Samajik Vimarsh ke Aaine Mein 'Chaak'
Author:
Vijay Bahadur SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Available
रेशम विधवा थी—ज़माने के लिए, रीति-रिवाजों के लिए, शास्त्र-पुराणों के चलते घर और गाँव के लिए। विधवा सिर्फ़ विधवा होती है, वह औरत नहीं रहती—फिर यह बात पता नहीं उसे किसी ने समझाई कि नहीं? और रेशम ने, विधवा रेशम ने गर्भ धारण कर लिया। मगर जब सास ने कौड़ी-सी आँखें निकालकर उसे देखा, यह कहते हुए—‘मेरे बेटा की मौत से दगा करनेवाली, हरजाई, बदकार तेरा मुँह देखने से नरक मिलेगा’, तो रेशम ने कहा—‘आज को तुम्हारा बेटा मेरी जगह होता तो पूछती कि तू किसके संग सोया था?...तुम ख़ुश हो रही होतीं कि पूत की उजड़ी ज़िन्दगी बस गई। पर मेरा फजीता करने पर तुली हो।’</p>
<p>उपन्यास के शुरुआती पृष्ठों पर ही सास और गर्भवती विधवा बहू के बीच यह दृश्य खड़ा कर मैत्रेयी ने पहली बार स्त्री की निगाह से देखने की पहल की है। अन्तत: हिन्दी आलोचना का चला आता सामाजिक व्याकरण यहाँ अचकचा उठता है और आलोचकों को अपना परम्परागत सामाजिक ऑनर याद आने लगता है, जिन्होंने घर-परिवार के घिसे-पिटे और सामाजिक जीवन में लाई जानेवाली फ़ॉर्मूलाई तरक़़ीबों और क्रान्तिभ्रष्ट क्रान्तियों के यथार्थ को अपने किसी साफ़-सुथरे और दिखावटी सच की तरह अब तक पाल-पोस रखा था। मैत्रेयी का लेखन नए सिरे से पढ़ने की ज़मीन तैयार करता है। यह भी पूछने का मन बनाता है कि महादेवी, तुम नीर और भरी दु:ख की बदली क्यों हो? क्यों इस विस्तृत नभ का कोई एक कोना भी तुम्हारा अपना नहीं है? क्या किसी आलोचक ने इसके सामाजिक-आर्थिक आशयों और आधारभूत ज़मीनी सच्चाइयों पर बात करना ज़रूरी माना? मैत्रेयी इस अर्थ में एक समर्पणशील विनयी लेखिका नहीं हैं। उनकी बनावट में यह है ही नहीं। किसी भी क़दम पर वे गुड़िया बनने को तैयार नहीं हैं। ‘चाक’ इस सम्बन्ध में उनके लेखन का घोषणा-पत्र भी है और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक दस्तावेज़ भी। यही इसका अन्तरंग चरित्र और औपन्यासिक शील भी है।
ISBN: 9788183616584
Pages: 176
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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'भाषा की जड़ों को हरियानेवाला रसायन जो उसे ज़िन्दा रखता है, उसे सम्पन्न करता है, वह 'लोक' का स्रोत है। इस स्रोत की राह दिखाने के लिए हम रेणु के ऋणी हैं।' हमारे समय की वरिष्ठतम गद्यकार कृष्णा सोबती ने अपने साक्षात्कारों आदि में अनेक बार इस बात का उल्लेख किया है। उन्हें लगता है कि रेणु ने सभ्य भाषाओं और नागरिकताओं के इकहरे वैभव के बीच भारत के उस बहुस्तरीय वाक् को स्थापित किया जो अनेक समयों की अर्थच्छटाओं को सोखकर सन्तृप्त ध्वनियों में स्थित हुआ है और वास्तव में वही है जो भारत के असली विट और सघन अर्थ-सामर्थ्य का प्रतिनिधित्व करता है।
रेणु ने अपने लोक के आनन्द और अवसाद इन्हीं ध्वनियों, इन्हीं भंगिमाओं में व्यक्त किए। दुर्भाग्य से देश के किसी और हिस्से से ऐसा साहस करनेवाले लेखक न आ सके, और सिर्फ़ यही नहीं, रेणु को और उनकी वाक्-भंगिमाओं को समझनेवाले लोगों की भी कमी महसूस की गई। परिणाम यह कि उनको बड़ा तो मान लिया गया लेकिन उनका बहुत कुछ ऐसा रह गया जिसे न समझा गया, न समझा जा सका।
