Borsi Bhar Aanch
Author:
Yatish KumarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Available
एक बच्चा चालीस साल की दूरी से दुनिया को देखता है, उसकी हथेलियों में कसैला पानी-फल है। </p>
<p>एक आक्रान्त, अपने आप में डूबा अकेला बचपन और एक आशंकाओं में घिरा अनिर्णीत भविष्य, एक हताश और गहराता हुआ अन्धकार और एक मुक्ति का विश्वास दिलाता जगमग रौशन क्षितिज, एक भयग्रस्त पलायन और फिर पलटकर एक निर्भय प्रत्याघात।</p>
<p>जीवन के अनगिन धुँधले सूर्यास्तों और फिर उजालों और उम्मीदों से भरे पुनर्जीवन की मिसाल या प्रतिमान बनते उत्कट जीवन-संग्राम की मार्मिक और रोमांचक कथा कहती, चर्चित युवा रचनाकार-लेखक यतीश कुमार की यह आत्मकथा इस नए वर्ष, सन् 2024 में स्वयं उनके लिए अतीत के बीहड़ यथार्थ में दुबारा लौटकर दाख़िल होने का एक नया, चुनौतियों से भरा सृजनात्मक प्रयास है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह साहित्यचिन्तन ही नहीं, मानविकी के समस्त अनुशासनों की मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति अपने बचपन में दुबारा नहीं लौट सकता। इसके लिए किसी न किसी ऐसी युक्ति या डिवाइस के ईज़ाद की ज़रूरत होगी, जो स्मृतियों के धुँधलके में घिरीं तमाम सँकरी-उलझी पगडंडियों में उल्टी दिशा में रेंग सके।</p>
<p>यतीश कुमार ने अपने बचपन और अतीत में जाने के लिए जिस ‘युक्ति’ का आविष्कार किया है, उसे वे ‘अतीत का सैरबीन’ का नाम देते हैं। यह कोई भौतिक गैजेट नहीं है, यह भाषा, शब्द और वाक्यार्थों में अवस्थित एक नितान्त निजी और सृजनात्मक माध्यम है, जिसके सहारे वे देश के सुदूर दक्षिण-पूर्व में अपनी ज़िन्दगी के लिए छटपटाती एक छोटी-सी नदी किऊल के तट पर बसे एक अर्द्ध-ग्रामीण क़स्बे के जीवन के बीस वर्षों (1980-2000) की स्मृतियों का मार्मिक, सम्मोहक, विकट, साहसिक और ईमानदार सार्वजनिक रचनात्मक रोजनामचा दर्ज करते हैं। स्मृतियों के पुनर्लेखन या उत्कीर्णन की यह श्रमसाध्य और कलात्मक कोशिश है।</p>
<p>पूरी उम्मीद है समकालीन रचनात्मक परिदृश्य में ‘बोरसी भर आँच’ अपनी ख़ास जगह बनाएगी।</p>
<p>—उदय प्रकाश
ISBN: 9788119989898
Pages: 200
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
प्रत्यक्षा की कहानियों में जितनी कविता होती है, कविताओं में उतनी ही कहानी भी होती है। विधाओं का पारम्परिक अनुशासन तोड़कर वे एक ऐसी अभिव्यक्ति रचती हैं जिसमें कविता की तरलता भी होती है और गद्य की गहनता भी। यह अनुशासन वे किसी शौक या दिखावे के लिए नहीं, कुछ ऐसा कह पाने के लिए तोड़ती हैं जिसे किसी एक विधा में ठीक-ठीक कह पाना सम्भव नहीं। हिन्दी में गद्य कविताओं का सिलसिला पुराना है, लेकिन ज़्यादातर कवियों के यहाँ वे एक शौकिया विचलन की तरह दिखती हैं, जबकि प्रत्यक्षा का जैसे घर ही इन्हीं में बसता है। उनका अतीत, उनका वर्तमान, उनके रिश्ते-नाते, उनके जिए हुए दिन, उनके किए हुए सफ़र, सफ़र में मिले दोस्त, उस दौरान लगी प्यास, कहीं सुना हुआ संगीत, माँ की याद—यह सब इन कविताओं में कुछ इस स्वाभाविकता से चले आते हैं जैसे लगता है कि रचना के स्थापत्य में इनकी जगह तो पहले से तय थी। फिर वह स्थापत्य भी इतना अनगढ़ है कि पढ़नेवाला क़दम-क़दम पर हैरान हो। प्रत्यक्षा की रचना के परिसर में घूमना एक ऐसे घर में घूमना है जिसमें दीवारें पारदर्शी हैं, जिसके आँगन में धरती-आसमान दोनों बसते हैं, जिसके कमरे अतीत और वर्तमान की कसी हुई रस्सी से बने हैं, जहाँ ढेर सारे लोग बिल्कुल अपनी ज़िन्दा गंध और आवाज़ों-पदचापों के साथ आते-जाते घूमते रहते हैं। हिन्दी की इस विलक्षण लेखिका की यह कृति इस मायने में भी विलक्षण है कि अपने पाठक को वह रचना का एक बिल्कुल नया आस्वाद सुलभ कराती है—जिससे गुजऱते हुए पाठक भी अपने-आप को बदला हुआ पाता है। यह वह तिलिस्मी मकान है जिससे निकलकर आप पाते हैं कि दुनिया आपके लिए कुछ और हो गई है। यह पुस्तक प्रत्यक्षा की रचनाशीलता का ही नहीं, हिन्दी लेखन का भी एक प्रस्थान बिन्दु है।
—प्रियदर्शन
Kuchh Parav, Kuchh Manjilen
- Author Name:
Hemant Dwivedi
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- Description: Awating description for this book
Jab Se Aankh Khuli Hain
- Author Name:
Leeladhar Mandaloi
- Book Type:

- Description: हिन्दी के वरिष्ठ कवि-गद्यकार लीलाधर मंडलोई की यह आत्मकथा ‘जब से आँख खुली हैं’ केवल उनकी नहीं बल्कि सतपुड़ा के जंगलों में विस्थापित होकर पहुँचे खान-मज़दूरों, दलित-अल्पसंख्यक और पिछड़े वर्गों की भी कथा है। कोरकू, गोंड़ और भारिया आदिवासियों के जीवन के स्याह चित्र भी इसमें आपको मिलेंगे। वेस्टर्न कोल्ड फ़ील्ड के छिन्दवाड़ा और दमुआ जिलों में कोयला-खानों की एक बड़ी शृंखला है। एक में कोयला ख़त्म हुआ तो दूसरी, तीसरी, चौथी और यह प्रक्रिया चलती रहती है जिसमें मज़दूरों को बार-बार उजड़ना पड़ता है। न पक्की नौकरी, न अस्पताल, न स्कूल, न मकान; बस भूख, ग़रीबी, अकाल मृत्यु, दुर्घटनाएँ और दुखों का असीम संसार। ओपनकास्ट और अंडर ग्राऊंड खदानों में बाल-मज़दूर का जीवन जीते हुए लेखक ने यह सब बचपन में ही देख-जी लिया था। आस-पास का जीवन त्रासद था लेकिन जीवन की प्रतिकूलताओं में बनी सामुदायिकता ने वहाँ संघर्ष, जिजीविषा और आनन्द की एक पारिस्थितिकी भी निर्मित की थी जिसमें गोंडवाना, बुन्देलखंड और बाहर से आए लोगों की बोली-बानी, भाषा, खानपान, रहन-सहन और संगीत की समावेशी संस्कृति दिखाई देती थी। इस आत्मकथा को पढ़ते हुए हम जान पाते हैं कि खदानों की गहराइयों ने खदानों को कैसे खोखला कर दिया, कैसे जल-स्तर हज़ारों फ़ीट नीचे चला गया, पानी का संकट गहराया और जंगल उजड़ने लगा। जंगल का जीव-जगत समाप्त होने लगा। कई प्रजातियाँ खो गईं। आदिवासियों का विस्थापन शुरु हुआ। उनकी संस्कृति लुप्त होने लगी। इसके अलावा प्राइवेट कम्पनी के कार्यकाल में शोषण, अनाचार, उपेक्षा, शोषण आदि के आख्यान भी इस पुस्तक का हिस्सा हैं।
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