दोहा: ज्ञान, व्यंग्य और लोक की आत्मा

October 16, 2025

दोहा: ज्ञान, व्यंग्य और लोक की आत्मा

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर; पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर

ये प्रसिद्ध पंक्तियाँ बचपन से हमारे कानों में पड़ती आई हैं। ऐसी दो पंक्तियों की पूर्ण रचना को दोहा कहते हैं।


दोहा हिंदी काव्य का एक अत्यंत लोकप्रिय मात्रिक छंद है जिसका प्रयोग प्राचीन समय से नीति, भक्ति और ज्ञान के वचनों को व्यक्त करने के लिए होता आया है। केवल दो पंक्तियों में गहरी बात कहना इस विधा की ख़ासियत है।

हर दोहा अपने-आप में पूर्ण अर्थ रखता है और श्रोता को सीधा संदेश या सीख प्रदान करता है। सदियों से दोहों ने भारतीय समाज को शिक्षा, मनोरंजन और दर्शन तीनों ही दिए हैं, और आज भी इनकी गूँज उतनी ही असरदार है।


दोहे की उत्पत्ति और विकास

दोहा छंद का इतिहास उतना ही रोचक है जितना इसका स्वरूप। माना जाता है कि दोहों का प्रयोग उत्तर भारत में लगभग छठी शताब्दी से आरंभ हो चुका था।

प्रारंभ में यह छंद अपभ्रंश भाषा के साहित्य में विकसित हुआ, जहाँ इसे “दोहवइया” (दोहा साहित्य) कहा जाता था। दो पंक्तियों के इस छंद के उद्गम को लेकर एक दिलचस्प सिद्धांत जर्मन विद्वान हर्मन जैकोबी ने रखा, उनके अनुसार दोहा छंद का मूल संभवतः प्राचीन ग्रीक महाकाव्यों के छंद हेक्सामीटर से जुड़ा हो सकता है। यह भी कहा जाता है कि पश्चिमी भारत के आभीर (अहीर) समुदाय ने इसे ख़ास तौर पर प्रोत्साहन दिया, और संभव है कि उन्होंने होमर के महाकाव्यों के किसी अनुवाद से प्रेरणा लेकर दोहा अपनाया। शब्द “दोहा” की जड़ें संस्कृत में भी खोजी गई हैं, इसे संस्कृत के दोग्धक या द्विपदी जैसे द्विपंक्तीय छंदों से निकला रूप माना जाता है।

विकास की इस कड़ी में दोहा अपभ्रंश एवं प्राकृत से होता हुआ मध्यकालीन भारतीय भाषाओं तक फैल गया। 800 ई. के आसपास जैन आचार्यों के ग्रंथों से लेकर संस्कृत और प्राकृत के विद्वानों तक ने दोहों का उपयोग अपने लेखन में किया। महान कवि कालिदास के संस्कृत नाटक विक्रमोर्वशीयम् में भी दोहा छंद का उल्लेख मिलता है, यह प्रमाण है कि प्राचीन काल तक आते-आते दोहा साहित्य का हिस्सा बन चुका था। मध्ययुग में आते आते यह छंद हिंदी, अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी, मैथिली, मराठी, गुजराती जैसी उत्तर भारतीय भाषाओं के लोक साहित्य से लेकर दरबारी साहित्य तक में गहराई से पैठ गया। यहां तक कि सिंधी साहित्य में भी दोहा (जिसे वहाँ “दोहो” कहा जाता है) सूफ़ी-वेदान्तिक कविताओं का प्रमुख माध्यम बन गया। पंजाबी भाषा में 13वीं सदी के सूफ़ी संत बाबा फ़रीद के दोहे (जिन्हें श्लोक भी कहा गया) आज तक प्रसिद्ध हैं।

सिख गुरु परंपरा में गुरु नानक एवं अन्य गुरुओं की वाणियों में भी दोहे (साखियाँ) मिलते हैं। इस प्रकार भक्ति संतों से लेकर लोकगायक और दरबारी कवि तक, सभी ने दोहे को अपने संदेश का माध्यम बनाया। प्राचीन कहावत थी कि जहाँ गुणीजन एकत्र हों वहाँ दोहे अवश्य उद्धृत किए जाएँ - ज्ञान बाँटने और श्रोताओं का मन मोहित करने के लिए दोहा सुनाना लोकपरंपरा का प्रिय अंग बन गया था।


