शब्दों के शिल्पकार

शब्दों के शिल्पकार

जब भी मैं अपने पुस्तकालय में जाता हूँ, एक शेल्फ पर सलीके से रखी किताबों की कतार में मानसरोवर की मोटी जिल्द मुझे घूरती-सी लगती है। पीली पड़ चुके कागज़ की खुशबू में एक अजीब-सा अपनापन है। उस जिल्द को छूते ही मुझे हमेशा लगता है कि मैं किसी पुराने मित्र का हाथ पकड़ रहा हूँ, जो मुझे अपने समय में ले जाएगा, एक ऐसा समय, जब कहानियाँ केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज की धड़कन थीं।


मेरे बचपन का प्रेमचंद

बचपन में जब पहली बार पंच परमेश्वर पढ़ी थी मिडिल स्कूल में था, तब कहानी का अर्थ शायद पूरा समझ में नहीं आया था, पर अंत में जब मित्रता और न्याय के बीच की खींचतान ने अपना फैसला सुनाया, तो मन में एक हलचल-सी मच गई थी।

मैंने पहली बार महसूस किया था कि कहानी केवल घटनाओं का बयान नहीं होती, वे हमारे भीतर सवाल भी बोती हैं।

प्रेमचंद की कहानियाँ मुझे कभी भी "दूर की दुनिया" की बातें नहीं लगतीं। उनकी भाषा, उनके पात्र, उनकी तकलीफ़ें, सब मेरे आस-पास के ही लोग थे। खेत में मेहनत करता किसान, शहर में ठगी खाता मज़दूर, चुपचाप अत्याचार सहती औरत, ये सब वो चेहरे थे जिन्हें मैं रोज़ देखता था, पर शायद समझ नहीं पाता था।


प्रेमचंद का जादू—सरलता में गहराई

प्रेमचंद की सबसे बड़ी खूबी, मेरे लिए, उनकी भाषा की सादगी है। न भारी-भरकम शब्द, न बनावटी अलंकार। जैसे कोई सीधे दिल से बात कर रहा हो। यही वजह है कि उनकी कहानियाँ आज भी उतनी ही असरदार लगती हैं।

आज जब मैं अपने बच्चे को ईदगाह पढ़ा रहा था, तो मुझे लगता है मैं उस मेले में हूँ, जहाँ हामिद तवे के लिए मोल-भाव कर रहा है। और सच कहूँ तो, आज भी यह कहानी पढ़ते हुए आँखें नम हो जाती हैं। यह केवल गरीबी की कहानी नहीं है, यह उस मासूम समझ की कहानी है जो बच्चों के दिल में घर करती है।


आज के कहानीकार और बदलते परिवेश

समय बदलता है, और कहानियों का रंग-ढंग भी। आज के कहानीकार मोबाइल ऐप्स, सोशल मीडिया, और शहरी भागदौड़ के बीच लिखते हैं। उनकी कहानियों में मेट्रो की भीड़, कैफ़े की बातें, और डिजिटल चैट्स की भाषा भी होती है।

मुझे याद है, कुछ साल पहले मैंने एक समकालीन लेखक की कहानी पढ़ी थी, एक लड़के की, जो अपने बुज़ुर्ग दादा के साथ व्हाट्सऐप पर बात करता है। दादा को इमोजी समझ नहीं आते, पर वे हर जवाब में "👍" भेज देते हैं। पहली नज़र में यह कहानी हास्यप्रद लगी, पर अंत तक आते-आते मैंने महसूस किया कि यह कहानी पीढ़ियों के बीच बदलती भाषा और बदलते रिश्तों पर कितनी गहरी टिप्पणी कर रही थी। शायद यही नई वाली हिंदी या कन्नड़ होने वाली है।


समानताएँ और फर्क

प्रेमचंद और आज के लेखक, दोनों ही समाज की नब्ज़ पकड़ते हैं। फर्क बस इतना है कि प्रेमचंद का समाज खेती-किसानी, जात-पाँत, और औपनिवेशिक अन्याय से जूझ रहा था; जबकि आज के लेखक का समाज टेक्नॉलजी, तेज़ी, और अधिकतर मानसिक अकेलेपन से जूझ रहा है।

फिर भी, एक धागा दोनों को जोड़ता है, मानवता का। चाहे गाँव के मेले में तवा ख़रीदता हामिद हो या ऑफिस में प्रमोशन न मिलने से परेशान एक आईटी प्रोफेशनल, दोनों ही कहानियाँ हमारे भीतर के इंसान को जगाती हैं, उस अकेलेपन, उस मानसिक उपापोह से अवगत करातीं हैं।


मेरे लिखने के सफ़र में प्रेमचंद का असर

मैंने जब पहली बार लिखना शुरू किया था, तो अनजाने में ही मेरे पात्र उसी मिट्टी से आने लगे, जहाँ प्रेमचंद के पात्र रहते थे। वे खेत में पसीना बहाते, मोहल्ले में छोटे-छोटे सपने सँजोते, और अपने हिस्से का न्याय माँगते।

एक बार मैंने एक कहानी लिखी थी, जिसमें एक बूढ़ा मोची अपनी बेटी की पढ़ाई के लिए रात-रात भर काम करता है। जब कहानी कुछ मित्रों को पढ़ने के लिए दी (छपवायी नहीं, क्योंकि कहीं ना कहीं डरता था), तो एक ने कहा की "ये तो हमारे मोहल्ले के शर्मा चाचा की कहानी है।"

मुझे लगा, शायद यही प्रेमचंद का असर है, पाठक को यह महसूस कराना कि यह कहानी उसकी अपनी है।


भाषा और समय का रिश्ता

भाषा बदलती है, और लेखक को उसके साथ बदलना पड़ता है। प्रेमचंद के समय की हिंदी में संस्कृतनिष्ठ शब्द थे, जो आज की पीढ़ी को भारी लगते हैं। आज के लेखक साधारण, बोलचाल की हिंदी लिखते हैं, जिसमें अंग्रेज़ी के शब्द भी घुल-मिल जाते हैं।

कभी-कभी मुझे लगता है कि अगर प्रेमचंद आज होते, तो वे भी इंस्टाग्राम या यूट्यूब पर कहानी सुनाते, पर उनकी संवेदनशीलता और सामाजिक दृष्टि वही रहती।


कहानी का असली मापदंड

समय और शैली चाहे जैसे बदल जाएँ, कहानी का असली मापदंड वही है, क्या उस कहानी का कथ्य आप तक उसी रूप में पहुँचा? क्या वह आपके भीतर कुछ महसूस करा पाने में सक्षम है? क्या वह आपको सोचने पर मजबूर करती है? क्या आप उस कहानी को खत्म करने के बाद भी, कहानी को, उसके पात्रों को, उसमे कहे गए किसी एक दृष्टान्त को, या उस दृष्टान्त के किसी एक पात्र के किसी बात को, अपने साथ लिए घूमते हैं? अगर या अंशतः भी होता है तो कहानी आप तक पहुँची और लेखक एक हद तक सफल रहा।

मेरे लिए, प्रेमचंद की कहानियाँ यही करती हैं। और यही गुण मैं आज के लेखकों की अच्छी कहानियों में भी देखता हूँ।


एक पुल, जो अतीत और वर्तमान को जोड़ता है

कभी-कभी मैं सोचता हूँ, साहित्य दरअसल एक पुल है। एक तरफ़ अतीत खड़ा है, प्रेमचंद जैसे लेखक के साथ, और दूसरी तरफ़ वर्तमान, हमारे समकालीन लेखकों के साथ। इस पुल पर चलते हुए हम न केवल समाज के बदलाव को देखते हैं, बल्कि यह भी समझते हैं कि इंसानी जज़्बात, संघर्ष और सपने, ये सदियों में भी नहीं बदलते, हाँ अंदाज़े बयाँ थोड़ा ज़रूर अलग हो गया है।

आज के लेखक, चाहे वह गाँव की कहानी लिख रहा हो या किसी स्टार्टअप के उतार-चढ़ाव की, कहीं-न-कहीं प्रेमचंद की उस परंपरा को आगे बढ़ा रहा है, जिसमें कहानी समाज का आईना होती है।


जब भी मैं कलम उठाता हूँ, मुझे लगता है कि मैं केवल अपनी कहानी नहीं लिख रहा, मैं उन तमाम कहानियों का कर्ज़ चुका रहा हूँ, जो मुझसे पहले लिखी गईं। प्रेमचंद ने जो रास्ता दिखाया, सच लिखने का, दिल से लिखने का, वह आज भी उतना ही ज़रूरी है।

इसलिए, जब भी मैं मानसरोवर की जिल्द बंद करता हूँ, तो यह महसूस करता हूँ कि प्रेमचंद सिर्फ़ अतीत नहीं हैं, वे आज भी हमारे साथ चलते हैं, हर उस पंक्ति में, जो किसी के दिल को छू जाए, हर उस किरदार में, जो किसी पाठक को अपना लगे, और हर उस कहानी में, जो इंसानियत को ज़िंदा रखे।

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