यह पुस्तक रेणु के उसी अलक्षित को लक्षित है। लेखक का कहना है कि 'इसके पूर्व रेणु पर जो कहा गया है, वह तो कहा ही जा चुका है। यह पुस्तक उन सबके अतिरिक्त है, उनके खंडन-मंडन में नहीं है...सतह पर की अर्थ-चर्वणा बहुत हो चुकी। रेणु का अलक्षित ही रेणु के गौरव का आधार है।' अर्थात् वह अर्थ-लोक जो सुशिक्षित भावक के ज्यामितिक भाषा-बोध की पकड़ में आने से या तो रह जाता है, या ग़लत ढंग से पकड़ लिया जाता है। उम्मीद है, पढ़नेवाले इससे न सिर्फ़ रेणु को नए सिरे से पढ़ने को उत्सुक होंगे, बल्कि अपने समय की अस्पष्ट ध्वनियों को सुनने-समझने की सामर्थ्य भी जुटा पाएँगे।
Carabiaee Deshon Mein Hindi-Shiksha Aur Suriname Hindi Parishad Ka Itihas
- Author Name:
Pushpita Awasthi
- Book Type:

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विश्व के समुद्रतटीय देशों और द्वीपों में विदेशी सत्ताधारियों के द्वारा गिरमिटिया मज़दूरों के रूप में ले जाए गए भारतीय पुरखों ने जीविका और जीवन का संघर्ष करते हुए भारतीयता और भारत की संस्कृति बनाए रखी। इसी के ज़रिए उन्होंने विदेश में स्वदेश रचाए रखा। भारतवंशियों के घरों के आँगन और अहातों में गड़ी हुई झंडियाँ, मन्दिरों में फहराती हुई पताकाएँ और अन्य जाति, धर्म के समुदायों के साथ आनन्ददायी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध सूरीनामी आप्रवासी भारतवंशियों की आत्मीयता की गाथा का गान करते हैं। संस्कृति भाषा से जन्म लेती है और भाषा संस्कृति से अपनी पहचान बनाती है। विश्व के आप्रवासी भारतवंशियों की मातृभाषा आज भी किसी-न-किसी रूप में हिन्दी है, जिनके रक्त में संस्कृति की शक्ति है, वे अपनी भावी पीढ़ियों को येन-केन-प्रकारेण हिन्दी सिखाना चाहते हैं।
विश्व के दक्षिणी-पश्चिमी गोलार्द्ध के कैरेबियाई देशों के भारतवंशियों की बोली-बानी सरनामी हिन्दी है जिसे सूरीनाम गयानी देशों के आप्रवासी भारतीयों ने तुलसी, कबीर और लोकगीतों के साहित्य के सहारे हिन्दुस्तानी अवधी हिन्दी के आधार पर रचा।
विदेशों में हिन्दी की बोलियों के रूप में पुरखों की स्मृतियाँ बची और बसी हुई हैं। सूरीनाम में बसे पुरखों की हिन्दीतर पीढ़ियों ने सरनामी हिन्दी द्वारा हिन्दी भाषा को बचाए रखने का संघर्ष किया। गत पच्चीस वर्षों में सूरीनाम हिन्दी परिषद की अहम भूमिका है जिसने नीदरलैंड में बस रहे सूरीनामी भारतवंशियों के भीतर भी हिन्दी भाषा और हिन्दुस्तानी संस्कृति के संस्कार बसाए। भाषा के ऐसे ऐतिहासिक कार्यकर्ताओं का इतिहास प्रस्तुत है, क्योंकि इतिहास बनानेवाले इतिहास नहीं लिखा करते हैं।
Shuddha Kavita Ki Khoj
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

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Description:
यह पुस्तक 19वीं सदी में यूरोप में नई कविता का जो प्रवर्तन हुआ, उस पर विचार-विमर्श की एक व्यापक ज़मीन तैयार करती है। साथ ही, उसके परिप्रेक्ष्य में भारतीय कविता के विकास-क्रम में शुद्धता का पैमाना क्या रहा, और क्या होना चाहिए, इस पर भी अपना गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत करती है। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि यह पुस्तक शुद्धतावादी आन्दोलन का एक दुर्लभ शोधपूर्ण इतिहास भी है और दस्तावेज़ भी।
