यिक रचनात्मकता को अर्थ की निरंकुशता से मुक्ति के पक्षधर हैं। विनोबा उन साहित्यिक सैद्धान्तिकों की पंक्ति में आ खड़े होते हैं जो अर्थ या तात्पर्य को पाठकाश्रित मानते हैं। वह मानते हैं कि किसी रचना के न केवल परस्पर विरोधी भाष्य लिखे जा सकते हैं, बल्कि ऐसा भी भाष्य लिखा जा सकता है, जो स्वयं लेखक के अपने मन्तव्य के विरोध में हो और सम्भव है कि न केवल अन्य लोग, बल्कि स्वयं लेखक भी उसे स्वीकार कर ले। साहित्य के सत्य की अनुभूत्यात्मक प्रक्रिया होने के कारण विनोबा अपनी अनुभूति के प्रति निष्ठा को साहित्यकार के लिए अनिवार्य मानते हैं—यही साहित्यकार की नैतिकता है।
विनोबा के साहित्य-चिन्तन से सम्बन्धित लेखों और टिप्पणियों का यह चयन साहित्य-अध्येताओं की ही नहीं, सामान्य पाठक-वर्ग की साहित्यिक समझ को भी निश्चय ही उत्प्रेरित कर सकेगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।
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—अशोक वाजपेयी
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