
Dinkar : Ek Punarvichar
Publisher:
Rajkamal Prakashan Samuh
Language:
Hindi
Pages:
368
Country of Origin:
India
Age Range:
18-100
Average Reading Time
736 mins
Book Description
पराधीनता के दौर में जब छायावादी-कवि आभासी दुनिया में विचर रहे थे, दिनकर ने राष्ट्र की स्वातन्त्र्य-चेतना को नये सिरे से व्याख्यायित किया। उस दौर में वे युवा पीढ़ी के मन-प्राण-हृदय पर देशप्रेम की प्रेरणा बनकर छा गये थे। लेकिन आज़ादी के बाद जब राष्ट्रीय परिदृश्य बदल गया, तब उन्होंने अपने शब्दों के धनुष-बाण की दिशा बदल ली। सामयिक प्रश्नों के अनन्तर सार्वकालिक प्रश्नों से मुठभेड़ का मन बनाया; और प्रखर आवेग से अपनी रचनात्मक भूमिका का निर्वहन किया। इसीलिए उनकी प्रासंगिकता यथावत है।</p> <p>उनकी कविताएँ शब्दाडम्बर नहीं रचतीं, बल्कि समय-सापेक्ष नये मूल्यों को बचाये रखने का आग्रह करती है। उनकी कविताओं में मानवीय और राष्ट्रीय चेतना के उत्कर्ष, सामाजिक दायित्वबोध, शोषितों के प्रति सहानुभूति और लोकानुराग-जैसे सन्दर्भ प्रतिध्वनित होते हैं। वे अपने युग की विविधताओं को अपनी रचनाधर्मिता में समेटे हुए उसके प्रतिनिधि कवि हैं।</p> <p>छायावादोत्तर हिन्दी कवियों में वे सर्वाधिक लोकप्रिय रहे हैं। लोकप्रिय होना और श्रेष्ठ होना अलग-अलग बात है। परन्तु दिनकर की विशेषता यह है कि वे लोकप्रिय भी हैं और श्रेष्ठ भी। उनके इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व की भाँति ही उनका कृतित्व भी बहुआयामी है। हिन्दी कविता के साथ ही उन्होंने हिन्दी गद्य की विभिन्न विधाओं को भी अपनी रचनात्मकता से समृद्ध किया है। उनके रचना-संसार में संवेदना और विषयवस्तु की जैसी व्यापकता और विविधता है, निराला को छोड़कर किसी अन्य हिन्दी कवि में कम ही देखने को मिलती है।</p> <p>बहरहाल, वे आधुनिक भारत के राजनीतिक-सांस्कृतिक नवजागरण और स्वाधीनता आन्दोलन की आन्तरिक लय से सिद्धकाम होनेवाले कवि होने के साथ ही श्रेष्ठ चिन्तक, आलोचक और सांस्कृतिक इतिहासकार भी हैं।