दोहा की विशेषताएँ और सौंदर्य

भारतीय काव्य परंपरा में दोहा अपने संयमित आकार और गहन प्रभाव के कारण अद्वितीय स्थान रखता है। दो पंक्तियों का यह छंद सुनने में भले सरल लगे, लेकिन इसकी रचना-विधान बड़ा सटीक है।

पारंपरिक नियम के अनुसार हर दोहा चार चरणों (अर्ध-पंक्तियों) से मिलकर बनता है - पहले और तीसरे चरण में 13-13 मात्राएँ, तथा दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ रहती हैं। दोनों पंक्तियों के अंत में समान तुकांत (काफिया) होता है, जिससे दोहा लयपूर्ण ढंग से ख़त्म होता है।

मात्राओं की गिनती और यति-ठहराव का यह संतुलन दोहे को सुनने में सुबोध और स्मरणीय बनाता है। वाकई, दोहा हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय छंदों में से एक है और ज्ञान एवं नीति का सरल माध्यम माना जाता है। इसकी लयबद्धता और संक्षिप्तता ऐसी है कि दोहा सुनते ही किसी सूक्ति या कहावत का आभास होता है, जो मन में बैठ जाती है।

विविध भाषाओं और भावों में दोहों की सुंदरता अलग-अलग रंग बिखेरती है। ब्रजभाषा के महाकवि बिहारीलाल ने अपने सतसई में श्रृंगार रस के सैकड़ों दोहे रचे, जिनमें प्रेम और सौंदर्य को चुटीले ढंग से पिरोया गया।

सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगै, घाव करें गंभीर।।


दूसरी ओर भक्तिकाल के संत कबीरदास के दोहे सीधे-साधे शब्दों में गहरी सामाजिक और आध्यात्मिक बातें कह जाते हैं, उन्होंने धर्मांधता और आडंबर पर तीखे प्रहार अपने दोहों के माध्यम से किए।

पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।

ताते ये चक्की भली, पीस खाये संसार।।


कांकर पाथर जोरि के, मस्जिद लई बनाय ।

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, का बहरा भया खुदाय।।


गुरु नानक, दादू दयाल जैसे संतों के दोहों में भक्ति और अध्यात्म की झलक मिलती है, तो राजस्थानी एवं सिन्धी लोककाव्य में दोहा वीर-रस और लोकगाथा सुनाने का माध्यम बना।

जहाँ आतम तहाँ रांम है, सकल रह्या भरपूर।

अंतर गति ल्यौ लाई रहु, दादू सेवग सूर॥


इस प्रकार, भाषा भले बदल जाए, दोहे की आत्मा हर जगह एक सी है, कम शब्दों में अधिक कहने की कला है।


सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में दोहे

नीति और शिक्षा: दोहे सदियों से नैतिक शिक्षा देने का सशक्त माध्यम रहे हैं। कबीर, रहीम जैसे संत कवियों ने दोहों के जरिए जीवन के गूढ़ दर्शन को सरल शब्दों में जन-साधारण तक पहुँचाया।

आज भी विद्यालयों में इनके दोहे नैतिक पाठ के रूप में पढ़ाए जाते हैं। संक्षिप्त और लयबद्ध होने के कारण ये दोहे आसानी से याद हो जाते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान पहुँचाते रहे हैं।

करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान॥


धर्म और अध्यात्म: भक्ति आंदोलन के संतों ने दोहे को ईश्वरीय सत्य और आत्मिक ज्ञान बाँटने के लिए अपनाया। सूफ़ी, नाथ, जैन, सिख – सभी धार्मिक परंपराओं में दोहा या दोहे-जैसे छंद मिलते हैं, जो ईश्वर भक्ति, गुरु महिमा और आत्मचिंतन की सीख देते आए हैं। गुरु नानक, कबीर, दादू दयाल जैसे संतों की वाणी में दर्ज दोहे (जिन्हें साखी भी कहा जाता है) इसी परंपरा के उदाहरण हैं, जहाँ दो पंक्तियों में आध्यात्मिक संदेश सहज रूप से संप्रेषित होता था।

जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहाँ पाप।

जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहाँ आप॥


लोक परंपरा: गाँव की चौपाल से लेकर शादी-ब्याह के गीतों तक, दोहा सदियों से लोकसंस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। लोककथाओं और कहावतों में दोहे कभी सीख बनकर तो कभी व्यंग्य बनकर उभरे हैं। कई प्रसिद्ध दोहे (जैसे “करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान” या “रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय”) तो आम बोलचाल में कहावतों की तरह शामिल हो गए हैं। दोहे का सरल छंद लोक स्मृति में आसानी से बस जाता है और इसीलिए लोक साहित्य में इसका व्यापक प्रयोग हुआ है।

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।

एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥


व्यंग्य और हास्य: दोहों का प्रयोग व्यंग्य में भी प्रभावी रूप से हुआ है। आधुनिक हिंदी साहित्य में काका हाथरसी जैसे हास्य-व्यंग्य कवियों ने सामाजिक कुरीतियों व राजनीति पर चुटीले प्रहार करने के लिए दोहा छंद का खूब इस्तेमाल किया। तीखे कटाक्ष को मज़ाहिया अंदाज़ में कहने के लिए दो पंक्तियों का यह फॉर्मेट बड़ा कारगर साबित हुआ है – आज भी समाचारपत्रों के कार्टून से लेकर कवि सम्मेलनों तक चुटीले दोहे सुनने को मिल जाते हैं।

अँग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज।

ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अँगरेज।।


दोहों में छिपी चिरस्थायी सीख

दोहों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उनमें जीवन का चिरंतन सत्य संक्षिप्त रूप में समाया होता है। ऐसी ही एक प्रसिद्ध कथा रहीम और तुलसीदास से जुड़ी है। कहा जाता है कि मुगल बादशाह अकबर के दरबारी कवि अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना “रहीम” दान देते समय नज़रें झुका कर रखते थे। महान भक्त कवि तुलसीदास ने रहीम की यह विनम्रता देख कर एक दोहा लिखकर उनके पास भेजा-

ऐसी देनी देन ज्यूँ, कित सीखे हो सैन।

ज्यों-ज्यों कर ऊँच्यो करो, त्यों-त्यों नीचे नैन।।

अर्थात - “ऐसी देने की रीति तुमने कहाँ सीखी? जैसे-जैसे दान देने को हाथ ऊँचा उठता है, वैसे-वैसे निगाह नीचे झुक जाती है।” रहीम ने इस दोहे के उत्तर में उतनी ही विनम्रता से अपना एक दोहा लिख भेजा:

देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।

लोग भरम हम पर करें, तासों नीचे नैन।।

अर्थ: “देने वाला तो वास्तव में कोई और (ईश्वर) है, जो रात-दिन सभी को भेज रहा है। लोग गलतफ़हमीवश मुझे दानी समझ लेते हैं, उसी भ्रांति से बचने के लिए मेरी आँखें नीचे झुक जाती हैं।” सिर्फ दो-दो पंक्तियों के इस प्रश्न और उत्तर में कितना गहरा संदेश निहित है

वास्तव में सच्चा दानी वही है, जो, अहंकार त्यागकर परम दाता, ईश्वर को श्रेय देता है, और विनम्रता बनाए रखता है।


सदियों पुराने ये दोहे आज भी उतने ही सार्थक हैं और हमें नि:स्वार्थ भाव की शिक्षा देते हैं।


दोहा भारतीय कविता की उस अद्भुत विधा का नाम है जिसमें सचमुच “गागर में सागर” भरने की क्षमता है। दोहे ने कम शब्दों में बड़ी बात कहने की कला पीढ़ियों को सिखाई है। चाहे भक्ति-रस हो या श्रृंगार, व्यंग्य हो या नीति-वचन – दोहा हर भाव को चंद लफ़्ज़ों में पिरो देता है। आधुनिक युग में भी दोहों की प्रासंगिकता कम नहीं हुई है; कविता मंचों से लेकर सोशल मीडिया तक दोहों का चलन जारी है। यह नन्हा सा छंद हमारी भाषाई और साहित्यिक विरासत का अमूल्य हिस्सा है, जो आगे भी नई पीढ़ियों को ज्ञान, खुशी और चिंतन का सतत स्रोत देता रहेगा।



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