Baton-Baton Mein
Author:
Manohar Shyam JoshiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Other0 Reviews
Price: ₹ 156
₹
195
Unavailable
रचनाकार और व्यक्ति—दोनों ही रूपों में मनोहर श्याम जोशी की अपनी अलग पहचान है। उनकी दुनिया अनुभवों की उष्णता से भरपूर रही है। लेखन की विविधता से भी यह बात स्पष्ट है। यह पुस्तक उनके कई रूपों को हमारे सामने लाती है।
इस पुस्तक में पत्र-पत्रिकाओं के लिए प्रमुख व्यक्तियों से की गई भेंटवार्ताएँ संकलित हैं। इंटरव्यू के लिए अप्रस्तुत आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से भेंटवार्त्ता पढ़ें या केवल सरकारी बातचीत के लिए प्रस्तुत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से, पाठकों को बराबर यह आभास मिलेगा कि जोशी पत्रकार ही नहीं, कथाकार भी हैं। ‘बातों-बातों में’ वह सम्बद्ध व्यक्ति से असली बात तो निकाल ही लाते हैं, साथ ही उसका समूचा व्यक्तित्व उजागर कर देते हैं।
श्रेष्ठ भेंट-वार्ताकार का हर गुण-लक्षण जोशी के यहाँ है—ख़ुद बेचेहरा रहना और सामनेवाले को बेनकाब होने के लिए हर तरह से उकसाना-फुसलाना, बातचीत को सहज बनाए रखना, ऐसा-वैसा सवाल भी कर डालना मगर अगले को अवमानना का आभास न देना। टेपरिकॉर्डर अथवा शॉर्टहैंड नोटबुक जैसे किसी भी उपकरण का इस्तेमाल न करते हुए भी बातचीत को बाद में सही-सही लिख डालने की कला में भी जोशी जी सिद्धहस्त थे।
जोशी जी को यह कौशल आजमाने का अवसर जब भी मिला उन्होंने कुछ अनूठा कर दिखाया। ‘सारिका’ के लिए जब जनसाधारण के इंटरव्यूज का स्तम्भ लिखने को कहा गया तो आम आदमी को खास गरिमा प्रदान करके नई बात पैदा की। दूरदर्शन के लिए अपने कार्यक्रम ‘एक दृष्टिकोण’ में मंत्री आदि विशिष्ट जनों से प्रश्नोत्तर की जिम्मेदारी मिली तो व्यंग्य और अश्रद्धा से ऐसा रंग पैदा किया कि खलबली मच गई। अत्यन्त मनोरंजक पुस्तक।
ISBN: 9788126714834
Pages: 163
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘भाषा की राजनीति, ज्ञान की परम्परा’ एक संस्था के रूप में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इतिहास को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करने का प्रयास है। इसमें हिन्दी लोकवृत्त के निर्माण में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की भूमिका और उसके योगदान का विस्तृत विश्लेषण तो हुआ ही है। साथ ही, हिन्दी साहित्य सम्मेलन के स्थापना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उसकी शुरुआती गतिविधियों, सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशनों, सम्मेलन द्वारा कराई जाने वाली परीक्षाओं और उसके प्रकाशनों की चर्चा भी इस पुस्तक में विस्तार से की गई है। हिन्दी-नागरी आन्दोलन से सम्बद्ध अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर सम्मेलन ने कैसे काम किया, इसका विश्लेषण भी इसमें हुआ है। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में भाषा की राजनीति ने कैसे करवट ली और हिन्दी साहित्य सम्मेलन की इसमें क्या भूमिका रही, इतिहास-लेखन के क्षेत्र में हिन्दी साहित्य सम्मेलन और उससे जुड़े विद्वानों और इतिहासकारों के मत और उनके योगदान की पड़ताल के साथ ही हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी लेखन के क्षेत्र में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के योगदान को भी इस पुस्तक में विश्लेषित किया गया है.
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