Tulsi : Aadhunik Vatayan Se
Author:
Ramesh Kuntal MeghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 796
₹
995
Available
आपके हाथों में; यह पुनर्नवा कृति! तुलसी की बिलकुल नए परिदृश्य में पुनर्प्रस्तुति!!</p>
<p>तुलसी के युग, समाज, जीवन, व्यक्तित्व, कृतित्व का आधुनिक समुद्र-मन्थन। बेहद चौंकानेवाले नतीजे निकले क्योंकि सुदीर्घ मध्यकाल की सर्वांगीणता का अधिग्रहण करनेवाला यह एकल कृति सन्तभक्त के रूप में पूजित तथा वर्णाश्रम-प्रतिपादक और नारी-शूद्र-निन्दक के रूपों में लांछित भी है। तथापि दर्पण के साथ दीपकवाली अन्तीक्षा से ‘तुलसी-कोड’ का विचित्र उद्घाटन बेहद चकित करता है क्योंकि वे समन्वय तथा कलिकाल-संग्राम, दोनों में साथ-साथ जूझे और आत्मोत्तीर्ण हुए। अन्ततोगत्वा लांछनों को धोकर वे इहलौकिक, यथार्थोन्मुख, त्रासदकरुण एवं सहज होते जाते हैं।</p>
<p>सुदीर्घ मध्यकाल के सुपरिगठन के द्वन्द्वात्मक शुक्ल-श्याम आयामों में उन्होंने मध्ययुग का मिथकीयकरण, पौराणिक चेतना का मध्यकालीनीकरण, सामन्तीय ऐश्वर्य का कृषकीयकरण, तथा धर्म-दर्शन-साहित्य का तुलसीयकरण करके इन चतुरंग दिशाओं में एक नए संसार को ही प्रकाशित कर डाला। हमने भी आधुनिकताबोध एवं समाजविज्ञानों के समकालीन औज़ारों से इसकी पुनर्निमिति की है। इससे इस महासत्य का भी विस्फोट होता है कि पाँच-छह शताब्दियों से वे अविराम आगे ही बढ़ते जा रहे हैं—अपने सभी अन्तर्विरोधों एवं विरोधाभासों के साथ-साथ। भला क्यों?</p>
<p>क्योंकि उत्तर यह है कि दिव्य सौन्दर्यबोध (लीला), कृषक-सौन्दर्यबोधशास्त्र (प्रीति), विविध काव्य-धर्मसूत्र (भक्ति), मिथक-आलेखकारी (चरितपावन) के शास्त्रेतर मार्ग भी बनाते हुए तुलसी बाबा ने विरासत में उथल-पुथल मचाकर यश-अपयश कमा डाला।</p>
<p>तुलसी पर ऐसी अनुसन्धानपरक और आलोचिन्तनात्मक कृतियाँ सचमुच नगण्य हैं जो कालिदास के बाद के इस महत्-महान कृती का निरपेक्ष, निर्भीक तथा बिन्दास और बहुविध प्रस्तुतीकरण करें।</p>
<p>तो आइए! आधुनिक वातायन से इस किताब का दिग्दर्शन किया जाए। तुलसी के हरेक गम्भीर अध्येता-अनुरागी और सभी पुस्तकालयों के लिए सर्वथा अनिवार्य।</p>
<p><strong> </strong>
ISBN: 9788183610834
Pages: 344
Avg Reading Time: 11 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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वर्तमान समय के केन्द्रीय किन्तु अवरुद्ध प्रश्नों के साथ पुरुषोत्तम अग्रवाल के टकराव और आत्ममन्थन की फलश्रुति है—‘विचार का अनंत’। एकेश्वरवाद को स्वयंसिद्ध और इतिहास का लक्ष्य मानने की सर्वस्वीकृत मान्यता का तर्कसंगत विरोध करते हुए इस पुस्तक में एकेश्वरवादी आस्था-तन्त्र और ज्ञान-मीमांसा की गहरी पड़ताल की गई है। इन निबन्धों में सर्जनात्मकता के आत्मसंघर्ष और समाज के साथ उसके सम्बन्ध को समझने की अकुलाहट है।
‘विचार का अनंत’ एक ऐसी पुस्तक भी है जिसमें सर्जनात्मकता मात्र की अपनी विशिष्ट ज्ञान-मीमांसा को अत्यन्त विचारोत्तेजक ढंग से रेखांकित किया गया है। यह पुस्तक भक्ति-संवेदना को ‘शास्त्रोक्त’ और ‘काव्योक्त’ की परस्पर संबद्ध किन्तु भिन्न कोटियों में देखने का आग्रह करती है। ‘विचार का अनंत’ इस अर्थ में विशिष्ट है कि यह सभ्यताओं, संस्कृतियों, परम्पराओं के साथ संवाद करती है और यह भी स्पष्ट करती है कि उन दिनों अत्यन्त प्रचलित अस्मिता-विमर्श की नैतिक परिणतियाँ किस हद तक अनर्थकारी हैं या हो सकती हैं। संवेदनशील मनुष्य के मन में सहज रूप से विद्यमान, साझे मानवीय चैतन्य की सम्भावना को सशक्त स्वर देने के कारण ‘विचार का अनंत’ की उपस्थिति अपनी विशिष्टता के साथ सदैव बनी रहेगी।
