
Deradangar
Publisher:
Rajkamal Prakashan Samuh
Language:
Hindi
Pages:
196
Country of Origin:
India
Age Range:
18-100
Average Reading Time
392 mins
Book Description
विगत कुछ वर्षों में मराठी से हिन्दी में अनेक श्रेष्ठ आत्मकथाएँ अनूदित होकर आई हैं। ख़ासकर ये आत्मकथाएँ जिन्होंने दलित साहित्यान्दोलन में अपने अलग तेवर के ज़रिए न सिर्फ़ मराठी साहित्य को बल्कि सम्पूर्ण भारतीय साहित्य को एक नई सोच<strong>, </strong>दिशा और समझ तथा ऊर्जा प्रदान की।</p> <p><strong>‘</strong>डेराडंगर<strong>’ </strong>उनमें से अधिकांश आत्मकथाओं से इस अर्थ में अलग है कि इसमें नायक गौण है<strong>, </strong>और उसका परिवेश<strong>, </strong>उसकी परिस्थितियाँ प्रधान हैं। इसमें नायक को केन्द्र में स्थापित करने के बजाय उस व्यवस्था को केन्द्र में रखा गया है जिसमें नायक के सम्पूर्ण समाज के लोग अपना पीड़ित<strong>, </strong>यातनामय और नारकीय जीवन जी रहे हैं। आत्मकथाकार का प्रयोजन अपने गुणों का बखान करना है<strong>, </strong>ऐसा इस पूरी पुस्तक में कहीं नज़र नहीं आता।</p> <p>तटस्थता<strong>, </strong>वस्तुनिष्ठता और विश्वसनीयता इस आत्मकथा के अन्य गुण हैं। अच्छी आत्मकथा के इन्हीं आधारभूत औज़ारों के आधार पर इसमें एक व्यक्ति का<strong>, </strong>उसके ज़रिए एक पूरे समाज का<strong>, </strong>उसकी जीवन-प्रणाली और संस्कृति का<strong>, </strong>उसकी प्रश्नपीड़ित ज़िन्दगी की व्यथा और वेदना का<strong>, </strong>उसके हारने<strong>, </strong>गिरने और उभरने<strong>, </strong>तथा मर नहीं सकते इसलिए जीने की विवशताओं का बोध कराया गया है।