Alakshit Gaurav : Renu

Alakshit Gaurav : Renu

Language:

Hindi

Pages:

272

Country of Origin:

India

Age Range:

18-100

Average Reading Time

544 mins

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Book Description

'भाषा की जड़ों को हरियानेवाला रसायन जो उसे ज़‍िन्दा रखता है, उसे सम्पन्न करता है, वह 'लोक' का स्रोत है। इस स्रोत की राह दिखाने के लिए हम रेणु के ऋणी हैं।' हमारे समय की वरिष्ठतम गद्यकार कृष्णा सोबती ने अपने साक्षात्कारों आदि में अनेक बार इस बात का उल्लेख किया है। उन्हें लगता है कि रेणु ने सभ्य भाषाओं और नागरिकताओं के इकहरे वैभव के बीच भारत के उस बहुस्तरीय वाक् को स्थापित किया जो अनेक समयों की अर्थच्छटाओं को सोखकर सन्‍तृप्त ध्वनियों में स्थित हुआ है और वास्तव में वही है जो भारत के असली विट और सघन अर्थ-सामर्थ्य का प्रतिनिधित्व करता है।</p> <p>रेणु ने अपने लोक के आनन्द और अवसाद इन्हीं ध्वनियों, इन्हीं भंगिमाओं में व्यक्त किए। दुर्भाग्य से देश के किसी और हिस्से से ऐसा साहस करनेवाले लेखक न आ सके, और सिर्फ़ यही नहीं, रेणु को और उनकी वाक्-भंगिमाओं को समझनेवाले लोगों की भी कमी महसूस की गई। परिणाम यह कि उनको बड़ा तो मान लिया गया लेकिन उनका बहुत कुछ ऐसा रह गया जिसे न समझा गया, न समझा जा सका।</p> <p>यह पुस्तक रेणु के उसी अलक्षित को लक्षित है। लेखक का कहना है कि 'इसके पूर्व रेणु पर जो कहा गया है, वह तो कहा ही जा चुका है। यह पुस्तक उन सबके अतिरिक्त है, उनके खंडन-मंडन में नहीं है...सतह पर की अर्थ-चर्वणा बहुत हो चुकी। रेणु का अलक्षित ही रेणु के गौरव का आधार है।' अर्थात् वह अर्थ-लोक जो सुशिक्षित भावक के ज्यामितिक भाषा-बोध की पकड़ में आने से या तो रह जाता है, या ग़लत ढंग से पकड़ लिया जाता है। उम्मीद है, पढ़नेवाले इससे न सिर्फ़ रेणु को नए सिरे से पढ़ने को उत्सुक होंगे, बल्कि अपने समय की अस्पष्ट ध्वनियों को सुनने-समझने की सामर्थ्य भी जुटा पाएँगे।

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