Hindi Dalit Sahitya : Samvedana Aur Vimarsh
- Author Name:
P.N. Singh
- Book Type:

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Description:
दलित रचनाकार और विमर्शकार चाहे जितना भी शहादती तेवर अपनाएँ, अपने पूर्व के कम्युनिस्टों की तुलना में इन्होंने सुरक्षित विकेट पर ही खेला है। अपराध-बोध से पीड़ित पारम्परिक चेतना सुरक्षात्मक रही है अथवा चुप। प्रगतिशील चेतना ने भी विरोध न कर दलित साहित्य संवेदना के कतिपय अतिरेकों के विरुद्ध मात्र सावधान किया है। इसकी आलोचना मित्रवत् रही है।
प्रथम आधुनिक दलित होने का गौरव पटना के दलित कवि ‘हीरा डोम’ को दिया जा सकता है जिनकी एक कविता ‘अछूत की शिकायत’, सरस्वती में 1914 में प्रकाशित हुई थी। इसमें दलित पीड़ा का मार्मिक अंकन है। 1914 में अपने जाति-नाम ‘डोम’ का उल्लेख उनके दलितवादी स्वर का भी परिचायक है।
...कुल मिलाकर, इसके राजनीतिक क्षितिज पर जो घटित हुआ है, लगभग वही इसके साहित्यिक फलक पर भी। अब दलित बुद्धिधर्मी पारम्परिक जातिबद्ध सोच से मुक्त किसी रैडिकल सामाजिक विवेक एवं नैतिकता के अग्रधावक नहीं लगते। इसी कारण ये अपने नव-अगड़ों की शिनाख़्त से बचते हैं। आरम्भिक सर्जनात्मक विस्फोट के बाद दलित कविता ने अपने लिए कोई नया पथ अन्वेषित करने की चिन्ता नहीं दिखाई।
Dwivediyugeen Aakhyan Kavya
- Author Name:
V. Gangadharan
- Book Type:

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Description:
द्विवेदीयुगीन आख्यान-काव्यों में रूढ़िवादी सामाजिक बन्धनों के प्रति विद्रोह, वर्तमान जीवन-पद्धति के विरुद्ध असन्तोष एवं संकुचित मनोवृत्ति के प्रति आक्रोश पाया जाता है। सांस्कृतिक पुनर्जागरण के इस काल में सामाजिक क्रान्ति पर विशेष बल दिया गया। फलत: लोगों में एकता, सेवा, त्याग और बलिदान की भावना ने काव्य में शिवत्व की स्थापना की। इन्हीं कारणों से तत्कालीन आख्यान-काव्यों में साम्प्रदायिक सामंजस्य, अछूतोद्धार, धर्म एवं जाति के भेदभाव को मिटाने का यथाशक्ति प्रयास किया गया।
प्रस्तुत पुस्तक में मुख्य विषय की आधारशिला संस्कृति की अवधारणा, स्वरूप आदि के विषय में भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों के मतों का विवेचन करते हुए सभ्यता और संस्कृति के सम्बन्ध पर विचार किया गया है। भारतेन्दु युग के अन्त और द्विवेदी-युग के पूर्वाभास के सम्बन्ध में विचार करने के उपरान्त तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनैतिक तत्त्वों की विशद व्याख्या अनिवार्य है, क्योंकि इसी परिवेश में द्विवेदीयुगीन आख्यान-काव्य का उदय हुआ।
