Rachna Se Samvad
Author:
MalayajPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 636
₹
795
Available
<span style="font-weight: 400;">मलयज की आलोचना की सबसे महत्त्वपूर्ण क्षमता है निर्णय लेना, निष्कर्ष तक पहुँचना और निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए पाठ के साथ रचना-प्रक्रिया और लेखक की अनुभूति को समझना। रचना की समीक्षा करते समय उनके लिए सिर्फ रचना ही खास नहीं बल्कि रचनाकार की अनुभूति भी खास है जिसका अध्ययन वे रचना के समानान्तर करते हैं और तत्पश्चात अपने निष्कर्ष देते हैं। रचनाकार की अनुभूति के अध्ययन करने की प्रक्रिया रचना के पाठ के समानान्तर चलती है। एक अन्य अर्थ में उनकी आलोचना अधिक रचनात्मक मालूम होती है। उनके समीक्षा लेख रचनात्मकता की पृष्ठभूमि पर खड़े होकर अपने निष्कर्षों तक पहुँचते हैं। उनके समीक्षा लेखों को पढ़ते हुए बहुधा आभास होता है कि मलयज कोई रचना लिख रहे हैं। उनके पास आलोचना की बिल्कुल नयी भाषा है इस भाषा में आलोचना का पाठ किसी रचना के पाठ सरीखा लगता है। मलयज की भाषा में अपनी बात को कहने का जोखिम लेने की क्षमता है इसलिए उनके कई लेखों के शीर्षक तक कई रचनाकारों और उनके प्रशंसक पाठकों को नागवार लगे हैं। त्रिलोचन और शमशेर पर लिखे उनके लेख इस बात की तस्दीक़ करेंगे। अपनी बात को कहने में मलयज कोई उदार रवैये की खोज में नहीं दिखते। बल्कि तल्ख़ से तल्ख़ बात को कैसे सलीके और उदारता से कहा जाए ये उन्हें आता है। आज आलोचना जिस सलीके और नएपन या विशिष्टता की चाहत रखती है वह मलयज की आलोचना हमें सिखा सकती है। मलयज रचना प्रक्रिया की सैद्धांतिकी को अपनी आलोचना में व्यवहृत करने का प्रयास करते जान पड़ते हैं। ये कुछ ऐसी बाते हैं जो उन्हें उनके समकालीनों ही नहीं बल्कि आज के और उनसे पूर्व के आलोचकों से भी विशिष्ट बनाती हैं।</span>
ISBN: 9789392757556
Pages: 264
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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भारतीय साहित्य भारत के जनगण की ही तरह विविधता और एकता के परस्पर सूत्रों से बुनी हुई एक सघन इकाई है। विभिन्न धाराओं, व्यक्तित्वों और विचार-सरणियों के लोकतांत्रिक अन्तर्गुम्फन से ही वह अस्तित्व में आती है।
वरिष्ठ मलयाली कवि और चिन्तक के. सच्चिदानन्दन की यह पुस्तक एक तरफ़ जहाँ इस विविधता के सूत्रों को रेखांकित करती है, वहीं साहित्य और विशेषकर भारतीय साहित्य की वर्तमान स्थिति व उसके सामने उपस्थित चुनौतियों का भी अन्वेषण करती है।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में ‘इंडियन लिटरेचर : पोजीशंस एंड प्री पोजीशंस’ नाम से प्रकाशित और बहुपठित इस पुस्तक में मिर्ज़ा ग़ालिब, महाश्वेता देवी, ए.के. रामानुजन, वी.एस. खांडेकर, कमलादास, चन्द्रशेखर कंबार, केदारनाथ सिंह, सीताकान्त महापात्र, ओक्टावियो पाज़ और पाब्लो नेरुदा जैसे साहित्य-स्तम्भों के साथ-साथ साहित्य की मौजूदा चिन्ताओं और प्रवृत्तियों को चिन्तन का विषय बनाया गया है।
पाठक इस निबन्ध संकलन में उत्तर-आधुनिकता, आधुनिकता, दलित-लेखन, स्त्री-लेखन, भारतीय आख्यान परम्परा, पाठक की नई भूमिका, आधुनिक लेखक की दुविधाएँ तथा कविता का कार्य आदि अनेक समकालीन तथा ज्वलन्त मुद्दों पर भी विचारोत्तेजक सामग्री पाएँगे।
Shabdon Ka Mandal
- Author Name:
Renata Czekalska
- Book Type:

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Description:
यह पुस्तक हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ लेखक अशोक वाजपेयी के कृतित्व की प्रमुख काव्यात्मक स्पेसों का भाष्यपरक (हर्मेन्यूटिक) विश्लेषण है। पुस्तक के चार अध्याय उन महत्त्वपूर्ण नृतात्त्विक प्रश्नों पर केन्द्रित हैं जो इस कवि के सन्दर्भ में साधनभूत हैं, इस कवि के सन्दर्भ में विश्व के साथ एकत्व के सिद्धान्त की खोज की प्रक्रिया में भाषा को अस्तित्व के एक रूप और विस्तार में बदल देता है। लेखिका ने दर्शाया है कि किस तरह वाजपेयी भारतीय और पाश्चात्य सांस्कृतिक परम्पराओं का सहयोजन करते हुए अपनी कविता को ‘सभ्यताओं के बीच’ स्थित करते हैं, जहाँ वह काव्यात्मक सम्प्रेषण के मौलिक और आकर्षक पैटर्नों का रूप लेते विमर्श का आत्मनिर्भर विमर्श बनती है। यह पुस्तक आधुनिक वैश्वीकृत दुनिया में पूरब और पश्चिम की सांस्कृतिक मुठभेड़ के एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण को चित्रित करती है।
मूर्धन्य आलोचक मदन सोनी द्वारा किया गया पुस्तक का हिन्दी अनुवाद मूलतः पोलिश भाषा में लिखी गई पुस्तक के (स्वयं रेनाता चेकाल्स्का द्वारा किए गए) अंग्रेज़ी अनुवाद पर आधारित है।
Kafan Ek Punah : path
- Author Name:
Pallav
- Book Type:

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Description:
जनपक्षधरता प्रेमचन्द के संवेदनामूलक और विचारप्रेरित स्वभाव में थी, लेकिन एक रचनाकार के रूप में उनके लक्ष्य में थी—कला सिद्धि। देश-विदेश के अनेक नामी कथाकारों को उन्होंने न केवल पढ़ा था, जब-तब साहित्यिक प्रश्नों और सौन्दर्यगत समस्याओं पर भी अपनी मान्यताओं का विवेचन भी किया था। हम उन्हें अपने कला-कर्म को निरन्तर निखारता पाते हैं—उनकी सृजन-यात्रा में कमतर-बेहतर का अन्तराल एक उत्कर्ष-क्रम में ही अधिक मिलता है। ‘सेवासदन’ जैसे आदर्श-प्रधान उपन्यास से ‘गोदान’ जैसे यथार्थ-प्रधान तक और ‘पंचपरमेश्वर’ जैसी नीति-निर्देशक कहानी से ‘कफ़न’ जैसी नीति विडम्बना-गर्भित कहानी तक की उनकी कथायात्रा काम विस्मयकारक नहीं है। ‘गोदान’ में फिर भी एक-सा कथाविन्यास नहीं है—उसकी श्रेष्ठता का जितना आधार होरी-धनिया की त्रासद जीवन-कथा है, उतना अवान्तर कथाएँ नहीं, जबकि ‘कफ़न’ मानवीय त्रास के एक अखंड कलानुभव की महत रचना है; केवल इसलिए नहीं कि वह कहानी के लघु कलेवर में है बल्कि इसलिए कि लेखक के कम से कम बोलने पर भी वह रचना इतना बोलती है कि बहुत सारे सच उजागर होते चलते हैं। अपने समाज के संतप्त निम्नजन से साक्षात्कार में एक तप:पूत कलाकर्मी की क़लम से जाने-अनजाने एक ऐसी कला-निर्मिति हुई है, जो अद्भुत अपूर्व है।
यह सुखद है कि युवा आलोचक पल्लव ने इस कहानी पर हिन्दी के कुछ बौद्धिकों के विचार-आलेखों को संकलित-सम्पादित कर इस किताब में प्रस्तुत कर दिया है। एक कहानी भी गम्भीर विमर्श का प्रस्थान बिन्दु हो सकती है और यह आयोजन वह दुर्लभ अवसर उपलब्ध करवाता है।
—प्रो. नवल किशोर
Aacharya Hazariprasad Dwivedi ke Shresth Nibandh
- Author Name:
Hazariprasad Dwivedi
- Book Type:

- Description: आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का रचना-संसार वैविध्यपूर्ण और साहित्यिक व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे संस्कृत के शास्त्री थे, ज्योतिष के आचार्य। कवि, आलोचक, उपन्यासकार, निबन्धकार, सम्पादक, अनुवादक और भी न जाने क्या-क्या थे। वे पंडित भी थे और प्रोफ़ेसर भी, आचार्य तो थे ही। वे अपने समय के एक बहुत ही अच्छे वक्ता थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि वे एक कुशल अध्यापक और सच्चे जिज्ञासु अनुसन्धाता थे। बलराज साहनी ने उनकी इस अनुसंधान वृति को लक्षित करते हुए लिखा है, ‘‘सूई से लेकर सोशिलिज्म तक सभी वस्तुओं का अनुसन्धान करने के लिए वे उत्सुक रहते।’’ तभी तो वे, बालू से भी तेल निकाल लेने की बात करते हैं, अगर सही और ठीक ढंग का बालू मिल जाए। उनके इस अनुसन्धान और अध्ययन-मनन की सबसे बड़ी ताक़त थी एक साथ कई भाषाओं और परम्पराओं की जानकारी। वे जहाँ संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश जैसी प्राचीन भारतीय भाषाओं के साथ भारतीय साहित्य, दर्शन चिन्तन की ज्ञान-परम्पराओं को अपनी सांस्कृतिक-चेतना में धारण किए हुए थे, वहीं हिन्दी, अंग्रेज़ी, बांग्ला और पंजाबी जैसी आधुनिक भारतीय व विदेशी भाषाओं के साथ आधुनिक ज्ञान-परम्परा को भी। परम्परा और आधुनिकता का ऐसा मेल कम ही साहित्यकारों में देखने को मिलता है। परम्परा और आधुनिकता के इस प्रीतिकर मेल से उन्होंने हिन्दी साहित्य-शास्त्र को मूल्यांकन का एक नया आयाम दिया। लोक और शास्त्र को जिस इतिहास-बोध से द्विवेदी जी ने मूल्यांकित किया है, वह इस नाते महत्त्वपूर्ण है कि उसमें किसी तरह का महिमामंडन या भाव-विह्वल गौरव गान नहीं मिलता, बल्कि एक वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि मिलती है, जिसका पहला और आख़िरी लक्ष्य मनुष्य है—उसका मृत्य, उसकी मबीता और उसका श्रम है।
Sarjnatmak Kavyalochan
- Author Name:
Pandeya Shashibhushan 'Shitanshu'
- Book Type:

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Description:
हिन्दी में सर्जनात्मक काव्यालोचन का प्राय: अभाव रहा है, जिससे आलोचना की सर्जनात्मक मौलिकता अब तक स्थापित-प्रतिष्ठित नहीं हो पाई है। अभाव-रूपी इस अफाट सन्नाटे को भंग करनेवाली डॉ. ‘शीतांशु’ की यह पुस्तक ऐसी पहली सहृदय-संवेद्य, प्रगुणात्मक पुस्तक है, जिसमें लेखक ने 28 हिन्दी कविताओं के काव्यमर्म तथा अन्तर्न्यस्त साभिप्रायता को उद्घाटित-विवेचित किया है।
कविता का विवेचन उसकी सर्जनात्मक सार्थकता का विवेचन होता है। यह सार्थकता भावकीय प्रतिभा से कविता की कलावटी गाँठों को खोलते हुए उसके अर्थ-गह्वर में प्रवेश करने से सम्भव हो पाती है। हिन्दी काव्यालोचन अब तक अपनी लक्ष्मण-रेखा में घिरा रहा है। वह प्रवृत्तिगत, विकासात्मक, सैद्धान्तिक और वादारोपित बहस-मुबाहसे से ग्रस्त-सा है। मार्क्सवादी आलोचना को तो अपनी एकरसता में किसी भी कविता की आन्तर गहराई में उतरने से प्राय: परहेज़ ही रहा है, जिसके कारण कविता का भावन और बोधन केवल सामाजिक यथार्थ की अभिधेयात्मकता तक सीमित-प्रतिबन्धित रह गया है, जबकि उसमें अशेष प्रतीयमान, सर्जनात्मक साभिप्रायता विद्यमान होती है। यहाँ तक कि इसमें मार्क्सवादी सामाजिक यथार्थ की अनेकानेक परतें भी समाविष्ट रहती हैं।
ऐसे में प्रतीयमान आभ्यन्तर को उद्घाटित करनेवाली यह वह प्रतीक्षित आलोचना-कृति है, जो स्थापित करती है कि कविता की सही पहचान-परख उसके तलान्वेषित कथ्यों और अर्थच्छवियों की बहुआयामिता पर निर्भर है।
कहना होगा कि कविताओं की साभिप्राय पुनस्सर्जना के माध्यम से काव्यलोचन के नए क्षितिज का सन्धान और दिशा-निर्देश करनेवाली यह पुस्तक अब तक की निर्धारित लक्ष्मण-रेखा के बाहर जाकर हिन्दी काव्यालोचन को समृद्ध करती है। साथ ही नई आलोचकीय प्रतिभाओं को इस दिशा में सक्रिय होने हेतु आमंत्रित भी करती है। हिन्दी आलोचना में कविता के पाठकों और आलोचकों को संवेदन-समृद्ध करनेवाली एक अत्यन्त उपयोगी एवं पठनीय पुस्तक।
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