Essay aka निबंध

October 09, 2025

Essay aka निबंध

मुझे आज भी याद है, कक्षा पाँच की हिंदी की वो क्लास जिसमे उमाशंकर माटसाब ने कहा की चलो आज निबंध करेंगे, अपनी कॉपी पर गाय के बारे में जो जानते हो लिखो।


मैंने, पहली पंक्ति लिखी,

“गाय एक चौपाया जानवर है।”

"उसके दो सींग, दो कान, एक मुँह (थूथून) , एक बड़ा सा पेट और एक पूँछ होती है..." फिर गाय से क्या मिलता है, किन किन रंगो की होती है, उसका पैर कैसा होता है, गाय के बच्चे को क्या कहते हैं, उस समय होने वाले उसके दूध (फ़ेनूसा) को क्या कहते हैं, आदि -इत्यादि कर के, एक पूरे ३० मिनट में ३-४ पेज की सामग्री लिख दी, अपने हिसाब से जितना आता था, सुना था, देखा था, सब कुछ...


उस समय हमें नहीं पता था कि यही “निबंध” किसी दिन हमारे सोचने-समझने की भाषा बन जाएगा।

उस छोटे से वाक्य में, बिना जाने, शायद मैंने एक संस्कृति लिख दी थी, उपयोगिता, श्रद्धा और आत्मीयता की।

यही तो निबंध का अर्थ था; व्यक्तिगत विचार में सामाजिक भाव की झलक।


कक्षा नौ में गए तो पढ़ा, महादेवी वर्मा की लघु कथा "गौरा" जो उनकी पालतू गाय पर लिखा गया।

उसमें गाय कोई पशु नहीं, बल्कि भावनाओं की प्रतिमा बन गई थी।

पढ़ कर लगा की पशु का मौन भी संवाद करता है।

उस दिन पहली बार समझ आया कि निबंध सिर्फ सूचना नहीं देते, मनुष्य के भीतर झांकने का आईना होते हैं।


शायद इसी वजह से हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध ‘अशोक के फूल’ में यह दर्शाया कि अशोक के फूल को मात्र एक पुष्प के रूप में नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता के विकास और परिवर्तन का एक प्रतीक मान ना चाहिए।

सच में, हमारे भीतर का इतिहास, हमारे विचारों की मिट्टी में उगता है।


कुछ और निबंध भी पढ़े,

रवीन्द्रनाथ ठाकुर -

‘साधना’ और ‘राष्ट्रीयता’ जैसे उनके निबंधों ने दिखाया कि विचार भी सौंदर्य हो सकता है।

उनका हर निबंध जैसे किसी शांति-निकेतन के वृक्ष के नीचे बोला गया संवाद लगता है - धीमा, गहरा, पर स्थायी।

हज़ारी प्रसाद द्विवेदी -

उनके निबंध पढ़ते हुए लगता था जैसे कोई पुराना मंदिर खोद कर निकाला जा रहा हो।

‘अशोक के फूल’ या ‘अलोक पर्व’ में वो हमारी संस्कृति को इस तरह खोलते हैं जैसे इतिहास किसी साधक की डायरी हो।

पुरुषोत्तम लक्ष्मण देशपांडे (मराठी) -

देशपांडे जी की ‘पूर्वा’ और ‘अपूरवा’ में रोज़मर्रा के किस्सों में, दर्शन झलकता है।

उन्होंने दिखाया कि निबंध सिर्फ गंभीर नहीं होते, वे मुस्कान में भी अर्थ खोज सकते हैं।

महादेवी वर्मा -

उनकी ‘अतीत के चलचित्र’ पढ़ते हुए पाठक खुद से सामना करता है।

वो शब्दों से नहीं, संवेदना से तर्क करती हैं।


लेकिन आज जब पलट कर निबंध को देखता हूँ, तो लगता है की, कालखंड में अख़बारों से संपादकीय गायब हुए, यूँ कहें, अख़बार ही गायब हो रहे हैं, पत्रिकाएँ बंद हुईं, और विचारों का स्थान तात्कालिक प्रतिक्रियाओं ने ले लिया।

अब जो निबंध बच्चे लिख रहे हैं, वो परीक्षा पास करने के लिए लिखे जाते हैं - “भारत मेरा देश है”, “मेरा प्रिय त्योहार” या “स्वच्छता का महत्व।”

हम भूल गए कि निबंध किसी विषय पर राय नहीं, बल्कि दृष्टि देने का माध्यम होता है। अब, जब विचारों का समय घटा, निबंध का जीवन भी सिमट गया।


कभी कभी लगता है, नदी की तरह लेखन भी अगर रुक गया, तो जीवन सूख जाएगा। शायद मुझे यही डर आज भी हमें सताता है - हमारे विचार सूख रहे हैं, क्योंकि हम निबंध लिखना भूल रहे हैं।


भाषा-वार अगर मैं कुछ निबंध, जिन्हें आज भी पढ़ना चाहिए, सुझाऊ तो कुछ ऐसे होंगे.


हिंदीअशोक के फूल, अतीत के चलचित्रहज़ारी प्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्माविचार और संवेदना का संतुलन
बंगालीसाधना, राष्ट्रीयतारवीन्द्रनाथ ठाकुरअध्यात्म और आधुनिकता का मेल
मराठीपूर्वा, अपूरवापु. ल. देशपांडेहास्य में जीवन दर्शन
अंग्रेज़ीThe Argumentative Indianअमर्त्य सेनभारतीय विचार पर वैश्विक दृष्टि
कन्नड़हिंदुत्व वा हिंद स्वराजयू. आर. अनंतमूर्तिसमाज और धर्म पर आत्ममंथन
तमिलइलक्किया सिंथनैगलसुजाता रंगराजनविज्ञान और समाज के बीच सेतु


आज जब कुछ लोग, जल्दी से लेखक बनने और जल्दी से कंटेंट बना लेने के लिए आतुर है, मेरे समझ से, एक कोना “धीरे लिखने” के लिए बचा लें।

और फिर से वो छोटे-छोटे विषयों पर लिखें - “बारिश का पहला दिन”, “घर का सन्नाटा”, “नानी का चश्मा”, “बाबा की छड़ी”, “घर की खिड़की से दिखता आकाश”।

क्योंकि निबंध वही तो है - जहाँ विचार भाषा से मिलते हैं, और भाषा दिल से।


आप भी पढ़िए, और लिखिए।

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