द्विवेदी-युग के आख्यान-काव्यों में संस्कृति के आध्यात्मिक और लौकिक तत्त्व विभिन्न भूमिकाओं का स्पर्श करते हुए दृष्टिगत होते हैं। भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता, त्याग, आध्यात्मिकता, सत्यनिष्ठा, वर्ण-व्यवस्था आदि आदर्शों के साथ व्यावहारिक जीवन-प्रकृति में आ मिलनेवाले युगानुकूल प्रभावों के कारण होनेवाले परिवर्तनों के अन्तराल से शाश्वत तत्त्वों तक पहुँचने का प्रयास अत्यन्त मनोरंजक होने के साथ-साथ भारतीय चिन्तनधारा के विकास-क्रम को समझने में सहायक भी है।
कथानक और चरित्र आख्यान-काव्य के प्रमुख तत्त्व हैं, इनके माध्यम से ही प्राय: कवि अपने उद्देश्य तक पाठकों को पहुँचाता है। प्रस्तुत पुस्तक में शासकीय विवेचन से पृथक् इन दोनों तत्त्वों का सांस्कृतिक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक के अन्त में द्विवेदीयुगीन आख्यान-काव्यों का विशद अध्ययन करने के उपरान्त कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत किए गए हैं।
Dwabha
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

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Description:
नामवर सिंह जीते-जी विशिष्ट शख़्सियत की देहरी लाँघकर एक लिविंग ‘लीजेंड' हो चुके थे। तमाम तरह के विवादों, आरोपों और विरोध के साथ असंख्य लोगों की प्रसंशा से लेकर ‘भक्ति-भाव तक को समान दूरी से स्वीकारने वाले नामवर जी ने पिछले दशकों में मंच से इतना बोला कि शोधकर्ता लगातार उनके व्याख्यानों को एकत्रित कर रहे हैं और पुस्तकों के रूप में पाठकों के सामने ला रहे हैं। यह पुस्तक भी इसी तरह का एक प्रयास है लेकिन इसे किसी शोधार्थी ने नहीं उनके पुत्र विजय प्रकाश ने संकलित किया है।
इस संकलन में मुख्यत: उनके व्याख्यान हैं और साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखे-छपे उनके कुछ आलेख भी हैं। नामवर जी ने अपने जीवन-काल में कितने विषयों को अपने विचार और मनन विषय बनाया होगा, कहना मुश्किल है। अपने अपार और सतत अध्ययन तथा विस्मयकारी स्मृति के चलते साहित्य और समाज से लेकर दर्शन और राजनीति तक पर उन्होंने समान अधिकार से सोचा और बोला। इस पुस्तक में संकलित आलेख और व्याख्यान पुन: उनके सरोकारों की व्यापकता का प्रमाण देते हैं। इनमें हमें सांस्कृतिक बहुलतावाद, आधुनिकता, प्रगतिशील आन्दोलन, भारत की जातीय विविधता जैसे सामाजिक महत्त्व के विषयों के अलावा अनुवाद, कहानी का इतिहास, कविता और सौन्दर्यशास्त्र, पाठक और आलोचक के आपसी सम्बन्ध जैसे साहित्यिक विषयों पर भी आलेख और व्याख्यान पढ़ने को मिलेंगे।
पुस्तक में हिन्दी और उर्दू के लेखकों-रचनाकारों पर केन्द्रित आलेखों के लिए एक अलग खंड रखा गया है जिसमेँ पाठक मीरा, रहीम, संत तुकाराम, प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, त्रिलोचन, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, परसाई, श्रीलाल शुक्ल, ग़ालिब और सज्जाद ज़हीर जैसे व्यक्तित्वों पर कहीं संस्मरण के रूप में तो कहीं उन पर आलोचकीय निगाह से लिखा हुआ गद्य पढ़ेंगे।
बानगी के रूप में देश की सांस्कृतिक विविधता पर मँडरा रहे संकट पर नामवर जी का कहना है : ‘संस्कृति एकवचन शब्द नहीं है, संस्कृतियाँ होती हैं...सभ्यताएँ दो-चार होंगी लेकिन संस्कृतियाँ सैकड़ों होती हैँ...सांस्कृतिक बहुलता का नष्ट होते हुए देखकर चिन्ता होती है और फिर विचार के लिए आवश्यक स्रोत ढूँढ़ने पड़ते हैं।’ यह पुस्तक ऐसे ही विचार-स्रोतों का पुंज है।
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