Kohbar Ki Shart
Author:
Keshav Prasad MishraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
‘कोहबर की शर्त’ एक ऐसा उपन्यास है, जिसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो गाँवों—बलिहार और चौबे छपरा—का जनजीवन गहन संवेदना और आत्मीयता के साथ चित्रित हुआ है—एक रेखांकन की तरह, यथार्थ की आड़ी-तिरछी रेखाओं के बीच झाँकती-सी कोई छवि या आकृति। यह आकृति एक स्वप्न है। इसे दो युवा हृदयों ने सिरजा था। लेकिन एक पिछड़े हुए समाज और मूल्य-विरोधी व्यवस्था में ऐसा स्वप्न कैसे साकार हो? चन्दन के सामने ही उसके स्वप्न के चार टुकड़े—कुँवारी गुंजा, सुहागिन गुंजा, विधवा गुंजा और कफ़न ओढ़े गुंजा—हो जाते हैं। इतना सब झेलकर भी चन्दन यथार्थ की कठोर धरती पर पूरी दृढ़ता और विश्वास से खड़ा रहता है।</p>
<p>‘कोहबर की शर्त’ एक तरह से निराश और बरबाद ज़िन्दगी में एक नई प्रेरणा, नई स्फूर्त और नया उत्साह फूँकने की ही शर्त है, जिसका विस्तार इस मर्मस्पर्शी उपन्यास में सहज ही देखा जा सकता है।</p>
<p>उल्लेखनीय है कि यह उपन्यास हिन्दी सिनेमा की दो चर्चित फ़िल्मों का आधार बना है : 1982 में हिरेन नाग द्वारा निर्देशित ‘नदिया के पार’ तथा हाल के वर्षों में बेहद लोकप्रिय रही ‘हम आपके हैं कौन।’
ISBN: 9788126714223
Pages: 136
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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तमिल के श्रेष्ठ महाकाव्य ‘शिलप्पाधिकारम’ के रचयिता कवि इलंगो ने जिस श्रेष्ठि-कुल के सामान्य जन को काव्य के केन्द्र में रखा था, उसी कुल की एक शाखा कालान्तर में धुर दक्षिण की ओर संक्रमण कर गई और कन्याकुमारी ज़िले में इरणियल परिसर के सात गाँवों में बसकर एलूर चेट्टी कहलाई। आधुनिक तमिल साहित्य के जाने-माने हस्ताक्षर नील पद् मनाभन ने इसी चेट्टी-समुदाय के सम्पूर्ण जीवन को, वर्तमान युग में अपनी ही रूढ़ियों और अन्धविश्वासों के मकड़जाल में फँसकर अपनी अस्मिता बनाए रखने के लिए उसके द्वारा किए जा रहे जद्दोजहद को इस उपन्यास में उकेरा है। उपन्यास की ख़ासियत यह है कि एक समुदाय-विशेष के आस्था-विश्वास, जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत विविध संस्कार, रूढ़ियाँ, अन्धविश्वास और वर्जनाएँ, लोरी और शोकगीत सहित ग्राम्य गीत, कर्ण-परम्परा से चली आ रही दन्तकथाएँ आदि पात्रों की अपनी बोली में अविकल रूप से इसमें दर्ज हैं। इस कारण यह उपन्यास नृविज्ञानियों और समाज-भाषावैज्ञानिकों के लिए अमूल्य दस्तावेज़ का काम दे सकता है।
लगभग सत्तर साल की कालावधि में व्याप्त तीन पीढ़ियों के इतिवृत्त के केन्द्र में है दिरवी का परिवार, जो अपनी नेकनीयती और भोलेपन के कारण समाज के सबल वर्ग के स्वार्थपूर्ण हथकंडों का शिकार बनता है। अपनी बहन पर लगाए गए झूठे इल्जाम के ख़िलाफ़ यौवन की दहलीज़ पर क़दम रख रहे दिरवी को अकेले ही एक धर्मयुद्ध लड़ना पड़ता है और इस संघर्ष में वह कैसे कामयाब होता है, यही इस उपन्यास का केन्द्रबिन्दु है।
उपन्यास में यह भी दिखाया गया है कि अर्थहीन रूढ़ियों और परम्परागत विश्वासों की दुहाई देकर नारी को घर की चहारदीवारी के अन्दर बन्द रखने की मूढ़ता जिस समुदाय में प्रचलित हो, उसमें रातोंरात आमूल-चूल परिवर्तन लाना सम्भव नहीं है। अभी एक विशाल रणांगण में एक लम्बा युद्ध लड़ना शेष है। कल्पना की रंगीनी और अतिरंजनापूर्ण वर्णनों से सर्वथा अस्पृश्य होकर भी कोई कृति इतनी रोचक और मर्मस्पर्शी हो सकती है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है नील पद् मनाभन की ‘पीढ़ियाँ’।
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