Aur Karvan Banta Gaya
Author:
Shatrughna Prasad SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Unavailable
यह पुस्तक बिहार शिक्षक-आन्दोलन के प्रखर नेता और पूर्व-सांसद शत्रुघ्न प्रसाद सिंह की आत्मकथा पुस्तक है जिसमें उन्होंने अपने निजी और सार्वजनिक जीवन के साथ-साथ अपने व्यापक अनुभवों के आधार पर बने विचारों को भी व्यक्त किया है। शिक्षक की अपनी मूल पहचान को अपने सार्वजनिक जीवन की धुरी मानते हुए उन्होंने जिस तरह लम्बे समय तक इस देश की सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक परिस्थितियों को समझा, यह पुस्तक उसका लेखा-जोखा है। इसलिए निजी यादों के विवरण से ज्यादा हम इसे एक वैचारिक दस्तावेज के रूप में भी पढ़ सकते हैं जिसमें शिक्षा-तंत्र और अध्यापकों के संघर्ष से लेकर देश के वर्तमान सामाजिक यथार्थ, ग्रामीण भारत की वस्तुस्थिति, मजदूरों का पलायन, सत्ता और भ्रष्टाचार का गठजोड़, अपराध की राजनीतिक ताकत से लेकर इधर के ताजातरीन मुद्दों, मसलन रोहित वेमुला की आत्महत्या तथा जे.एन.यू.में कन्हैया की अलोकतांत्रिक गिरफ्तारी तक पर विचार किया गया है।
ISBN: 9788126730124
Pages: 204
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Description:
महात्मा गांधी के अपने विपुल साहित्य और लेखन के अलावा उन पर लिखी गई सामग्री भी विपुल है। फिर भी उन्हें और नज़दीक से जानने-समझने की इच्छा भी शिथिल नहीं पड़ती। उनके समकालीनों के अनेक संस्मरणों में गांधी जी जब-तब सजीव होते रहते हैं। ऐसी ही एक पुस्तक बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में एक अंग्रेज़ महिला ने प्रकाशित की थी जिन्होंने कुछ समय के लिए गांधी जी की मेज़बानी की थी। उसमें इस अनोखे व्यक्ति की सहज मानवीयता, आत्मविश्वास, अपनी दृष्टि और मूल्यों पर हर हालत में अड़े रहने के प्रसंग सहज प्रवाह में आए हैं। एक ऐसे समय में जब हम पश्चिम के आतंक और अनुकरण में मुदित मन लगे हैं, यह पुस्तक उस आतंक से सर्वथा मुक्त एक भारतीय आत्मा को एक बार फिर सामने लाती है और उसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता है।
—अशोक वाजपेयी
Dilli Mera Pardes
- Author Name:
Raghuvir Sahay
- Book Type:

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‘दिल्ली मेरा परदेस’ रघुवीर सहाय की डायरी पुस्तक है जो ‘धर्मयुग’ में 1960 से 63 तक ‘दिल्ली की डायरी’ नामक स्तम्भ के रूप में प्रकाशित हुई थी। तब रघुवीर सहाय ‘सुन्दरलाल’ के नाम से यह स्तम्भ लिखा करते थे जो काफ़ी चर्चित रहा। इसके ज़रिए रघुवीर सहाय की कोशिश यह थी कि इसमें दिल्ली के जीवन पर टिप्पणियाँ हों और ऐसी हों कि उनका दिल्ली के बाहर भी कोई अर्थ हो सके।
ये तीन वर्ष बहुत महत्त्वपूर्ण थे, क्योंकि नेहरू के राजनीतिक जीवन के वे अन्तिम वर्ष थे। 1964 में उनके देहान्त के पहले राष्ट्रीय जीवन का चरित्र एक संकट से गुज़र रहा था। जिन मान्यताओं के लिए नेहरू कहते और करते थे, वे उनके बाद भी बची रहेंगी या नहीं, यह प्रश्न एक सांस्कृतिक प्रश्न बन गया था। ‘दिल्ली की डायरी’ में नेहरू के जीवन के अन्तिम चार वर्षों में से तीन की स्पष्ट झलक मिलती है।
इस पुस्तक का नाम ‘दिल्ली मेरा परदेस’ क्यों है, इसके बारे में खुद रघुवीर सहाय लिखते हैं कि, ‘दिल्ली मेरा देस नहीं है और दिल्ली किसी का देस नहीं हो सकती। उसकी अपनी संस्कृति नहीं है। यहाँ के निवासियों के सामाजिक आचरण को कभी इतना स्थिर होने का अवसर मिल भी नहीं सकता कि वह एक संस्कृति का रूप ग्रहण करे। अधिक से अधिक वह सभ्यता का, बल्कि उसके अनुकरणों का एक केन्द्र हो सकती है। सो वह है। ...मैं 1951 की गर्मियों में दिल्ली आया था। तब से इस शहर के कुछ हिस्से मेरी निगाह में उतने ही ख़ूबसूरत हैं। ...ज़िन्दगी में जो दो काम किए हैं—अख़बारनवीसी और कविता—उन दोनों की सबसे अच्छी स्मृतियाँ भी यहीं की हैं। और मुफ़लिसी की मस्तियाँ और पस्तियाँ भी। परन्तु ये दिल्ली की सबसे बड़ी देन नहीं हैं। सबसे बड़ी देन तो एक परदेसीपन है : एक अजब तरह का स्निग्ध एकान्त जिसमें जब चाहो तब भीतर चले जाओ, चाहे कितनी ही भीड़ में क्यों न हो, और जिसमें से जब चाहो ज़रा देर के लिए बाहर आ जाओ, कोई देखेगा नहीं।’
‘दिल्ली मेरा परदेस’ गद्य में उस रचनात्मक अनुभव की पुस्तक है जो अपनी शैली में सुन्दर तो है ही, सामाजिक-राजनीतिक चेतना में सहज सम्प्रेष्य और धारदार भी है। कोई डेढ़ सौ किस्तों में से चुनकर पुस्तक में शामिल अंश उस दस्तावेज़ की तरह हैं जिनके सवालों से टकराए बिना अपने वर्तमान को ठीक से नहीं समझा जा सकता, न ही भविष्य की तरफ़ दूर तक देखा जा सकता है।
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