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वे सुबह उठकर सबसे पहले मोबाइल चेक करते, व्हाट्सऐप ग्रुप में ‘गुड मॉर्निंग’ के बीच नई कहानी का आइडिया ढूँढते। ट्विटर थ्रेड लिखते, यूट्यूब पर किसानों के मुद्दों पर चैनल चलाते, और PR एजेंसी से ब्रांड डील के लिए बहस करते। कुछ अध्यायों की व्यंग्यपूर्ण यात्रा में, प्रेमचंद 21वीं सदी के लेखक-इन्फ्लुएंसर में बदलते हैं—जहाँ खेत और कैमरा, कहानी और कंटेंट, मिशन और मोनेटाइजेशन आपस में टकराते हैं। कभी ड्रोन शॉट्स के बीच किसानों की सच्चाई खोजते हैं, कभी ब्रांड की स्क्रिप्ट से जूझते हैं, और कभी सिर्फ बारिश की रात में पेन-कागज़ के साथ अकेले बैठते हैं। आख़िरकार, भीड़, ट्रेंड और डिजिटल शोर के बीच वे महसूस करते हैं— “लेकिन वो लिखते जरूर — क्योंकि उनके लिए लिखना एक मिशन था, सिर्फ पेशा नहीं।” कहानी हँसाते-हँसाते सोचने पर मजबूर करती है, और पूछती है—क्या हम अब भी कहानी सुन रहे हैं, या बस कंटेंट देख रहे हैं?
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