Bhartiya Nari : Asmita Ki Pahchan
Author:
Uma ShuklaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 140
₹
175
Unavailable
नारी की स्थिति भले ही स्थानिक प्रभाव व काल-प्रवाह में बदलती रही हो, उसकी छवि भी भले ही समय-समय पर दबती-उभरती रही हो, परन्तु हर युग के निर्माण में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उसकी अस्मिता को लेकर साहित्य में हमेशा ही समय-सापेक्ष अनेकानेक प्रश्न उठाए जाते रहे हैं। उनका समाधान हुआ है या नहीं, यह सब कुछ निरुत्तरित ही है जब तक वह ‘मानवी’ रूप में उभरकर सबके सामने न आए। सब नाते-रिश्तों के बावजूद वह स्वतंत्र इकाई भी है और स्वतंत्र अस्तित्ववाली भी है।</p>
<p>साहित्य दिशा-बोधक एवं दिशा-स्तम्भ है। आज हमारा युग-बोध बदल गया है, जीवन-पद्धतियाँ बदल गई हैं। इसीलिए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में समीकरण की तलाश है। नए मूल्यों का निर्माण करने से ही नए युग की नई नारी की प्रतिमा उभरेगी। ‘सहज मानवी’ के रूप में वह आएगी—हमारे सामने गौरवमयी पहचान देती हुई! भारतीय नारी की अस्मिता की पहचान के परिप्रेक्ष्य में सामयिक दिशा-बोध करानेवाली उमा शुक्ल की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक।
ISBN: 9788180311659
Pages: 151
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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द्विवेदी-युग के उत्तरार्ध में आचार्य शुक्ल के रूप में पहली बार हिन्दी-आलोचना ने पारम्परिक भारतीय काव्य-चिन्तन की अन्तरवर्ती प्राणधारा और आधुनिक यूरोप के विज्ञानालोकित कला-चिन्तन के उल्लसित प्रवाह की संश्लिस्ट शक्ति का आधार लेकर अपने मौलिक व्यक्तित्व का निर्माण किया, उनका मूल स्वर रीति-विरोधी और लोक-मंगल की साधना के गत्यात्मक सौन्दर्य का पोषक है। छायावादकालीन सौन्दर्यबोध का प्रेरक तत्त्व स्वातंत्र्य चेतना है जो देश की अभिनव आकांक्षा और नवीन सांस्कृतिक मूल्यों के स्वीकार का द्योतक है रचना के कलावादी रुझान का नहीं। छायावादोत्तर प्रगतिशील आलोचना का प्रेरक-तत्त्व सामाजिक न्याय की प्रतिष्ठा की सात्त्विक आकांक्षा है। वैचारिक ग्रहजन्य सीमाओं के बावजूद हिन्दी-साहित्य में उसकी ऐतिहासिक भूमिका का महत्त्व सर्वमान्य है।
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. बच्चन सिंह तथा डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी जैसे महान समीक्षकों पर एक गवेषणात्मक दृष्टि डाली गई है।
Hindi Ke Vikas Mein Apbhransh Ka Yog
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

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Description:
प्रस्तुत पुस्तक का संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण पाठकों के समक्ष नई साज-सज्जा के साथ प्रस्तुत है जिसमें परवर्ती अपभ्रंश और आरम्भिक हिन्दी सम्बन्धी नवीन सामग्री, अपभ्रंश और हिन्दी वाक्य-विन्यास का तुलनात्मक विवेचन, अपभ्रंश के कुछ विशिष्ट तद्भव तथा देशी शब्द और उनके हिन्दी रूपों की सूची, अपभ्रंश के प्रायः सभी सूचित और ज्ञात ग्रन्थों की सूची, अपभ्रंश के मुख्य कवियों, काव्यों और काव्य-प्रवृत्तियों की विस्तृत समीक्षा, अपभ्रंश और हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक सम्बन्ध पर विशेष विचारों का समावेश किया गया है।
आशा है, पुस्तक विद्यार्थियों, शोधार्थियों तथा पाठकों का मार्गदर्शन करने में सहायक सिद्ध होगी।
Vidyapati
- Author Name:
Shivprasad Singh
- Book Type:

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Description:
विद्यापति सौन्दर्य और प्रेम के कवि थे। सौन्दर्य के बारे में उनकी क्या धारणा थी,
अथवा उनके सौन्दर्यबोध का क्या स्तर था—आदि प्रश्नों पर काफ़ी विस्तार से विचार किया गया है।
गीत-काव्य के बारे में, उसके रूप और आत्मा को दृष्टि में रखकर बिलकुल नए ढंग से विचार किया
गया है। अन्त में विद्यापति के अवहट्ट-काव्य का भी संक्षिप्त मूल्यांकन दे दिया गया है। क्योंकि
यह उनके कृतित्व का एक बहुत महत्त्वपूर्ण भाग है।
Company Raj Aur Hindi
- Author Name:
Sheetanshu
- Book Type:

