Subh Ki Chay Aur Akhardboundar
Author:
Sabeeha FatmaPublisher:
Antika Prakashan Pvt. Ltd.Language:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 323.9
₹
395
Available
सबीहा फातमा का कविता-संग्रह 'सुबह की चाय और अखबार' न केवल अपने अनोखे और अलग तरह के विषय की वजह से अद्वितीय और पुरकशिश है बल्कि इसमें मौजूद छोटी-छोटी कविताओं की शैली और शिल्प भी लीक से हटकर है। आमतौर पर हमारी दिनचर्या का आगाज़ चाय की गर्म और मीठी चुस्कियों के साथ-साथ अखबारों में परोसी गई खबरों से होता है। पिछले लगभग एक दशक से न केवल इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया बल्कि प्रिंट मीडिया भी ऐसी खबरें परोसने लगा है जिनका हेंगओवर दिनभर रहता है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरे देश में तानाशाही और अघोषित आपातकाल का वह सिलसिला चल निकला जिसने हर एक को अपनी लपेट में लिया है। इन परिस्थितियों ने जहाँ देश के अन्य संवेदनशील लोगों को प्रभावित किया है वहीं बुद्धिजीवी सीधे तौर पर इसके शिकार हुए। सबीहा के कवि-मन को इन जटिल, भयावह और मार्मिक परिस्थितियों और इनसे संबंधित खबरों ने कचोटा है। यह संग्रह उसी दर्द और टीस की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। उन्होंने न केवल प्रशासन पर सवाल उठाए बल्कि धार्मिक कट्टरवाद को भी कठघरे में खड़ा किया है। इस संग्रह की पहली कविता 'पेशावर' में उन्होंने अपने आपको इस्लाम का मुहाफ़िज़ कहने वालों पर तंज़ कसा है। सबीहा की कविताएँ जहाँ कविताई से भरपूर हैं वहीं अपनी प्रौढ़ता का परिचय भी देती हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि उन्होंने कविताओं में आम लोगों की संवेदनाओं को पिरोने का हुनर बखूबी बरता है। उनकी कविताएँ हमारे समकाल को आइना दिखाने का जोख़िम भरा काम करती हैं। —निदा नवाज़
ISBN: 9788196185886
Pages: 112
Avg Reading Time: 4 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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ये कविताएँ बार-बार पढ़ी गई हैं और बार-बार पढ़े जाने की माँग करती हैं। आज भी, क्योंकि, हमारे समूह-मन की जिन दरारों की ओर इन कविताओं ने संकेत किया था, आज वे और गहरी हो गई हैं।
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मेरी कविता जैसी दूसरी कोई जगह
मेरे पास कहीं बची नहीं रह गई
जहाँ मतभेद या मनमेल को लेकर
खुलकर बात हो सके
सितांशु यशश्चन्द्र की कविता ऐसी ही सार्वजनिक जगह है—उदार, प्रशस्त और निर्बन्ध। और साथ ही नितान्त निजी और एकान्त। शायद इसीलिए ‘मुझे इसके घर में घर जैसा लगता है’।
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