दिनकर जी का मानना है कि नई कविता हमेशा शुद्ध कविता नहीं होती, न सभी श्रेष्ठ काव्य शुद्ध काव्य के उदाहरण होते हैं। फिर भी उन्हें लगता है कि शुद्धता को लक्ष्य मानकर चलने से काव्य का नया आन्दोलन समझ में कुछ ज़्यादा आता है। इसलिए उन्होंने ‘कविता और शुद्ध कविता’, ‘शुद्ध कविता का इतिहास—1’, ‘शुद्ध कविता का इतिहास—2’, ‘कविता में दुरूहता’, ‘शुद्ध काव्य की सीमाएँ’, ‘परिभाषाहीन विद्रोह’, ‘मनीषी और समाज’, ‘कला में व्यक्तित्व और चरित्र’, ‘कला का संन्यास’ और ‘साहित्य में आधुनिक बोध’ पाठों के ज़रिए जहाँ-तहाँ से सामग्रियाँ बटोरकर शुद्धतावादी आन्दोलन का इतिहास खड़ा किया है और कविता की अनेक समस्याओं पर अपने दृष्टिकोण से विचार किया है।
दिनकर जी ने अपनी यह किताब बीसवीं सदी के सातवें दशक में इस उद्देश्य से लिखी थी कि हिन्दी के जो लेखक, कवि और पाठक अंग्रेज़ी अथवा किसी अन्य विदेशी भाषा के द्वारा पाश्चात्य साहित्य के सीधे सम्पर्क में नहीं हैं, वे इसका लाभ उठा सकें, उनसे बातचीत का एक ठोस ज़रिया बनाया जा सके।
शुद्धतावाद के केन्द्र में लिखी गई यह पुस्तक अपने विशद विवेचन के कारण पचास साल बाद भी वही महत्त्व रखती है, जो उस समय रखती थी।
Hindi Kriyaon Ki Roop-Rachana
- Author Name:
Badrinath Kapoor
- Book Type:

- Description: हिन्दी के आरम्भिक व्याकरण यूरोपीय विद्वानों ने लिखे थे। इन व्याकरणों को लिखने में उन्होंने वही पद्धति अपनाई, जिसमें उनके अपने व्याकरण लिखे गए थे। लौटिन पद्धति के उन व्याकरणों में पदों का वर्गीकरण अर्थमूलक आधार पर ही होता था। बाद में जब हिन्दी भाषाभाषी विद्वानों ने व्याकरण लिखे तो उन्होंने भी जाने-अनजाने पूर्वलिखित व्याकरणों को आधार बनाया। भारतीय प्राचीन पद्धति पदों का विवेचन तथा वर्गीकरण उनकी रूप-रचना के आधार पर ही करती थी। विश्वविख्यात ‘अष्टाध्यायी’ इसका ज्वलन्त प्रमाण है। प्रस्तुत पुस्तक में क्रियापदों के सभी वर्गीकरण पदों की रूप-रचना पर ही आधारित हैं। एकपदीय और द्विपदीय क्रियापद, विकारी और अविकारी क्रियापद, कर्तृ अनुगामी और कर्मादि-अनुगामी क्रियापद, कर्तृवाच्य और कर्मादिवाच्य क्रियापद आदि सभी वर्गीकरणों का आधार पूर्णतः उनकी रूप-रचना ही है।
Hindi Aalochana Ka Vikas
- Author Name:
Madhuresh
- Book Type:

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मधुरेश की प्रस्तुत पुस्तक ‘हिन्दी आलोचना का विकास’ सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ही आलोचना की मुख्य प्रवृत्तियों और आलोचकों के मूल्यांकन का प्रयास करती है। हिन्दी आलोचना में लोगों के अपने कुछ प्रिय आलोचक और युग रहे हैं।
मधुरेश वस्तुनिष्ठ और विश्वसनीय रूप में समूची हिन्दी आलोचना और आलोचकों का मूल्यांकन करते हैं। न उनका कोई प्रिय युग है, न ही आलोचक। वे सदैव सामाजिक विकास के सन्दर्भ में आलोचना को देखते-परखते हैं और कैसी भी चयनवादी दृष्टि से बचते हैं। हिन्दी में मार्क्सवादी और समकालीन आलोचना पर कदाचित् पहली बार यहाँ इतने सम्पूर्ण रूप में विचार हुआ है।
प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी आलोचना और आलोचकों के लिए अनिवार्य और उपयोगी है।
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