- Description: उपनिवेशवाद ने अपने विस्तार के लिए एक ख़ास क़िस्म के लेखन को काफ़ी प्रश्रय दिया था। यह सर्वस्वीकृत तथ्य है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। फ़ोर्ट विलियम कॉलेज और तद्युगीन अन्य संस्थानों द्वारा उत्पादित ज्ञान के भंडार का अब तक का अध्ययन इस बात की तस्दीक करता है कि अध्येताओं के मानस में ‘प्राच्यवाद’ का भूत कुछ इस तरह जड़ जमाकर बैठ गया है कि उनके बौद्धिक मानस से द्वन्द्वात्मक दृष्टि ही काफ़ूर हो चुकी है। औपनिवेशिक दौर के सम्पूर्ण लेखन को इस तरह की सीमा में बाँधकर एक ही चश्मे से देखने से वास्तविक भौतिक परिस्थितियों और उनके प्रभावों का उद्घाटन कठिन हो जाता है। यह ठीक है कि औपनिवेशिक सत्ता ज्ञान का अपने पक्ष में अनुकूलन करती रही है लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि अनुकूलन चाहे कितना भी हो, द्वन्द्वात्मक परिस्थितियों में ज्ञान की भूमिका के अन्य आयाम भी होते हैं। इन आयामों को हम तभी पहचान सकते हैं जब हम समय में विद्यमान दूसरे प्रभावी कारकों पर भी नज़र बनाए रखें। यह एक ऐतिहासिक दायित्व का कार्य है कि अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा हिन्दुस्तान के आर्थिक दोहन और आधुनिकता में हस्तक्षेप के बारे में हम तर्क जुटाएँ, लेकिन इस क्रम में हमने अगर पंक्तियों के बीच विद्यमान तथ्यों को विस्मृत कर दिया है, तो उसका पुन: उद्घाटन भी किया जाना चाहिए। ज्ञान की चेतना अन्याय के विरोध के साथ किसी भी क़िस्म के छद्म के अनावरण की पक्षधर होनी चाहिए। इसीलिए इस पुस्तक में कम्पनी की नीतियों का पुनर्विश्लेषण कर और कॉलेज के साथ उसके सम्बन्धों में विद्यमान सूक्ष्म भेदों को प्रकाशित कर, सत्ता और ज्ञान के सम्बन्धों की बारीकियों को उजागर किया गया है। दोनों की भाषा-नीति का फ़र्क़ बताकर हमारी दृष्टि की एकरेखीयता को उद्घाटित किया गया है। इन सबके साथ-साथ हिन्दी भाषा और साहित्य की विकास परम्परा और हिन्दी-उर्दू रिश्ते को एक बार फिर से विश्लेषित कर नए गवाक्ष खोले गए हैं।
Kathakar Premchand
- Author Name:
Zafar Raza
- Book Type:

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भाई जाफ़र रज़ा प्रेमचन्द साहित्य के एक जाने-माने विद्वान् हैं। हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं पर अपने समान अधिकार, शोध और गवेषणा में अपनी गहरी रुचि, और अपनी स्वच्छ समीक्षा-दृष्टि के आधार पर उन्होंने अपनी इस पुस्तक में प्रेमचन्द साहित्य के कई ऐसे पहलुओं को उजागर किया है, जिनसे हिन्दी संसार भी अभी यथेष्ट परिचित न था। उसी तरह उर्दू में प्रेमचन्द को हिन्दी से अपरिचित रहकर देखनेवालों ने बड़ी गुमराही पैदा की है और ऐसे अनेक पहलू आँख से ओझल हो गए हैं, जिनके बिना प्रेमचन्द साहित्य का ठीक-ठीक अध्ययन असम्भव हो जाता है। डॉक्टर जाफ़र रज़ा ने अपनी इस पुस्तक में बहुत-सी एतद्विषयक सूचनाएँ और आवश्यक तथ्य प्रस्तुत किए हैं, जो प्रेमचन्द-साहित्य के गम्भीर अध्ययन के लिए अपरिहार्य हैं।
भाई जाफ़र रज़ा ने प्रेमचन्द के उर्दू-हिन्दी उपन्यासों और कहानियों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करके प्रेमचन्द को ठीक से समझने के लिए नए रास्ते खोले हैं। उदाहरण के लिए प्रेमचन्द की रचना-प्रक्रिया को समझने के लिए उनकी रचनाओं के उर्दू और हिन्दी दोनों ही पाठों को देखना ज़रूरी है, क्योंकि उसके बिना लेखक के साथ न्याय नहीं किया जा सकता। भाई जाफ़र रज़ा ने शुद्ध पाठों को अपनी खोज, विभिन्न पाठों की समस्याओं और नई रचनाओं की अपनी खोज के आधार पर प्रेमचन्द के साहित्य और उसकी रचना प्रक्रिया को समझने की दिशा में बड़ा सुन्दर कार्य किया है। इतना निर्विवाद है कि उनकी यह पुस्तक प्रेमचन्द-सम्बन्धी आलोचना-साहित्य को उनकी एक विशिष्ट देन है।
—अमृत राय, इलाहाबाद गणतंत्र दिवस, 1983
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